‘Dohri Takleef’, a poem by Niki Pushkar
तुम्हें अपशब्दों से
अपमानित कर
कोई ख़ुशी नहीं मिलती मुझे
मक़सद सिर्फ़ तुम्हें भी
उतना ही
अपमानित महसूस करवाना होता है,
जितना मुझे होता है
तुम्हारी अनदेखी पर
मैं इस बात से भी
दिन-रात पीड़ित होती हूँ कि
मेरे कड़वे व्यवहार से
तुम्हें कितनी तकलीफ़ हो रही होगी
तुम यह सोच ख़ुद को तसल्ली देकर
किनारा कर सकते हो कि
ज़हरीली सोच और ज़ेहन से
दूर रहना बेहतर
किन्तु
मेरी मुक्ति फिर भी नहीं
तुम्हारी तकलीफ़ सिर्फ़ एक है
मैं दोहरी तकलीफ़ झेल
दिन-रात मरती हूँ…