दिसम्बर एक दौड़ है
पतली-सी रेलिंग पर भागती हुई
गिलहरी की दौड़

जिसे कहीं जाना नहीं है
रुकना है यहीं
बग़ल के किसी सूखते
सेमल की कोटर में

ठण्ड के थोड़ा और ठिठुरने से पहले
झीलों के थोड़ा और जमने से पहले
दीवारों के थोड़ा और सीलने से पहले
पेड़ों के थोड़ा और कँपकँपाने से पहले

अपनी जिज्ञासाओं को
अपनी कोटर में
खींचकर ले आने की दौड़

जब सब कुछ शांत है
लेकिन सम्भ्रांत
उत्तेजनाएँ जब स्थिर दिखने लगती हैं
तब सबसे ज़्यादा चोटिल होती हैं

मुझे नदियों के बारे में मत बताओ
पता नहीं क्या बहता है उनमें
मैंने दिसम्बर की राख देखी है
एक क्षुब्ध फैली हुई
झाग से फफनाती नदी में

नदियों को हमेशा जाते हुए देखा है
कभी लौटकर आते हुए नहीं
दिसम्बर एक जाती हुई नदी है

दिसम्बर तक सारी प्रतीक्षाएँ
जीवट लगती हैं
मानो जैसे उनमें अभी भी रंग बचा है
एक आपबीती का

दिसम्बर एक पटरी
जिसपर से गुज़र जाती है
पूरे साल की लदी हुई
थकान से भरी रेलगाड़ी

नहीं छोड़ पाता
मैं लाख कोशिशें करता हूँ
बचाकर रख लेने को
सिर्फ़ ये एक महीना

लगता है जैसे
समय की ये सड़क
एक साल और चौड़ी हो जाएगी
मैं थोड़ा और असहाय
अकेला खड़ा एक तरफ़

दिसम्बर
जैसे मेरी चमड़ी से खिंचा जा रहा हो
बाहर आ जाता है
झुर्रियाँ बनकर
महत्वाकांक्षाएँ बूढ़ी होने लगती हैं

दिसम्बरों का जाना
प्रतीक्षाओं का चले जाना है असमय
मैंने तुम्हें बचाने की कोशिश शायद कम की हो
लेकिन तुम्हारी प्रतीक्षाएँ बचाने की कोशिश में
हर साल एक दिसम्बर हार जाता हूँ।

आदर्श भूषण की कविता 'वे बैठे हैं'
आदर्श भूषण
आदर्श भूषण दिल्ली यूनिवर्सिटी से गणित से एम. एस. सी. कर रहे हैं। कविताएँ लिखते हैं और हिन्दी भाषा पर उनकी अच्छी पकड़ है।