तकषी शिवशंकर पिल्लै के उपन्यास ‘चेम्मीन’ (हिन्दी में ‘मछुआरे’) का एक अंश
थोड़ी देर तक दोनों एक-दूसरे को देखते रहे। करुत्तम्मा को लगा कि सामने जो परी खड़ा है उसके सर्वनाश का कारण वही है। परी हमेशा से प्रेम करता रहा है, यह करुत्तम्मा को मालूम है। कुछ भी हो जाए, कहीं भी रहे और कभी भी हो, वह उससे प्रेम करता रहेगा। हमेशा उसे माफ़ करता रहेगा। वह उसके प्रति कुछ भी करे, परी सब सहता रहेगा।
कुछ ही क्षण में करुत्तम्मा अपने जीवन की सब विफलताएँ भूल गई। उसकी हार नहीं हुई। उसके पास एक बड़ा धन है। वह धन, जो दूसरों के पास नहीं है। वह एक बलिष्ठ आदमी के संरक्षण में है। उसका जीवन उसके साथ सुरक्षित है। जीवन-सम्बन्धी उसकी चेतना बिलकुल दुरुस्त है। उसे कभी भूखी नहीं रहना पड़ेगा। बाहर से किसी प्रकार का आघात उसे नहीं हो सकता, उसके पलनी में इतनी ताक़त है। उसे इसका विश्वास था। इसी प्रकार उसकी आत्मा में भी अब एक विश्वास उत्पन्न हुआ। एक आदमी उससे प्रेम करता है और हमेशा करता रहेगा। और वह आदमी उसके सामने खड़ा था।
परी के बढ़ाए हुए हाथों के बीच से वह उसकी छाती से जा लगी। दोनों के अधर मिल गए। परी ने उसके कान में कहा, “मेरी करुत्तम्मा!”
परी कारुत्तम्मा की पीठ पर हाथ फेरने लगा। परी ने फिर पुकारा, “करुत्तम्मा!”
“ऊँ!” – अर्धचेतनावस्था में करुत्तम्मा ने फिर जवाब दिया।
“मैं तेरा कौन हूँ?”
परी के कपोलों को अपने दोनों हाथों से पकड़ती हुई और अर्धनिमीलित नेत्रों से उसे देखती हुई करुत्तम्मा ने कहा, “कौन? मेरे रत्नभण्डार!”
दोनों फिर एक हो गए। उस आनन्दानुभूति में वह परी के कान में कुछ-कुछ कहती रही।
उस गाढ़ आलिंगन से अलग होने की शक्ति उसमें नहीं थी।
बहुत दूर समुद्र में एक शार्क ने चारे वाले काँटे को मुँह से पकड़ लिया। अब तक पलनी या किसी दूसरे के काँटे में इतना बड़ा शार्क नहीं फँसा था।
चारा पकड़ते ही शार्क ने अपनी पूँछ से नाव को ज़ोर से मारा। उस जगह समुद्र के पानी में हलचल मच गई। उस मार के ज़ोर से बहुत ऊपर तक पानी के छींटे उठे। पूँछ से मारने के बाद शार्क आगे कूदा। पलनी ने उसे देखा। उसके मुँह से काँटे की रस्सी लगी दिख रही थी।
उस तट पर इतना बड़ा मच्छ पहले-पहल उसी ने पकड़ा था। पलनी ख़ुशी के मारे चिल्ला उठा।
तुरन्त उसे एक बात तय करनी थी। रस्सी खींचकर शार्क को रोके या उसे इच्छानुसार भागने दे, काँटा यदि ठीक उसके कण्ठ में अटक गया होगा तब तो रस्सी को ज़रा-सा खींच देने से ही वह रुक जायगा। लेकिन यह भी सम्भव था कि वह उसी क्षण नाव को मारकर तोड़ दे। अगर उसे आगे अपनी गति से जाने दे तो नाव को भी खींच ले जायगा। उस तरह वह उसे कहाँ और कितनी दूर खींच ले जायगा?
तट का पता नहीं था। एक हाथ से काँटे की रस्सी पकड़े और दूसरे हाथ से डाँड सम्भालते हुए पलनी ने दिशा का ज्ञान प्राप्त करने के लिए आकाश की ओर देखा। लेकिन वह जिस नक्षत्र को देखना चाहता था, वह दिखायी नहीं पड़ा। आकाश बादलों से आच्छादित हो गया था।
अचिन्त्य द्रुत गति से पानी को चीरती हुई उसकी नाव चली जा रही थी। समुद्र शान्त था। लेकिन उसका रंग भयानक रूप से काला हो गया। पानी का बहाव किस ओर है, यह जानने के लिए पलनी ने पानी की ओर देखा। ध्यान से देखने पर भी कुछ पता नहीं चला।
शार्क नाव को खींचता हुआ चला जा रहा था। वह कहाँ की यात्रा थी? कितनी दूर खींच ले जाएगा?
दाँत पीसता हुआ पलनी चिल्ला उठा, “अरे ठहर! मुझे समुद्र-माता के महल में खींच ले जाने का समय अभी नहीं आया है।”
पलनी ने रस्सी को ज़रा खींच दिया। नाव एकाएक रुक गई। पलनी ठठाकर हँसा, “हा! ह-हा हा!!! हा!!! ठहर जा रे, वहीं ठहर जा!”
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