मुझे बेशुमार लोगों का क़र्ज़ अदा करना था और ये सब शराबनोशी की बदौलत था। रात को जब मैं सोने के लिए चारपाई पर लेटता तो मेरा हर क़र्ज़-ख़्वाह मेरे सिरहाने मौजूद होता… कहते हैं कि शराबी का ज़मीर मुर्दा हो जाता है, लेकिन मैं आपको यक़ीन दिलाता हूँ कि मेरे साथ मेरे ज़मीर का मुआमला कुछ और ही था। वो हर रोज़ मुझे सरज़निश करता और मैं ख़फ़ीफ़ हो के रह जाता।

वाक़ई मैंने बीसियों आदमियों से क़र्ज़ लिया था। मैंने एक रात सोने से पहले बल्कि यूँ कहिए कि सोने की नाकाम कोशिश करने से पहले हिसाब लगाया तो क़रीब-क़रीब डेढ़ हज़ार रुपए मेरे ज़िम्मे निकले। मैं बहुत परेशान हुआ, मैंने सोचा ये डेढ़ हज़ार रुपए कैसे अदा होंगे। बीस-पच्चीस रोज़ाना की आमदन है लेकिन वो मेरी शराब के लिए बमुश्किल काफ़ी होते हैं।

आप यूँ समझिए कि हर रोज़ की एक बोतल… थर्ड क्लास रम की… दाम मुलाहिज़ा हों… सोलह रुपए… सोलह रुपए तो एक तरफ़ रहे, उनके हासिल करने में कम-अज़-कम तीन रुपए टाँगे पर सर्फ़ हो जाते थे। काम होता नहीं था, बस पेशगी पर गुज़ारा था। लेकिन जब पेशगी देने वाले तंग आ गए तो उन्होंने मेरी शक्ल देखते ही कोई न कोई बहाना तराश लिया या इससे पेशतर कि मैं उनसे मिलूँ, कहीं ग़ायब हो गए।

आख़िर कब तक वो मुझे पेशगी देते रहते… लेकिन मैं मायूस न होता और ख़ुदा पर भरोसा रखकर किसी न किसी हीले से दस पंद्रह रुपए उधार लेने में कामयाब हो जाता।

मगर ये सिलसिला कब तक जारी रह सकता था। लोग मेरी इज़्ज़त करते थे मगर अब वो मेरी शक्ल देखते ही भाग जाते थे… सबको अफ़सोस था कि इतना अच्छा मकैनिक तबाह हो रहा है।

इसमें कोई शक नहीं कि मैं बहुत अच्छा मकैनिक था। मुझे कोई बिगड़ी मशीन दे दी जाती तो मैं उसको सरसरी तौर पर देखने के बाद यूँ चुटकियों में ठीक कर देता। लेकिन जहाँ तक मैं समझता हूँ, मेरी ये ज़ेहानत सिर्फ़ शराब मिलने की उम्मीद पर क़ायम थी, इसलिए कि मैं पहले तय कर लिया करता था कि अगर काम ठीक हो गया तो वो मुझे इतने रुपए अदा कर देंगे जिनसे मेरे दो रोज़ की शराब चल सके।

वो लोग ख़ुश थे। मुझे वो तीन रोज़ की शराब के दाम अदा कर देते। इसलिए कि जो काम मैं कर देता, वो किसी और से नहीं हो सकता था।

लोग मुझे लूट रहे थे… मेरी ज़ेहानत-ओ-ज़कावत पर मेरी इजाज़त से डाके डाल रहे थे और लुत्फ़ ये है कि मैं समझता था कि मैं उन्हें लूट रहा हूँ, उनकी जेबों पर हाथ साफ़ कर रहा हूँ। असल में मुझे अपनी सलाहियतों की कोई क़दर न थी। मैं समझता था कि मैकेनिज़्म बिल्कुल ऐसी है जैसे खाना-खाना या शराब पीना।

मैंने जब भी कोई काम हाथ में लिया, मुझे कोफ़्त महसूस नहीं हुई। अलबत्ता इतनी बात ज़रूर थी कि जब शाम के छः बजने लगते तो मेरी तबीयत बेचैन हो जाती। काम मुकम्मल हो चुका होता मगर मैं एक-दो पेच ग़ायब कर देता ताकि दूसरे रोज़ भी आमदन का सिलसिला क़ायम रहे… ये शराब हरामज़ादी कितनी बुरी चीज़ है कि आदमी को बेईमान भी बना देती है।

मैं क़रीब-क़रीब हर रोज़ काम करता था। मेरी माँग बहुत ज़्यादा थी इसलिए कि मुझ ऐसा कारीगर मुल्क-भर में नायाब था… तार बाजा और राग बोझा वाला हिसाब था। मैं मशीन देखते ही समझ जाता था कि उसमें क्या क़ुसूर है।

मैं आपसे सच अर्ज़ करता हूँ। मशीनरी कितनी ही बिगड़ी हुई क्यों न हो, उसको ठीक करने में ज़्यादा से ज़्यादा एक हफ़्ता लगना चाहिए। लेकिन अगर उसमें नए पुर्ज़ों की ज़रूरत हो और आसानी से दस्तयाब न हो रहे हों तो उसके मुतअल्लिक़ कुछ नहीं कहा जा सकता।

मैं बिला नाग़ा शराब पीता था और सोते वक़्त बिला नाग़ा अपने क़र्ज़ के मुतअल्लिक़ सोचता था, जो मुझे मुख़्तलिफ़ आदमियों को अदा करना था। ये एक बहुत बड़ा अज़ाब था। पीने के बावजूद इज़्तिराब के बाइस मुझे नींद न आती… दिमाग़ में सैंकड़ों स्कीमें आती थीं।

बस मेरी ये ख़्वाहिश थी कि कहीं से दस हज़ार रुपये आ जाएँ तो मेरी जान में जान आए… डेढ़ हज़ार रुपया क़र्ज़ का फ़िलफ़ौर अदा कर दूँ। एक टैक्सी लूँ और हर क़र्ज़-ख़्वाह के पास जाकर माज़रत तलब करूँ और जेब से रुपये निकालकर उनको दे दूँ, जो रुपये बाक़ी बचें उनसे एक सैकेण्ड हैंड मोटर ख़रीद लूँ और शराब पीना छोड़ दूँ।

फिर ये ख़याल आता कि नहीं, दस हज़ार से काम नहीं चलेगा… कम अज़ कम पचास हज़ार होने चाहिए। मैं सोचने लगता कि अगर इतने रुपये आ जाएँ, जो यक़ीनन आने चाहिए तो सबसे पहले मैं एक हज़ार नादार लोगों में तक़सीम कर दूँगा… ऐसे लोगों में जो रुपया लेकर कुछ कारोबार कर सकें।

बाक़ी रहे उनचास हज़ार…उस रक़म में से मैंने दस हज़ार अपनी बीवी को देने का इरादा किया था। मैंने सोचा था कि फिक्स्ड डिपोज़िट होना चाहिए… ग्यारह हज़ार हुए। बाक़ी रहे उनतालिस हज़ार, मेरे लिए बहुत काफ़ी थे।

मैंने सोचा ये मेरी ज़्यादती है, चुनांचे मैंने बीवी का हिस्सा दोगुना कर दिया, यानी बीस हज़ार… अब बचे उन्तीस हज़ार… मैंने सोचा कि पंद्रह हज़ार अपनी बेवा बहन को दे दूँगा। अब मेरे पास चौदह हज़ार रहे। उनमें से आप समझिए कि दो हज़ार क़र्ज़ के निकल गए। बाक़ी बचे बारह हज़ार… एक हज़ार रूपये की अच्छी शराब आनी चाहिए…लेकिन मैंने फ़ौरन थू कर दिया और ये सोचा कि पहाड़ पर चला जाऊँगा और कम अज़ कम छः महीने रहूँगा ताकि सेहत दुरुस्त हो जाए। शराब के बजाय दूध पिया करूँगा।

बस ऐसे ही ख़यालात में दिन-रात गुज़र रहे थे… पचास हज़ार कहाँ से आएँगे, ये मुझे मालूम नहीं था… दो-तीन स्कीमें ज़ेहन में थीं। ‘शम्मा’ दिल्ली के मुअम्मे हल करूँ और पहला इनाम हासिल कर लूँ… डर्बी की लॉटरी का टिकट ख़रीद लूँ… चोरी करूँ और बड़ी सफ़ाई से।

मैं फ़ैसला न कर सका कि मुझे कौन-सा क़दम उठाना चाहिए। बहरहाल ये तय था कि मुझे पचास हज़ार रुपये हासिल करना हैं… यूँ मिलें या वूँ मिलें।

स्कीमें सोच-सोचकर मेरा दिमाग़ चकरा गया… रात को नींद नहीं आती थी जो बहुत बड़ा अज़ाब था। क़र्ज़-ख़्वाह बेचारे तक़ाज़ा नहीं करते थे लेकिन जब उनकी शक्ल देखता तो नदामत के मारे पसीना-पसीना हो जाता। बाज़ औक़ात तो मेरा साँस रुकने लगता और मेरा जी चाहता कि ख़ुदकुशी कर लूँ और इस अज़ाब से नजात पाऊँ।

मुझे मालूम नहीं कैसे और कब मैंने तहय्या कर लिया कि चोरी करूँगा… मुझे ये मालूम नहीं कि मुझे कैसे मालूम हुआ कि… मुहल्ले में एक बेवा औरत रहती है जिसके पास बेअंदाज़ा दौलत है। अकेली रहती है… मैं वहाँ रात के दो बजे पहुँचा। ये मुझे पहले ही मालूम हो चुका था वो दूसरी मंज़िल पर रहती है… नीचे पठान का पहरा था। मैंने सोचा कोई और तरकीब सोचनी चाहिए ऊपर जाने के लिए।

मैं अभी सोच ही रहा था कि मैंने ख़ुद को उस पारसी लेडी के फ़्लैट के अंदर पाया… मेरा ख़याल है कि मैं पाइप के ज़रिए ऊपर चढ़ गया था। टार्च मेरे पास थी… उसकी रोशनी में मैंने इधर-उधर देखा। एक बहुत बड़ा सेफ़ था।

मैंने अपनी ज़िन्दगी में कभी सेफ़ खोला था न बंद किया था लेकिन उस वक़्त जाने मुझे कहाँ से हिदायत मिली कि मैंने एक मामूली तार से उसे खोल डाला। अंदर ज़ेवर ही ज़ेवर थे। बहुत बेशक़ीमती… मैंने सब समेटे और मक्के-मदीने वाले ज़र्द रूमाल में बांध लिए।

पचास-साठ हज़ार रुपये का माल होगा… मैंने कहा ठीक है, इतना ही चाहिए था, कि अचानक दूसरे कमरे से एक बुढ़िया पारसी औरत नमूदार हुई। उसका चेहरा झुर्रियों से भरा हुआ था… मुझे देखकर पोपली-सी मुस्कुराहट उसके होंठों पर नमूदार हुई।

मैं बहुत हैरान हुआ कि ये माजरा क्या है… मैंने अपनी जेब से भरा हुआ पिस्तौल निकालकर तान लिया… उसकी पोपली मुस्कुराहट उसके होंठों पर और ज़्यादा फैल गई। उसने मुझे बड़े प्यार से पूछा, “आप यहाँ कैसे आए?”

मैंने सीधा-सा जवाब दिया, “चोरी करने।”

“ओह!” बुढ़िया के चेहरे की झुर्रियाँ मुस्कराने लगीं। “तो बैठो… मेरे घर में तो नक़दी की सूरत में सिर्फ़ डेढ़ रुपया है… तुमने ज़ेवर चुराया है लेकिन मुझे अफ़सोस है कि तुम पकड़े जाओगे क्योंकि इन ज़ेवरों को सिर्फ़ कोई बड़ा जौहरी ही ले सकता है…और हर बड़ा जौहरी इन्हें पहचानता है…”

ये कहकर वो कुर्सी पर बैठ गई… मैं बहुत परेशान था कि या इलाही ये सिलसिला क्या है। मैंने चोरी की है और बड़ी बी मुस्कुरा-मुस्कुराकर मुझसे बातें कर रही है… क्यों?

लेकिन फ़ौरन इस क्यों का मतलब समझ में आ गया, जब माता जी ने आगे बढ़कर मेरे पिस्तौल की परवा न करते हुए मेरे होंठों का बोसा ले लिया और अपनी बाँहें मेरी गर्दन में डाल दीं… उस वक़्त ख़ुदा की क़सम मेरा जी चाहा कि गठड़ी एक तरफ़ फेंकूँ और वहाँ से भाग जाऊँ। मगर वो तस्मा पा औरत निकली, उसकी गिरिफ़्त इतनी मज़बूत थी कि मैं मुतलक़न हिलजुल न सका… असल में मेरे हर रग-ओ-रेशे में एक अजीब-ओ-ग़रीब क़िस्म का ख़ौफ़ सराएत कर गया था। मैं उसे डायन समझने लगा था जो मेरा कलेजा निकालकर खाना चाहती थी।

मेरी ज़िन्दगी में किसी औरत का दख़ल नहीं था। मैं ग़ैर शादीशुदा था। मैंने अपनी ज़िन्दगी के तीस बरसों में किसी औरत की तरफ़ आँख उठाकर भी नहीं देखा था। मगर पहली रात जब कि मैं चोरी करने के लिए निकला तो मुझे ये फफा-कुटनी मिल गई जिसने मुझसे इश्क़ करना शुरू कर दिया।

आपकी जान की क़सम मेरे होश-ओ-हवास ग़ायब हो गए… वो बहुत ही करीह-उल-मंज़र थी, मैंने उससे हाथ जोड़कर कहा, “माता जी, मुझे बख़्शो… ये पड़े हैं आपके ज़ेवर… मुझे इजाज़त दीजिए।”

उसने तहक्कुमाना लहजे में कहा, “तुम नहीं जा सकते… तुम्हारा पिस्तौल मेरे पास है… अगर तुमने ज़रा-सी भी जुम्बिश की तो डिज़ कर दूँगी… या टेलीफ़ोन करके पुलिस को इत्तिला दे दूँगी कि वो आकर तुम्हें गिरफ़्तार कर ले… लेकिन जान-ए-मन मैं ऐसा नहीं करूँगी… मुझे तुमसे मुहब्बत हो गई है… मैं अभी तक कुँवारी रही हूँ…अब तुम यहाँ से नहीं जा सकते।”

ये सुनकर क़रीब था कि मैं बेहोश हो जाऊँ कि टन-टन शुरू हुई। दूर कोई क्लॉक सुबह के पाँच बजने की इत्तिला दे रहा था। मैंने बड़ी बी की ठोड़ी पकड़ी और उसके मुरझाए हुए होंठों का बोसा लेकर झूठ बोलते हुए कहा, “मैंने अपनी ज़िन्दगी में सैंकड़ों औरतें देखी हैं लेकिन ख़ुदा वाहिद शाहिद है कि तुम ऐसी औरत से मेरा कभी वास्ता नहीं पड़ा। तुम किसी भी मर्द के लिए नेमित-ए-ग़ैर-मुतरक़्क़बा हो। मुझे अफ़सोस है कि मैंने अपनी ज़िन्दगी की पहली चोरी तुम्हारे मकान से शुरू की। ये ज़ेवर पड़े हैं। मैं कल आऊँगा बशर्ते कि तुम वादा करो कि मकान में और कोई नहीं होगा।”

बुढ़िया ये सुनकर बहुत ख़ुश हुई, “ज़रूर आओ, तुम अगर चाहोगे तो घर में एक मच्छर तक भी नहीं होगा जो तुम्हारे कानों को तकलीफ़ दे। मुझे अफ़सोस है कि घर में सिर्फ़ एक रुपया और आठ आने थे, कल तुम आओगे तो मैं तुम्हारे लिए बीस-पच्चीस हज़ार बैंक से निकलवा लूँगी… ये लो अपना पिस्तौल।”

मैंने अपना पिस्तौल लिया और वहाँ से दुम दबाकर भागा। पहला वार ख़ाली गया था… मैंने सोचा कहीं और कोशिश करनी चाहिए। क़र्ज़ अदा करने हैं और जो मैंने प्लान बनाया है, उसकी तकमील भी होना चाहिए।

चुनांचे मैंने एक जगह और कोशिश की। सर्दियों के दिन थे, सुबह के छः बजने वाले थे… ये ऐसा वक़्त होता है जब सब गहरी नींद सो रहे होते हैं। मुझे एक मकान का पता था कि उसका जो मालिक है बड़ा मालदार है… बहुत कंजूस है… अपना रुपया बैंक में नहीं रखता… घर में रखता है। मैंने सोचा इसके यहाँ चलना चाहिए।

मैं वहाँ किन मुश्किलों से अंदर दाख़िल हुआ, मैं बयान नहीं कर सकता… बहरहाल पहुँच गया। साहिब-ए-ख़ाना जो माशा-अल्लाह जवान थे, सो रहे थे। मैंने उनके सिरहाने से चाबियाँ निकालीं और अलमारियाँ खोलना शुरू कर दीं।

एक अलमारी में काग़ज़ात थे और कुछ फ़्रैंच लेदर। मेरी समझ में न आया कि ये शख़्स जो कुँवारा है, फ़्रैंच लेदर कहाँ इस्तिमाल करता है… दूसरी अलमारी में कपड़े थे। तीसरी बिल्कुल ख़ाली थी, मालूम नहीं इसमें ताला क्यों पड़ा हुआ था। और कोई अलमारी नहीं थी।

मैंने तमाम मकान की तलाशी ली लेकिन मुझे एक पैसा भी नज़र न आया… मैंने सोचा इस शख़्स ने ज़रूर अपनी दौलत कहीं दबा रखी होगी… चुनांचे मैंने उसके सीने पर भरा हुआ पिस्तौल रखकर उसे जगाया।

वो ऐसा चौंका और बिदका कि मेरा पिस्तौल फ़र्श पर जा पड़ा। मैंने एक दम पिस्तौल उठाया और उससे कहा, “मैं चोर हूँ… यहाँ चोरी करने आया हूँ… लेकिन तुम्हारी तीन अलमारियों से मुझे एक दमड़ी भी नहीं मिली। हालाँकि मैंने सुना था कि तुम बड़े मालदार आदमी हो।”

वो शख़्स जिसका नाम मुझे अब याद नहीं, मुस्कुराया… अंगड़ाई लेकर उठा और मुझसे कहने लगा, “यार तुम चोर हो तो तुमने मुझे पहले इत्तिला दी होती… मुझे चोरों से बहुत प्यार है… यहाँ जो भी आता है, वो ख़ुद को बड़ा शरीफ़ आदमी कहता है हालाँकि वो अव़्वल दर्जे का काला चोर होता है… मगर तुम चोर हो… तुमने अपने आपको छुपाया नहीं है। मैं तुमसे मिलकर बहुत ख़ुश हुआ हूँ।”

ये कहकर उसने मुझसे हाथ मिलाया। उसके बाद रेफ़्रीजरेटर खोला। मैं समझा शायद मेरी तवाज़ो शर्बत वग़ैरा से करेगा… लेकिन उसने मुझे बुलाया और खुले हुए रेफ़्रीजरेटर के पास ले जाकर कहा, “दोस्त मैं अपना सारा रुपया इसमें रखता हूँ। ये सन्दूक़ची देखते हो… इसमें क़रीब-क़रीब एक लाख रुपया पड़ा है, तुम्हें कितना चाहिए?”

उसने सन्दूक़ची बाहर निकाली जो यख़-बस्ता थी। उसे खोला। अन्दर सब्ज़ रंग के नोटों की गड्डियाँ पड़ी थीं। एक गड्डी निकालकर उसने मेरे हाथ में थमा दी और कहा, “बस इतने काफ़ी होंगे… दस हज़ार हैं।”

मेरी समझ में न आया कि उसे क्या जवाब दूँ। मैं तो चोरी करने आया था… मैंने गड्डी उसको वापस दी और कहा, “साहिब! मुझे कुछ नहीं चाहिए… मुझे माफ़ी दीजिए… फिर कभी हाज़िर हूँगा।”

मैं वहाँ से आप समझिए कि दुम दबाकर भागा। घर पहुँचा तो सूरज निकल चुका था… मैंने सोचा कि चोरी का इरादा तर्क कर देना चाहिए। दो जगह कोशिश की मगर कामयाब न हुआ। दूसरी रात को कोशिश करता तो कामयाबी यक़ीनी नहीं थी… लेकिन क़र्ज़ बदस्तूर अपनी जगह पर मौजूद था जो मुझे बहुत तंग कर रहा था… हलक़ में यूँ समझिए कि एक फाँस-सी अटक गई थी।

मैंने बिल-आख़िर ये इरादा कर लिया कि जब अच्छी तरह सो चुकूँगा तो उठकर ख़ुदकुशी कर लूँगा।

सो रहा था कि दरवाज़े पर दस्तक हुई… मैं उठा… दरवाज़ा खोला, एक बुज़ुर्ग आदमी खड़े थे। मैंने उनको आदाब अर्ज़ किया। उन्होंने मुझसे फ़रमाया, “लिफ़ाफ़ा देना था, इसलिए आपको तकलीफ़ दी… माफ़ फ़रमाइएगा, आप सो रहे थे।”

मैंने उससे लिफ़ाफ़ा लिया… वो सलाम करके चले गए। मैंने दरवाज़ बंद किया, लिफ़ाफ़ा काफ़ी वज़नी था। मैंने उसे खोला और देखा कि सौ-सौ रुपये के बेशुमार नोट हैं। गिने तो पचास हज़ार निकले। एक मुख़्तसर-सा रुक्क़ा था, जिसमें लिखा था कि “आप के ये रुपये मुझे बहुत देर पहले अदा करने थे… अफ़सोस है कि मैं अब अदा करने के क़ाबिल हुआ हूँ।”

मैंने बहुत ग़ौर किया कि ये साहब कौन हो सकते हैं जिन्होंने मुझसे क़र्ज़ लिया… सोचते-सोचते मैंने आख़िर सोचा कि हो सकता है किसी ने मुझसे क़र्ज़ लिया हो जो मुझे याद न रहा हो।

बीस हज़ार अपनी बीवी को… पंद्रह हज़ार अपनी बेवा बहन को, दो हज़ार क़र्ज़ के, बाक़ी बचे तेरह हज़ार… एक हज़ार मैंने अच्छी शराब के लिए रख लिए। पहाड़ पर जाने और दूध पीने का ख़याल मैंने छोड़ दिया।

दरवाज़े पर फिर दस्तक हुई… उठकर बाहर गया। दरवाज़ा खोला तो मेरा एक क़र्ज़-ख़्वाह खड़ा था। उसने मुझसे पाँच सौ रुपए लेना थे। मैं लपककर अंदर गया… तकिए के नीचे नोटों का लिफ़ाफ़ा देखा, मगर वहाँ कुछ मौजूद ही नहीं था।

मंटो की कहानी 'काली सलवार'

Book by Saadat Hasan Manto:

सआदत हसन मंटो
सआदत हसन मंटो (11 मई 1912 – 18 जनवरी 1955) उर्दू लेखक थे, जो अपनी लघु कथाओं, बू, खोल दो, ठंडा गोश्त और चर्चित टोबा टेकसिंह के लिए प्रसिद्ध हुए। कहानीकार होने के साथ-साथ वे फिल्म और रेडिया पटकथा लेखक और पत्रकार भी थे। अपने छोटे से जीवनकाल में उन्होंने बाइस लघु कथा संग्रह, एक उपन्यास, रेडियो नाटक के पांच संग्रह, रचनाओं के तीन संग्रह और व्यक्तिगत रेखाचित्र के दो संग्रह प्रकाशित किए।