हम पृथ्वी की शुरुआत से स्त्री हैं
सरकारें बदलती रहीं
तख़्त पलटते रहे
हम स्त्री रहे
विचारक आए
विचारक गए
हम स्त्री रहे
सैंकड़ों सावन आए
अपने साथ हर दूषित चीज़ बहा ले गए
हम स्त्री रहे
हज़ारों भाषाएँ अक्स में आयीं
हर अनामी चीज़ का नामकरण हुआ
हम स्त्री रहे
भाषाएँ अब लुप्त हो रही हैं
सावन अब अकसर नहीं आते
पृथ्वी अब ख़त्म होने को है
हम अब तक स्त्री हैं
हम अब तक आशंकित गर्भधारी हैं
मनुष्य नहीं हैं, मनुष्य-उत्पादक हैं
इनसानों की बस्ती में किरायेदार पशु
वह पशु जो अपने बाड़े से निकल
मैदानों में भागने की कोशिश में रोज़ रोता है
यह सोच कि मैदान में भागते-भागते एक दिन
वह भी दो पैरों पर खड़ा हो जाएगा
मनुष्य हो जाएगा
और रोज़ असफल सो जाता है
मनुष्य हो पाने के स्वप्न देखने।
शिवांगी की कविता 'उसके शब्दकोश से मैं ग़ायब हूँ'