दुनिया की नहीं तो यूरोप की छत : अपने पर्वतीय प्रदेश के कारण स्विटजरलैण्ड को प्रायः यह नाम दिया जाता था—किन्तु हिमालय को घर के किसी बड़े की तरह सहज भाव से जानने वाले हम भारतवासियों को यह नाम पहले भी प्रभावित न करता, और अब तो यूरोप के लोगों को भी नहीं करता क्योंकि इधर उनका भी हिमालय से परिचय काफ़ी बढ़ गया है। अनेक यूरोपीय देशों के पर्वतारोही विभिन्न शिखरों की चढ़ाई के सफल और असफल आयोजन कर चुके हैं। इसीलिए इंग्लैण्ड के स्वीडन शिखर की चढ़ाई की चर्चा करते समय एक अंग्रेज़ अध्यापक ने अपनी बात हठात् अधूरी छोड़कर मुझसे कहा था— “अरे, आपसे क्या इसकी बात करें! हिमालय के सामने तो हमारे पहाड़ एक फुंसी के बराबर होंगे।”
पहाड़ की ऊँचाई की तुलना में भी स्विट्जरलैण्ड के पहाड़ उतने नगण्य तो नहीं हैं। और पहाड़ी समाजों में जो एक सहज आत्म-सन्तोष और स्वतः सम्पूर्णता होती है, वह जितनी हमारे देश के पहाड़ी समाजों में पायी जा सकती है उतनी ही स्विट्जरलैण्ड में भी मिलेगी। फिर भी भारत में प्रायः जो तुलना की जाती सुनी थी, उसे जब-जब मन दुहराया तब-तब कुछ द्विविधा हुई—यह कहने को मन नहीं हुआ कि स्विट्जरलैण्ड यूरोप का कश्मीर है, या कि कश्मीर भारत का स्विट्जरलैण्ड है।
एक बार इतना कहा था कि कश्मीर के कुछ प्रदेशों को साबुन से ख़ूब धो लें तो कुछ-कुछ स्विट्जरलैण्ड-से लगने लगेंगे।
यह बात किसी हद तक ठीक है, पर इसका भी पूरा अभिप्राय उसी की समझ में आ सकता है जिसने दोनों देशों को देखा हो । क्योंकि बात केवल इतनी नहीं है कि स्विट्जरलैण्ड बड़ा साफ-सुथरा देश है, या कि वहाँ के जीवन का स्तर यूरोप की भी दृष्टि से बहुत ऊँचा है। बात इससे कुछ अधिक है। स्विस दृश्य को देखकर उसका अतिशय सौन्दर्य मन में सजीव-सा जमता नहीं है, कुछ ऐसा जान पड़ता है कि एक रंगीन चित्र देख रहे हैं। मैं नहीं जानता कि ऐसा मेरा ही अनुभव रहा या कि और भारतीयों का भी ऐसा होता है : यों कुछ ऐसे अति उत्साही भारतीय भी मुझे मिले जो स्विट्जरलैण्ड के सौन्दर्य के सामने दुनिया-भर के पहाड़ों को फूँक से उड़ा देते हैं, भारत के हिमालय की तो बात ही क्या? किन्तु ऐसे तो एक भारतीय राजदूत की भी बात सुनी थी, जिन्होंने समूचे भारत को ही यूरोप के एक पहाड़ी बंगले के सामने तुच्छ ठहरा दिया था। जिन यूरोपीय महिला ने यह बात मुझे सुनायी थी—उन्हीं से यह कहा गया था—उन्होंने यह टिप्पणी भी की थी : “हमारे देश में भी ऐसे लोग होते हैं तो अपने देश की बुराई करते रहते हैं—पर हम उन्हें राजदूत बनाकर नहीं भेजते।”
पर ऐसे शब्द-धनियों को छोड़े। मुझे तो जगह-जगह बार-बार, ऐसा लगा मानो सामने के दृश्य का सौन्दर्य तो स्पष्ट हो, मगर उसकी यथार्थता ही मानो सन्दिग्ध हो। ऐसा क्यों?
सब कुछ मँजा-धुला उजला है; हरी घास मानो सचमुच की घास से कुछ ज़्यादा हरी है, आकाश सचमुच के आकाश से कुछ अधिक नीला, शुभ्र मेघखण्ड कुछ अधिक चमकीले, फूल कुछ अधिक रंगीन और इसलिए जैसे उन पर विश्वास नहीं होता, उनसे अपनापा नहीं जुटता।
जैसे जिस घर के बैठके को बहुत अधिक झाड़-पोंछकर और तरतीब से रखा जाता है, उसमें जाकर प्रभावित होने पर भी ऐसा नहीं लगता कि यहाँ कोई रहता है जिसके संस्पर्श से कमरे का वातावरण जीवित है—कुछ ऐसा ही भाव स्विट्जरलैण्ड में बराबर मेरे मन में रहा। हो सकता है कि मैं ही ज़्यादा संवेदनशील रहा हूँ पर स्विट्जरलैण्ड की आल्प श्रेणी से बिलकुल संलग्न इटालियन आल्पों में या आस्ट्रिया के पर्वतों में ऐसा नहीं लगा—इटली का परिदृश्य सर्वदा प्रवहमान जीवन से स्पन्दनशील जान पड़ा।
वैसे एक अर्थ में ज़रूर स्विस पर्वत श्रेणी यूरोप की छत है : वहाँ से बहा हुआ पानी नदियों के रूप में यूरोप के विभिन्न भागों में से गुज़रता है। राइन, रोन, पो और इन्न नदियाँ सब इसी श्रेणी से प्रसृत होती हैं। इन्न तो शीघ्र ही सैन्यूब में जा मिलती है : बाक़ी तीनों आस्ट्रिया, जर्मनी, फ़्रांस और इटली के प्रदेशों को सींचती हुई विभिन्न दिशाओं में जाती हैं, उनके तट-प्रदेश का अपना अलग-अलग सौन्दर्य है, प्रत्येक के तट की मुख्य खेती, अंगूर के अलग-अलग नाम और प्रशंसक। स्विटजरलैण्ड के प्रदेश में भी नदियाँ हैं, और नदी तट पर बसी हुई राजधानी बेर्न का सौन्दर्य दर्शनीय है। मुझे वही वहाँ का सबसे सुन्दर शहर लगा और उसके बाद बाजल या बाल, जिसके नदी-तट की शोभा निराली है। त्सूरिख (जूरिश) अपने अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे और उद्योगों के कारण, और जेनीवा अपने अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलनों के कारण अधिक प्रसिद्ध है। जेनीवा की विशाल झील लेमाना उसके सौन्दर्य की वृद्धि करती है, पर इस झील का भी वास्तव में दूसरा, अर्थात् लोजान की ओर का तट अधिक सुन्दर है।
नदियों के रहते भी स्विटजरलैण्ड नदियों का नहीं, झीलों का ही देश है—झीलों का और पर्वत-शिखरों का। जेनीवा और लोजान दोनों विशाल लेमान झील पर बसे हुए अलग-अलग नगर हैं जिनके बीच के छोटे-छोटे गँवइ क़सबे अलग हैं : लोग अपनी-अपनी रुचि के अनुसार इन छोटे घाट पड़ावों में से कोई एक को, कोई दूसरे को पसन्द करते हैं। किन्तु पूरी झील की दृष्टि से लूसन की झोल छोटी होने पर भी सबसे सुन्दर है। यों लेमान झील पर लोजान के आस-पास से दीखने वाला सूर्यास्त बड़ा सुन्दर हो सकता है, और शियों की पुरानी गढ़ी भी—जिसे बायरन की कविता ‘द प्रिज़नर ऑफ़ शियो’ ने प्रसिद्ध कर दिया—बड़ी सुन्दर है। पर सूसर्न के कोने-कोने पर इतना सौन्दर्य बिखरा पड़ा है, और झील की ओर से आँख हटाएँ तो गिरि-शिखर की आवाज़ इतने मधुर आकर्षक स्वर से बुला लेती है, कि लूसर्न देखे बिना स्विटजरलैण्ड देखना पूरा नहीं माना जा सकता।
मेरे जैसे व्यक्ति को कभी-कभी यह ज़रूर अनुभव होता कि सर्वत्र टूरिस्टों की इतनी भरमार न होती तो कुछ बुरा न होता—पर टूरिस्ट तो आधुनिक जीवन का ज़ुकाम हैं—जो कभी भी कहीं भी हो सकता है और जिसका कोई इलाज नहीं है।
और स्विटजरलैण्ड के उद्योगों में तो टूरिस्ट उद्योग का बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान है। वहाँ की घड़ियाँ, कैमरे, और अनेक प्रकार की छोटी मशीनें और उपकरण तो प्रसिद्ध हैं ही, वहाँ के डिब्बे के दूध, पनीर, चाकलेट आदि का निर्यात भी दुनिया-भर को होता है और उत्तम कोटि की दवाइयाँ भी वहाँ से आती हैं, पर इस छोटे से देश की सम्पन्नता जितनी इन उद्योगों पर निर्भर है, उतनी है टूरिस्टों पर : वहाँ इसके लिए जो नाम प्रचलित है वह है ‘परदेशी उद्योग’। गर्मियों में धूप और खुली हवा, पहाड़ी सैर और झील-झरनों के स्नान का आकर्षण और जाड़ों में बर्फ़ के खेलों का आकर्षण—इनके कारण प्रतिवर्ष दो लम्बे ‘टूरिस्ट सीज़न’ हो जाते हैं : इसके अलावा विश्राम या प्राकृतिक चिकित्सा, दूध-मट्ठे के कल्प या जड़ी-बूटियों की खोज में भी लोग आते ही रहते हैं। और यूरोपीय राजनीति में अपनी विशेष तटस्थता-नीति के कारण स्विटजरलैण्ड अनेक प्रकार के राजनीतिक सम्पर्क और आदान-प्रदान का भी केन्द्र है। साल में कम ही दिन ऐसे होते होंगे जब वहाँ कोई-न-कोई कॉन्फ़्रेन्स न हो रही हो। जेनीवा का तो नाम ही मानो अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन का पर्याय हो गया है, पर लोजान, लोकार्नो, बाजेल सभी इतिहास में सन्धियों और सम्मेलनों के कारण प्रसिद्ध हो गए हैं।
स्विटजरलैण्ड बहुभाषी देश है । जर्मन, फ़्रांसीसी और इटालीय, उसके तीन स्पष्ट क्षेत्र हैं : उत्तर और पश्चिमोत्तर जर्मन-भाषी है, पश्चिम और दक्षिण-पश्चिम फ़्रेंच-भाषी : दक्षिण-पूर्व इटालियन-भाषी।
भाषा अपने आप में अलग कुछ चीज़ नहीं होती। उसके साथ संस्कृति, विचार-धाराएँ और प्रवृत्तियाँ और जातिगत सहानुभूतियाँ भी बनी होती हैं और यह त्रिमुखी सम्बन्ध यहाँ भी देखा जा सकता है।
उदाहरणतया रोम के पोप की विशेष सेना का प्रत्येक सिपाही स्विटजरलैण्ड के पर्वतीय प्रदेश से आता है : ये ‘स्विस प्रहरी’ अपने लम्बे क़द और रंगीन वर्दियों के लिए भी उतने ही प्रसिद्ध हैं जितने अपने शिष्ट व्यवहार के लिए। स्विटज़रलैण्ड में तीनों भाषाओं को समान राजकीय प्रतिष्ठा दी गयी है, पर वास्तव में किसी भी प्रदेश में मुख्य रूप से एक भाषा का चलन है और गौण रूप से एक दूसरी का; समान रूप से त्रिभाषी प्रदेश या समुदाय कहीं नहीं मिलेगा। हमारे जैसे बहुभाषी देश के लिए इसमें कई संकेत हैं।
भाषाओं के परस्पर विद्वेष से मुक्त रहना देश की उन्नति के और देश में एक देशीय भावना के विकास के लिए आवश्यक है और स्विटजरलैण्ड इस भाषा-मैत्री का उत्तम उदाहरण है।
लेकिन दूसरी ओर मेरी समझ में यह भी वह सिखाता है कि बिना एक भाषा में पूरी तरह डूबे रचनात्मक साहित्यिक कार्य नहीं हो सकता। क्योंकि भाषा संस्कृति का जीवन-रस है; जब तक जड़ों में सींचा जाकर और रेशे-रेशे में बहकर वह रस पौधे को पुष्टि न दे, तब तक पौधे पर रंग-बिरंगे काग़ज़ी फूल खोंस देने से कुछ नहीं हो सकता। स्विटजरलैण्ड में बड़े साहित्यकार अधिक नहीं हुए है : जो हुए हैं, वे उसकी त्रिभाषिकता के उदाहरण नहीं हैं बल्कि स्पष्टतया एक भाषा के और भाषिक संस्कृति के वातावरण में पले हैं—जर्मन के या फ़्रेंच के। या फिर ऐसा हुआ है कि बाहर से आकर जर्मन या फ़्रेंच-भाषी साहित्यकार वहाँ बस गए हैं। बिना एक भाषा की संस्कृति में पूरी तरह डूबे हुए, बिना उस भाषा को आत्मसात् किए हुए, कोई बड़ा साहित्य नहीं रचा जा सकता। यह जान लेना हमारे लिए बड़ा ज़रूरी है—जो कि कोई एक परीक्षा पास कर लेने पर अपने को भाषा के अधिकारी समझने लगते हैं, या कभी ऐसा भी करते हैं कि किसी भी भारतीय भाषा पर अधिकार न होने के कारण अपने को बड़े अंग्रेज़ी दाँ ही मान बैठते हैं। दूसरी भाषाएँ जानना बुरा नहीं है और हम लोग दूसरों की अपेक्षा जल्दी ही दूसरी भाषा सीख लेते हैं: पर भाषा पर वह अधिकार जो सृष्टि का साधन बन सके—वह और चीज़ होती है। वैसा अधिकार एक ही भाषा में मिल सकता है—और अधिकतर अपनी ही भाषा में मिल सकता है। ‘जिन डूबा तिन पाइयाँ गहरे पानी पैठ’—भाषा के सागर के लिए भी उतना ही सच है जितना ज्ञान के : ज्ञान के द्वारा हम सत्य को, वास्तविकता को पहचानते हैं तो भाषा के द्वारा उसकी सुन्दरता को।
ऊपर पोप के स्विस अंगरक्षकों की चर्चा की गयी है। यह सेना स्वेच्छासेवी है, यह कहने की तो ज़रूरत नहीं। स्विटजरलैण्ड की अपनी छोटी-सी सेना का संगठन भी उल्लेखनीय है। देश के सभी वयस्कों को थोड़े दिन की अनिवार्य सैनिक सेवा देनी पड़ती है—पहली बार पैंतालीस दिन, उसके बाद हर आंतरे वर्ष सोलह दिन और फिर हर चौथे वर्ष नौ दिन के लिए। किन्तु वर्दी और हथियार बराबर लोगों के पास ही रहते हैं, और समय-समय पर उनका निरीक्षण हो जाता है। और सेना में सम्पूर्ण लोकतन्त्री व्यवहार होता है—छोटे-बड़े का भेद नहीं माना जाता है और बहुधा साधारण जीवन के स्वामी और सेवक सेना में एक साथ और बराबर होकर रहते हैं। ऐसा ही व्यवहार स्कूलों में होता है। शिक्षा अनिवार्य है और निरक्षर कोई नहीं है। पहाड़ों में कहीं-कहीं तो पुराने ढंग की गणतन्त्र प्रथाएँ अभी तक चली आती हैं, जैसे कहीं-कहीं पूरे समाज अथवा गण की सभा होती है जिसमें हर वयस्क को अनिवार्य रूप से आना पड़ता है और सभा के काम में भाग लेना पड़ता है।
स्विस लोग अपनी लोकतन्त्र प्रवृत्ति का, अपने स्वाधीनता-प्रेम और अपनी शान्ति-प्रियता का बड़ा गर्व करते हैं, और उचित ही करते हैं।
उन्होंने संसार को कोई महान् कवि या चित्रकार नहीं दिया, पर एक सभ्य और आधुनिक जीवन-परम्परा तो दी है जिसकी बुनियाद है ‘सत्य, दया और स्वतन्त्रता’—और कौन कहेगा कि मानव-संस्कृति के लिए इस देन का कम महत्त्व है?