Tag: Hindi poetry
अकुशल
बटमारी, प्रेम और आजीविका के रास्तों से भी गुज़रना होता है
और जैसा कि कहा गया है इसमें कोई सावधानी काम नहीं आती
अकुशलता ही देती...
कोई टाँवाँ-टाँवाँ रोशनी है
कोई टाँवाँ-टाँवाँ रोशनी है
चाँदनी उतर आयी बर्फ़ीली चोटियों से
तमाम वादी गूँजती है बस एक ही सुर में
ख़ामोशी की यह आवाज़
होती है…
तुम कहा करते हो न!
इस...
देवेन्द्र शर्मा की कविताएँ
दैवीय प्रेम
गाहे-बगाहे,
अपने प्रेम को महानता
और अपने अनुरोध को वैधता
देने के आशय से
मैंने हमारे साथ होने को दैवीयता के धागों से बुना;
मसलन ये कि
बिना चाँद...
आधा चाँद माँगता है पूरी रात
पूरी रात के लिए मचलता है
आधा समुद्र..
आधे चाँद को मिलती है पूरी रात
आधी पृथ्वी की पूरी रात..
आधी पृथ्वी के हिस्से में आता है
पूरा सूर्य..
आधे...
अंकुश कुमार की कविताएँ
वक़्त
वक़्त रुककर चल रहा है
मेरे बीच से गुज़रते हुए,
मैं देखता हूँ
कि कई सदियाँ गुज़र गयी हैं मुझसे होकर
मेरे समूचे अस्तित्व में
कोयले की कालिख लगी...
प्रेमगीत
मेरे कुरते में चाँद का कॉलर
और तारे का बटन
मेरे कुरते में
पहाड़ों की पीठ पर प्यासी भागती हिरणी के धुंधते पाँव
मेरे कुरते में
सोने के केशों...
शामिल होता हूँ
मैं चाँद की तरह
रात के माथे पर
चिपका नहीं हूँ,
ज़मीन में दबा हुआ
गीला हूँ गरम हूँ
फटता हूँ अपने अंदर
अंकुर की उठती ललक को
महसूसता
देखने और रचने...
शूल से है प्यार मुझको, फूल पर कैसे चलूं मैं?
हास्य और तंज़ को पलटकर देखा जाए तो संवेदना और मर्म कोने में कहीं छिपकर बैठे होते हैं.. अपने तीखे और मारक चोट करने वाले व्यंग्य के लिए जाने जाने वाले हरिशंकर परसाई ने कविताएँ भी लिखी हैं जिनका विषय जितना सामाजिक है, उतना ही व्यैक्तिक.. पढ़िए उन्हीं में एक कविता..
चीज़ें बोलती हैं
अगर तुम एक पल भी
ध्यान देकर सुन सको तो,
तुम्हें मालूम यह होगा
कि चीजें बोलती हैं।
तुम्हारे कक्ष की तस्वीर
तुमसे कह रही है
बहुत दिन हो गए...
गुलाबी चूड़ियाँ
प्राइवेट बस का ड्राइवर है तो क्या हुआ,
सात साल की बच्ची का पिता तो है!
सामने गियर से उपर
हुक से लटका रक्खी हैं
काँच की चार...
कविता और फ़सल
ठण्डे कमरों में बैठकर
पसीने पर लिखना कविता
ठीक वैसा ही है
जैसे राजधानी में उगाना फ़सल
कोरे काग़ज़ों पर।
फ़सल हो या कविता
पसीने की पहचान हैं दोनों ही।
बिना पसीने...
आओ रानी
"आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी,
यही हुई है राय जवाहरलाल की
रफ़ू करेंगे फटे-पुराने जाल की
यही हुई है राय जवाहरलाल की.."
यह कविता नागार्जुन ने तब लिखी थी, जब भारत की आज़ादी के बाद ब्रिटेन की महारानी भारत आयी थीं.. तत्कालीक सरकार पर अविश्वास और जिनकी गुलामी भारत विभाजन में परिणत हुई, उन्हीं के स्वागत पर व्यंग्य इस कविता में साफ झलकता है!