भारतीय ज्ञानपीठ के जोरबाग़ वाले बुकस्टोर में एक किताब खरीदने गया था। खुले पैसे नहीं थे तो बिलिंग पर बैठे सज्जन ने सुझाया कि कोई और किताब भी देख लीजिए। यद्यपि मैं ऐसे बहाने ढूँढा ही करता हूँ फिर भी हाल ही में किताबों पर किए गए खर्च के कारण मैंने खुद को समझा दिया था कि देख लेता हूँ लेकिन खरीदूँगा नहीं। लेकिन फिर किताब ही एक ऐसी वस्तु है जिसके आगे मेरे सारे संकल्प ढीले पड़ जाते हैं और वही हुआ। नीचे रखी रश्मि भारद्वाज की किताब ‘एक अतिरिक्त ‘अ” पर नज़र पड़ी। शीर्षक आकर्षित करने वाला था तो नज़र ठहर भी गयी। फिर याद आया कि यह किताब पहले भी कहीं किसी सूची में देख चुका था और शीर्षक की वजह से ही शायद यह याद भी रहा। फिर क्या था, दिल लगा दिमाग को समझाने कि बार-बार यह किताब सामने आ रही है, कोई तो बात होगी, यह किताब खुद को तुमसे पढ़वाना चाहती हो शायद, यह ले लेता हूँ फिर महीनों की छुट्टी, वगैरह-वगैरह और आखिरकार दो किताबों की बिलिंग कर दी गयी।

2017 यानी इसी साल भारतीय विद्यापीठ से प्रकाशित रश्मि भारद्वाज का यह कविता संग्रह ‘नवलेखन पुरस्कार’ में अनुशंसित (recommended) कृति है। जब यह किताब हाथ में उठायी थी तो बाबुषा कोहली की ‘प्रेम गिलहरी दिल अखरोट’ की याद आ गयी। कारण शायद यह रहा होगा कि वह भी नवलेखन पुरुस्कार की विजेता थी। बहरहाल, किसी भी छवि में इस किताब को देखे बिना मैंने यह किताब पढ़नी शुरू की और बिना रुके पढ़ते हुए, तीन दिन में यह किताब मेरी किताबों की शेल्फ पर रखी हुई नई हिंदी की बेहतरीन किताबों में से एक बन चुकी है। तीन दिन भी नौ से छः की नौकरी की वजह से लगे अन्यथा यह किताब एक साँस में पढ़ लेने वाली है।

पहली कविता में ही कविता को हताशा, सवाल और उम्मीद का एक साथ पर्याय बताने वाली यह किताब एक इंसान के भीतर दबे उस अवसाद, दुःख और बेबसी को कुरेदती है जिसका सामना न चाहते हुए भी हम सबको करना पड़ता है। यह विवशता लालच या अनभिज्ञता में फंसे किसी इंसान की विवशता नहीं, यह जीवन का वह अनचाहा उपहार है जो अनायास ही किसी भी पल, किसी भी स्थिति में हमारे सामने आकर खड़ा हो जाता है और इससे आँखें फेरना हमारी सुविधा के बाहर का विषय है। ऐसे में नज़रें चुराने से बेहतर है इस अवसाद की आँखों में झाँक लेना, हौसले से न सही तो एक दृढ़ता से और लिख दिया जाना कविताओं में जीवन का हर दुःख जो जिया गया.. जैसे जिया गया..।

एक तरफ यह अवसाद समाज के विभिन्न हिस्सों, विभिन्न पहलुओं से जुड़ा अवसाद है। कभी अपने सपनों को नकारते हुए इस जीवन को यूँ ही खर्च करते रहने की पीड़ा है तो कहीं जीविका की तलाश में अपना गाँव छोड़ देने का मलाल और साथ ही उस शहर पर गुस्सा जो परदेस से आए हुए लोगों को आज भी बिना मन के ढोता हुआ नज़र आता है-

“जानती हूँ ख़ून उतर आता होगा तुम्हारी आँखों में भी
सुनकर अश्लील उपाधियाँ और वो हिंसक रिश्ता
भईया बनाने का
जिसमें प्रेम नहीं नफरत छुपी होती है उनकी
लेकिन तुम्हारे इस असहाय क्रोध को भी चाहिए कुछ आधार
मसलन एक छत जो बचा सके मुसीबतों से
एक भरा हुआ पेट जिसे कल की चिंता न हो”

धर्म और परम्परों के नाम पर समाज को भीतर से मारते हुए लोगों से लेकर, बच्चों और लड़कियों पर टूटते वहशी लोगों तक, औरतों के गालों पर पड़ी बालों की लटों और होठों पर लगी लिपस्टिक का रंग देखकर उन्हें करैक्टर सर्टिफिकेट बाँटने की प्रक्रिया या लड़कियों को एक कुम्हार की मिट्टी से ज्यादा कुछ न समझने की सोच, रश्मि ने सभी संवेदनशील विषयों को ऐसे शब्दों में उकेरा है कि पाठक कहीं भी उनसे असहमति प्रकट करने की हिम्मत नहीं कर पाता-

“बड़ी बेहाया होती हैं वो औरतें
जो लिखी गयी भूमिकाओं में
शातिराना तरीके से कर देती हैं तब्दीली
और चुपके से तय कर जाती हैं सफ़र
शिकार से आखेटक तक का”

“गरीब की बेटी नहीं पायी जाती
किसी कविता में या कहानी में
जब आप उसे खोज रहे होंगे
किताबों के पन्नों में
वह खड़ी होगी धान के खेत में, टखने भर पानी के बीच
गोबर में सनी बना रही होगी उपले”

लड़कियों, महिलाओं और माँ पर लिखी कविताओं में तो रश्मि ने स्त्री-पक्ष और भावों का वह समंदर सामने रख दिया है जिसे पार करके आगे बढ़ पाना एक सामान्य भारतीय पुरुष के बस की बात नहीं। कम से कम मेरे लिए तो यह आसान नहीं रहा। ‘देवी’, ‘वह कुछ नहीं कहेगी’, ‘माफ़ करना मुझे’, ‘मेरा शहर’, ‘आसान होगा फिर औरत होकर जीना’, ‘थोड़ा-सा कुछ अपना’, ‘बिजूका’, ‘माँ से कभी नहीं छूटता है घर’, ‘वह नहीं देखती आसमाँ के बदलते रंग’, ‘चरित्रहीन’ और ‘अपशगुन’, सभी कविताएँ ऐसे महसूस होती हैं जैसे एक आईना चिल्ला रहा हो जिसपर हमने पर्दा डालकर उसे चारों तरफ से क़ैद किया हुआ है लेकिन फिर भी वह देख सकता हो वह सारे राज़ जिन्हें घिनौना बताकर यह समाज सदियों से छुपाने की कोशिश में है।

इन कविताओं में छिपे मर्म का अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि एक कविता ‘वह शिला से मजबूत औरत’ की अंतिम तीन पंक्तियाँ पढ़कर, मैं किताब बन्द करके, अपनी माँ के पास जाकर बैठ गया था। फिर वापिस आया, फिर वे पंक्तियाँ पढ़ी और फिर किताब को कुछ देर के लिए बन्द करना पड़ा।

“कुछ भी हो
जब तक जियेगी, वह टूटेगी नहीं,
जीने के बहाने गढ़ती ही रहेगी
अपने सपनों के घर में,
उम्मीदों के नए रंग सजा कर
फिर अकेली ही उसे निहारेगी,
वह शिला सी मजबूत औरत”

मैं शायद ज़्यादा भावुक हूँ लेकिन अभी ये पंक्तियाँ टाइप करते हुए भी एकटक इन पंक्तियों को देख नहीं पा रहा।

वहीं दूसरी तरफ यह किताब केवल सामाजिक रूढ़ियों, पाखंडों और विसंगतियों की बात करने तक सीमित नहीं है। इस किताब की अन्य कविताओं में एक व्यक्तिगत संघर्ष भी समानांतर चलता है। ‘अवसाद से मुक्ति’ की आशा करता एक मन, ‘नीले-स्याह निशान’ को प्रेम मान लेने वाला भ्रम, कुछ बनने की स्थिति में कुछ और बन जाने वाले हम और मन की यात्रा में उस झील के किनारे पर बैठी वह.. इन सारे अनुभवों को बयान करती रश्मि की कविताएँ इतने करीब से ज़िन्दगी को जीती नज़र आती हैं कि आसपास की सभी भव्य चीज़ें, हमारे खुद के बारे में किए गए दावे, यहाँ तक कि सत्य जो आँखों से दिखता हो, सब कुछ, कुछ कम प्रमाणिक लगने लगते हैं।

“जब मान लेना था मुझे
ह्रदय होता है
शरीर में रक्त और ऑक्सीजन
पहुँचाने का एक अंग मात्र
मैंने चुना इसका दिल होना
जहाँ चुपके से रख दिया जाता है
एक भरोसा”

न प्रतीकों का आवरण, न भाषायी सुंदरता की ज़रूरत, ज़िन्दगी को सीधे लेकिन संघात करते शब्दों में कागज़ पर उतार दिया गया है, जिसे हम दूर से देखते बस यही सोचते रह जाते हैं कि ज़िन्दगी का यह चेहरा इतना स्पष्ट हमें पहले क्यों नहीं दिखा..। लगता है जैसे ये कविताएँ समय को धोखा देकर लिखी गयी हैं, समय से आगे दौड़ते हुए। एक लम्हा जो जिया गया, लिख दिया गया उसी वक़्त, इससे पहले कि दूसरा लम्हा पहले को समय की नियत गति में निगल ले..।

रश्मि भारद्वाज को अपना धन्यवाद देते हुए आप सभी से कहना चाहूँगा कि इस किताब को ज़रूर पढ़ें और वह भी खरीदकर।

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पुनीत कुसुम
कविताओं में स्वयं को ढूँढती एक इकाई..!