अमूमन रामधारी सिंह ‘दिनकर’ का नाम आते ही जो पंक्तियाँ किसी भी कविता प्रेमी की ज़बान पर आती हैं, वे या तो ‘कुरुक्षेत्र’ की ये पंक्तियाँ होती हैं-

“वह कौन रोता है वहाँ-
इतिहास के अध्याय पर,
जिसमें लिखा है, नौजवानों के लहु का मोल है”

या फिर ‘रश्मिरथी’ से कृष्ण की चेतावनी-

“दो न्याय अगर तो आधा दो,
पर, इसमें भी यदि बाधा हो,
तो दे दो केवल पाँच ग्राम,
रक्खो अपनी धरती तमाम।”

या फिर ‘जनतंत्र का जन्म’, ‘लोहे के पेड़ हरे होंगे’, ‘गाँधी’ और ‘रोटी और स्वाधीनता’ इत्यादि जैसी कविताएँ ..। मोटे तौर पर देखें तो ये सारी कविताएं राष्ट्रीयता के स्वरों को शंब्दों में पिरोये हुए हैं। और इसका कारण भी यह है कि जब दिनकर ने लिखना शुरू किया था तब आज़ादी का आंदोलन पूरे देश में जोर-शोर से चल रहा था और दिनकर ने उसी शोर में अपनी आवाज़ मिलाते हुए अपनी कविताओं द्वारा लोगों को जागरूक और जाग्रत करने का प्रयत्न किया। किन्तु बहुत कम लोग जानते हैं कि दिनकर केवल एक राष्ट्रवादी कवि नहीं थे।

दिनकर ने उस दौर में अपनी कविताएं लिखी हैं जब छायावाद अपने अंतिम पड़ाव पर था तो हरिवंशराय बच्चन, भगवतीचरण वर्मा जैसे कवि प्रेम, मस्ती और उन्माद की एक अलग ही लहर अपनी कविताओं में बहा रहे थे। उन्हीं कविताओं के बीच दिनकर ने भी ऐसी कई कविताएँ लिखीं जिनसे उनके उस स्वरुप का मेल नहीं खाता, जिस स्वरुप में हिन्दी का एक आम पाठक उन्हें देखता है। उन्हीं कविताओं में से कुछ कविताओं के अंश आज उनकी सालगिरह पर आपके सामने रख रहा हूँ, आप एक नए ‘दिनकर’ से मिलने का लुत्फ़ उठा सकते हैं..

‘गीत-अगीत’ शीर्षक कविता का एक अंश जिसमें दो प्रेमियों के बीच एक ऐसा दृश्य दिख पड़ता है जहाँ न चाहते हुए भी आप राधा-कृष्ण की कल्पना करने लगते हैं-

“दो प्रेमी हैं यहाँ, एक जब
बड़े साँझ आल्‍हा गाता है,
पहला स्‍वर उसकी राधा को
घर से यहाँ खींच लाता है।
चोरी-चोरी खड़ी नीम की
छाया में छिपकर सुनती है,
‘हुई न क्‍यों मैं कड़ी गीत की
बिधना’, यों मन में गुनती है।
वह गाता, पर किसी वेग से
फूल रहा इसका अंतर है।
गीत, अगीत, कौन सुन्‍दर है?”

अपनी कविताओं से सिंहासन हिला देने वाला कवि ‘बालिका से वधु’ कविता में शृंगार की छोटी-छोटी वस्तुएँ सजाए हुए है-

“माथे में सेंदूर पर छोटी
दो बिंदी चमचम-सी,
पपनी पर आँसू की बूँदें
मोती-सी, शबनम-सी।

लदी हुई कलियों में मादक
टहनी एक नरम-सी,
यौवन की विनती-सी भोली,
गुमसुम खड़ी शरम-सी।

पीला चीर, कोर में जिसके
चकमक गोटा-जाली,
चली पिया के गांव उमर के
सोलह फूलों वाली।”

रहस्यवाद यूँ तो छायावादी कविताओं में देखने को मिलता था लेकिन जहाँ प्रेम हो, वहां रहस्य होना स्वाभाविक है.. एक कवि का प्रेमी कभी खुलकर सामने नहीं आता, या कह लें कवि आने नहीं देता.. ‘रहस्य’ कविता से-

“तुम समझोगे बात हमारी?

उडु-पुंजों के कुंज सघन में,
भूल गया मैं पन्थ गगन में,
जगे-जगे, आकुल पलकों में बीत गई कल रात हमारी।

सुख-दुख में डुबकी-सी देकर,
निकली वह देखो, कुछ लेकर,
श्वेत, नील दो पद्म करों में, सजनी सध्यःस्नात हमारी।

तुम समझोगे बात हमारी?”

‘प्रतीक्षा’ में व्याकुल-

“अयि संगिनी सुनसान की!

मन में मिलन की आस है,
दृग में दरस की प्यास है,
पर, ढूँढ़ता फिरता जिसे
उसका पता मिलता नहीं,
झूठे बनी धरती बड़ी,
झूठे बृहत आकश है;

मिलती नहीं जग में कहीं
प्रतिमा हृदय के गान की।
अयि संगिनी सुनसान की!”

‘उर्वशी’ में पुरुरवा का पूछना-

“रूप की आराधना का मार्ग
आलिंगन नहीं, तो और क्या है?
स्नेह का सौंदर्य को उपहार
रस-चुम्बन नहीं, तो और क्या है?”

ऐसी ही और न जाने कितनी कविताओं में दिनकर का वो रूप झलकता है जिससे अभी भी अधिकतर कविता पढ़ने वाले अनभिज्ञ हैं। एक सहज शैली में राष्ट्रीयता के कठिन पथ की ओर ले जाने वाले कवि के हृदय में क्या कुछ चलता है इससे उसके पाठकों को अवगत भी होना चाहिए और उसे खुले दिल से स्वीकार भी करना चाहिए। अंतर्द्वंदों को नकारते हुए एक सीमा में किसी कवि की छवि को पाट देना न्यायसंगत ही नहीं, खुद स्वयं को उस कवि के विभिन्न रूपों से वंचित कर देना है और हम ‘दिनकर’ को पढ़ते हुए ऐसा बिलकुल नहीं करेंगे, ऐसी आशा है..।

जय ‘दिनकर’!

पोषम पा
सहज हिन्दी, नहीं महज़ हिन्दी...