पर्दों के बीच की झिरी से सूरज की किरणें वनिता के चेहरे पर ऐसे पड़ रही थीं जैसे किसी मंच पर प्रमुख किरदार के चेहरे पर स्पॉटलाइट डालकर उसके चेहरे के भावों को उभारा जाए। रूखे-बिखरे काले बालों में से कुछ जगह बना झाँकते हुए उज्जवल चेहरे पर मुंदी हुई दो बड़ी-बड़ी पलकें बीच-बीच में कुछ हिलती सी प्रतीत होतीं और उन गुलाबी अधरों पर एक स्मित तैर जाती।

“वनिता…वनिता… उठ आठ बज गए। कोई बताए भला इस लड़की का क्या होगा?”, यह नानी का स्वर था ।

“अब उठ, सौ बार कहा है कि इस उम्र में मुझसे अब इतना नहीं होता। इतनी बड़ी हो गई लेकिन मजाल है कि मदद कर दे…”, नानी का बड़बड़ाना जारी था।

इतने में वनिता की मामी सुलक्षणा कमरे में आयी। उन्होंने खिड़की पर फैले पर्दों को हटाकर एक किनारे किया और वनिता की चादर खींची। उन्होंने उसे भी खींचकर बिस्तर से नीचे लटका दिया। वनिता गिरते-गिरते बची। अचकचाकर उठ खड़ी हुई।

“जा चाय चढ़ा… मैं स्कूल जा रही हूँ। बच्चों का टिफ़िन अच्छे से पैक करियो। कल पराँठे बहुत मोटे थे… समझी!”, सुलक्षणा की ख़ासियत है कितना भी कड़वा बोले, वह आवाज़ कभी ऊँची नहीं करती, लेकिन वनिता जानती है कि उनके बोलने से उनका ना बोलना सदा उसके लिए अधिक घातक सिद्ध हुआ है।

“तुझसे ही सम्भलती है… मेरी तो सुनती ही नहीं”, कहती हुई नानी वनिता के उठने पर ख़ाली हुए बिस्तर पर बैठ अपने पैर दबाने लगी।

दो कमरों के इस घर में यह कमरा दिन में मेहमानों के लिए और रात में बच्चों, नानी और वनिता के हिस्से आता था। यूँ वनिता के हिस्से तो बस एक जंग लगा सन्दूक़ था जिसमें उसके चार जोड़ी कपड़े और ज़रूरत भर का सामान रहता। बाक़ी घर की हर चीज़… हर जगह से वह यूँ सकुचाकर निकलती, या इस्तेमाल करती कि कभी ग़लती से भी वह अपने मेहनताने से कुछ ज़्यादा न वसूल ले। कभी गहरी साँस लेने पर भी वह डर जाती। लगता कि अब सुलक्षणा मामी बोलेंगी कि वनिता तू जानती है ना… कि बिन माँ-बाप की लड़कियों का क्या हाल होता है! वह संगीता… अख़बार में फ़ोटो आयी थी, तेरे गाँव की ही थी ना! तुझ पर तरस खा तेरे माँ-बाप के मरने के बाद सिर्फ़ इसलिए ले आयी कि लड़की ज़ात है। कुछ ऊँच-नीच हो गई तो नाम तो अपने ख़ानदान का ही डूबेगा ना। लेकिन यह मतलब तो नहीं कि तू मेरे बच्चों के हिस्से की ऑक्सीजन भी खींच डाले!

वनिता ने बाल बांधे, कुल्ला किया और सीधे रसोई का रुख़ किया। बच्चों के टिफ़िन तैयार कर उनके बैग में रखे, दादी के लिए भी चाय-नाश्ता तैयार कर उन्हें कमरे में पकड़ा आयी। बच्चों को बस स्टॉप पर छोड़कर आने की ज़िम्मेदारी भी वनिता की ही है। बच्चों को छोड़ने आए अन्य लोगों की तरह बच्चों के बस में चढ़ने पर वनिता का हाथ भी ‘बाय’ करने अपने आप ही उठ जाता है.. पर, दोनों बच्चे इसे अपनी तौहीन समझ मुँह फेर लेते हैं।

‘हर दिन अपनी बेइज़्ज़ती कराना ज़रूरी है क्या?’

यह आभास की आवाज़ थी। वनिता का दिल हुआ दौड़कर उसके गले लग जाए और जी भरकर रो ले। उसको कहे कि तुम जहाँ ले चलो, मैं वहाँ चलने को तैयार हूँ। जैसा रखोगे वैसा रह लूँगी। कम से कम हर पल मिलने वाली इस बेइज़्ज़ती से तो मुक्ति दिला दो। लेकिन, वह बस कातर दृष्टि से एकबारगी उसकी ओर देखती है और सधे हुए क़दमों से वापस घर लौटने लगती है।

आभास उसके साथ-साथ चल रहा है, उसके चेहरे से लगता है कि वनिता से अधिक वह आहत है। पर अब यह रोज़ का नियम है। आभास कुछ नहीं कहता… बस चलता रहता है। उससे कुछ दूरी बना, लेकिन साथ-साथ। घर पहुँचकर वनिता ने एक बार पलटकर आभास को देखा। उसने आँखों से ही उसे आश्वस्त किया। वनिता जानती है कि वह रसोई की खिड़की पर ज़रूर मिलेगा। बाहर के कमरे में ही नानी बैठी टीवी देख रही हैं… कोई धार्मिक प्रवचन!

“नानी क्या बनाना है?”, वनिता ने पूछा।

नानी ने मुँह पर अँगुली रख चुप रहने का इशारा किया और टीवी के नीचे स्टूल पर रखी तेल की शीशी से पैरों की मालिश करने के लिए भी! वनिता का मन रसोई में पड़ा है। नानी के घुटने मलते-मलते सोच रही है कि क्या आभास अभी भी रुका होगा? अचानक उसे लगा जैसे रसोई की ओर खुलने वाले दरवाज़े की ओर से झाँककर आभास उसकी बेचैनी पर हँस रहा हो। वह डर गई। कहीं नानी ने देख लिया तो! वह उठ खड़ी हुई।

“नानी…कपड़े धो लूँ क्या पहले? ठण्ड के दिन हैं, सूख नहीं पाते फिर…।”, कहा वनिता ने।

“हाँ-हाँ, तू जा यहाँ से”, नानी उसे कुछ धकेलती-सी बोली।

सुलक्षणा मामी बिल्कुल सही कहती है कि बिन माँ-बाप की लड़की की ज़िन्दगी वनिता से अधिक भला कौन समझता है।

“बाहर आँगन में धोइयो कपड़े… नहीं तो नल की आवाज़ में टीवी और नहीं सुनता।”, उन्होंने फ़रमान भी सुना दिया था।

“ठीक है नानी।”, कह वनिता ने सब कपड़े और साबुन-बाल्टी बाहर ले जाने के लिए उठा लिए। यूँ भी तीन गुणा तीन फीट के छोटे से बाथरूम में कपड़े धोने की अपेक्षा यहाँ खुले आँगन में कपड़े धोना उसे अधिक भाता था लेकिन सुलक्षणा मामी को इस पर सख़्त ऐतराज़ था।

वनिता ने कपड़े धोने शुरू किए। चार बड़े और दो बच्चों के इस परिवार में ना जाने कहाँ से रोज़ एक कपड़ों का पहाड़ तैयार हो जाता था। चार बड़े और दो बच्चे… वह ख़ुद ही हँस पड़ी! माँ-बाप की सड़क हादसे में मृत्यु के साथ ही वह दस साल बड़ी होकर वयस्कों में शामिल जो हो गई थी। जहाँ माँ ने कभी उससे पानी का एक गिलास नहीं भरवाया था, वहीं इस घर में आते ही पहले ही दिन उसे हैण्डपम्प की लाइन में लगा दिया गया। वह तो शुक्र हो सरकार का कि इस साल हर घर में पानी की पाइप लाइन बिछा दी गई है, और उसकी ज़िन्दगी थोड़ी तो आसान हो गई थी।

“ले मेरी यह साड़ी भी धो दे, ज़्यादा सा नीला साबुन लगा दियो…”, अचानक आयी नानी की आवाज़ से वह चौंकी, नल बन्द कर खड़ी हुई साड़ी पकड़ने के लिए।

“अरे, जल्दी कर… शुरू हो गया प्रवचन।”, नानी एक भी लाइन नहीं छोड़ना चाहती! क्या पता उसी लाइन में महाराज स्वर्ग की राह बता दें।

हड़बड़ी में वनिता का पैर गीले साबुन पर पड़ गया… और फिसलकर गिर गई वह! कपड़े धोने के लिए घोला गया सर्फ़ का पानी भी गिरा और लोहे की बाल्टी का हैण्डल उसके हाथ में आ लगा। इस घटनाक्रम में उसका सर नल से जा टकराया।

“हे भगवान! एक काम नहीं होता इससे… अब सुलक्षणा अलग चिल्लाएगी इतनी बर्बादी देख! मर यहीं …मैं क्या-क्या करूँ…!” साड़ी वहीं फेंक नानी वापस टीवी के सामने जा बैठी!

वनिता की आँखों के सामने एकबारगी पूरा ब्रह्माण्ड घूम गया। ऐसा लगा कि जैसे पूरे शरीर का ख़ून उसके मुँह में भर गया हो। पीड़ा के इन आँसुओं को रोकने की क्षमता सत्रह साल की इस निर्बल लड़की में नहीं थी। आभास जो अभी तक दूर खड़ा सब देख रहा था, अब बिलकुल नज़दीक चला आया। वनिता को उठाकर पटरे पर बिठाया… नल खोल मग में पानी भर उसे कुल्ला करने के लिए कहा!

“आभास…!”, वनिता ने कहा और न चाहते हुए भी उसके आँसू बह निकले। होठों को भीच उसने सिसकने की आवाज़ तो रोक ली थी, दादी ने सुन लिया तो?

“मैं मर क्यों नहीं जाती?”, दोनों हाथों से सिर पर निकल आए गुमट को दबाते हुए वह बुदबुदायी।

“फिर मेरा क्या होगा?”, आभास ने कोमलता से कहा और उसका हाथ हटा उसका सिर दबाने लगा। वनिता चाहती है कि वह उसे अपने आग़ोश में भर ले, वैसे ही जैसे बाबा भर लिया करते थे माँ के डाँटने पर!

“रहने दो यह कपड़े… जाओ, हाथ-मुँह धो सूखे कपड़े पहन लो। बीमार हो जाओगी!”, आभास के स्वर में अपनापन था।

“मामी ग़ुस्सा होंगी… धोने तो होंगे ही!”, वनिता ने बात रखी।

“हम्म… तब भी, बदल तो आओ ही।”, आभास ने उसे सहारा दे उठाया।

वनिता कपड़े बदलकर आयी। पोर-पोर दुख रहा था। तब तक आभास ने वाइपर से साबुन का पानी हटा दिया था और टब में कपड़े भिगाने के लिए डाल दिए थे। बहुत कहने पर भी वह गया नहीं। वनिता का दिल ज़ोरों से धड़कता रहा। किसी ने देख लिया तो?

“ध्यान रखना अपना।”, उसके हाथ पर उभर आयी सूजन को सहलाते हुए आभास ने कहा। वह दोनों उस वक़्त चुम्बक के विपरीत ध्रुवों के समान खिंचाव महसूस कर रहे थे।

“एक चाय तो बना ही लेना अपने लिए, और भी सब काम करोगी ही न।”, आभास ने कहा।

वनिता के आँसू बह चले। यही वह पल था जब समाज की सभी लक्ष्मण रेखाएँ मानो एक साथ मिट गईं। आभास की बाँहों में एक अबोध बालक-सी वह घण्टों सिसकती रही।

2

इस बार कड़ाके की ठण्ड है! इतनी ठण्ड कि नानी के प्रत्यक्ष रूप से दिखते सुघड़ शरीर के विपरीत उनकी कोमल हड्डियाँ इस ठण्ड को बर्दाश्त नहीं कर पाएँगी, ऐसा पहले ही लग गया था। कल रात में सोयीं तो सुबह उठीं ही नहीं। रात में कब उन्होंने प्राण त्याग दिए, कोई नहीं जानता, ना जानना ही चाहता है। केवल वनिता के शरीर में सिहरन-सी दौड़ जाती है यह सोचकर कि रात भर वह एक मृत देह के साथ बग़ल की चारपाई पर सो रही थी। भूत-प्रेत के कितने हिस्से उसने गाँव में सुने हैं। शहर में भी तो लोग बातें किया ही करते हैं। कहीं नानी का भूत उसके अन्दर प्रवेश कर गया तो? …लेकिन वह तो किसी से अपना डर साझा भी नहीं कर सकती! अभी दूर-दराज़ के रिश्तेदारों से लेकर आसपास के पड़ोसी… जाने कितने लोग सुबह से आ चुके हैं! क्या उसके मरने पर भी इतने ही लोग आएँगे? वनिता ने सोचा।

…काश वह भी देख पाती… जान पाती कि उसके ना रहने की ख़बर ज़िन्दगी की भाग-दौड़ में किसी को दो पल के लिए भी रुकने को… सोचने को… आँखें भिगोने को मजबूर करेंगी क्या?

“अब चाय दोगी या बाहर ही खड़ी सोचती रहोगी?”, सुलक्षणा मामी ने आकर टोका तो वह चाय की ट्रे उठा मामी के साथ बाहर आ, मेहमानों को चाय देने लगी। सुलक्षणा मामी अब नानी की फ़ोटो के सामने उदास मुद्रा में बैठ गई।

वनिता हैरान थी यह महसूस करके कि नानी उसके जीवन का भी एक अभिन्न अंग बन चुकी थी। वह भी अपनी पूरी उपेक्षा और बेइज़्ज़ती के बावजूद! उनके पैर दबाते हुए… तेल मलते हुए… कहीं कोई मानवीय स्पर्श तो महसूस कर पाती थी वह! उसके कष्टों पर आँसू ना भी आएँ लेकिन अपने किसी पसन्दीदा कार्यक्रम के प्रिय कलाकार की मौत पर अपना मन वनिता से बात कर हल्का कर लेती थी। मामी-मामा और बच्चों के स्कूल और ऑफ़िस चले जाने पर तो यह ख़ाली घर काटता है। ख़ाली है अभी… या क्या मालूम नानी का भूत यहाँ घूमता रहता हो। उस चारपाई पर भी बैठते-उठते डर लगता है। नानी कितना बड़ा संरक्षण थी यह रात की घटना ने और पुख़्ता कर दिया। रात के खाने के बाद सुलक्षणा मामी ने अध्यादेश जारी कर दिया कि वनिता अब बच्चों के कमरे में नहीं सो सकती, उसे बाहर सीढ़ियों के नीचे बनी जगह में बिस्तर लगाना होगा।

“तो क्या हुआ सुलक्षणा… भला इतनी ठण्ड में? और फिर बाहर कैसे?”, मामा ने शायद पहली बार मामी के किसी निर्णय में हस्तक्षेप किया।

“आपको तो ऊँच-नीच की परवाह नहीं है लेकिन मुझे तो हर बात सोचनी है… दोनों लड़कों के साथ इसे नहीं सुला सकती।”, उसी सख़्ती से बोली मामी।

“बच्चे हैं वह दस और बारह साल के!”, मामा ने प्रतिवाद किया।

“देखिए, जो भी हो, आप के ख़ानदान के लिए मैं अपने बच्चों को नहीं बिगाड़ सकती। माँ थी तो और बात थी। अब तो यह वहाँ नहीं रह सकती।”, वह खड़े होकर खाने के बर्तन समेटने लगी जो इस बात का संकेत था कि अब इस विषय पर और बात आवश्यक नहीं।

रात के खाने के बर्तन मांजकर जब वनिता रसोई से बाहर निकली तो उसकी चारपाई बाहर पहुँच चुकी थी। जनवरी की बर्फ़ीली रातों की हवा को लोहे का जंगला रोकने में नाकामयाब था। वनिता ने लोहे के जंगले में लटकते बड़े से ताले को देखा और अपने पीछे बन्द हो चुके घर के मुख्य दरवाज़े को। दो बन्द दरवाज़ों में क़ैद हो उसकी क़िस्मत जैसे! कभी यह ताले खुलेंगे क्या?

वनिता ने रज़ाई को अपने चारों ओर लपेट लिया था। तब भी लगता था जैसे पहाड़ों की पूरी बर्फ़ उसकी रज़ाई के ऊपर ही पिघल रही हो। अचानक, उसे लगा कि लोहे के जंगले में से एक हाथ उसकी ओर बढ़ रहा है। डर के मारे वनिता की घिग्घी बंध गई। वह अचकचाकर उठ बैठी। आभास ने हाथ से चुप रहने का इशारा किया।

“तुम! इतनी रात को?”, वह चौंकी।

ख़ुश भी हुई आभास को सामने पा! डर कुछ जाता रहा।

“मैं हूँ यहीं.. तुम सो जाओ आराम से।”

“इतनी ठण्ड में? नहीं, तुम जाओ!”

“कोई परेशानी नहीं, तुम सो जाओ।”, आभास ने जंगले में से उसकी सर्द हथेली अपनी गर्म हथेलियों में भरते हुए कहा।

वह वहीं जंगले से सटा उसका हाथ थामे बैठा रहा। हथेलियों की गर्मी पूरे शरीर में फैल ऊष्मा देती रही उसे। सुबह सुलक्षणा मामी ने उसे हमेशा की तरह खींचकर उठाया तो उसने डरकर बाहर देखा… कहीं मामी ने देख तो नहीं लिया? उसका ख़ून जम गया।

“चाय चढ़ा… लेट हो रहा है।” मामी ने अपने उसी धीमे और शुष्क स्वर में कहा।

वह चोर नज़रों से मामी का चेहरा पढ़ने की कोशिश करती रही लेकिन मामी रोज़ की तरह ही ऑफ़िस चली गई।

आज शाम से वनिता का सिर भारी था। आँखें जल रही थीं। तेज़ बुख़ार था। वह जैसे-तैसे हिम्मत जुटा चपाती सेक रही थी। यूँ भी कोई फ़ायदा नहीं था किसी से कुछ कहने का। खाने के बाद मामी ने एक गोली उसके हाथ में रखते हुए कहा, “खा ले, सुबह तक उतर जाएगा बुख़ार।”, और दरवाज़ा बन्द कर लिया।

बिस्तर पर लेट वनिता को याद आया कि कितनी ही बार यूँ बुख़ार चढ़ने पर माँ उसे अपनी गोदी में लिटा सिर दबाया करती थी। बाबा तलवे सहलाते थे। मधुर स्मृतियों से उसके आँसुओं की धार बह चली। उन्हीं अश्रुपूरित आँखों से उसने आभास को जंगले पर लगा ताला खोल अन्दर आते देखा, उसकी अँगुलियों का स्पर्श अपने गालों पर महसूस किया। आभास उसका सिर अपनी गोदी में रख दबाने लगा और रात के किसी पहर वह आभास के आग़ोश में वैसे ही समा सो गई जैसे माँ उसे ख़ुद से सटा लिया करती थी… कभी नींद में डर जाने पर। सुबह उठी तो आभास और बुख़ार दोनों जा चुके थे।

3

अचानक आए अवांछित अनजान मेहमानों ने घर की ऑक्सीजन में कुछ और कमी ला एक विकट संकट उत्पन्न कर दिया था।

“तीन साल से बेटी जैसा रखे हैं हम लोग… तब आप लोग कहाँ थे?”, सुलक्षणा मामी ने अपने उसी शान्त स्वर में कहा।

“आए हाय, तो क्या एहसान किया जी आपने, क्या हम नहीं समझते… क्यों रखा? मुफ़्त की नौकरानी मिल गई आपको तो! उसका बचपन तो छीन ही लिया, अब शादी ना करके क्या उसकी जवानी भी बर्बाद करोगी जी!”

आने वाली महिला सुलक्षणा मामी के विपरीत अपने स्वर को ऊँचा रख अपनी बात सही साबित करने के सिद्धान्त में विश्वास रखती थी।

“शादी को कहाँ मना कर रहे हैं… लेकिन हमारी भी तो राय लेतीं आप। कोई सलाह मशवरा नहीं। सीधे तय कर दिया।”, मामी ने स्थिति सम्भालनी चाही।

“लो… और सुन लो! अब ससुराल वाले मायके वालों से पूछकर फ़ैसले करें और मायका भी जाने कौन से जन्म का! वनिता की नानी तो उसकी माँ की शादी से भी पहले स्वर्ग सिधार चुकी थीं। सुशील बहन जी का कोई भाई था नहीं। उनके कौन से चचेरे भाई या ममेरे भाई हो आप… हम तो यह भी नहीं जानते! आप सामान बांधें। लड़की भेजें… नहीं तो हमें और भी तरीक़े आते हैं…”, लगता था कि वह ठान कर आयीं थी कि वनिता को साथ लेकर ही जाएँगी।

“शादी के लिए उसकी उम्र भी नहीं अभी।”, पूरे वार्तालाप में पहली बार राकेश मामा जी का स्वर सुनायी दिया ।

“आपकी गृहस्थी तो पूरी सम्भाले है।”, महिला के साथ आए पुरुष ने नज़रें टेढ़ी करके कहा।

बाहर दरवाज़े पर खड़ी स्कार्पियो में बैठे कुछ गुण्डेनुमा आदमी बार-बार अन्दर झाँक रहे थे। शायद इशारा चाहते थे अपने मालिक का।

“जैसा आप उचित समझें।”, मामा ने हाथ जोड़ दिए।

“सुलक्षणा… भेज दो।”, वह निर्णय सुनाते हुए उठ खड़े हुए।

सुलक्षणा मामी ख़ून का घूँट पी अन्दर आ गईं। वनिता की तो जैसे बुद्धि ने काम ही करना बन्द कर दिया था। वह काँपते हाथों से आलू छील रही थी। सुलक्षणा मामी ने हाथ से छीन लिया चाकू। और चाकू ने आलू के छिलके की परत की जगह वनिता के हाथ की खाल की एक परत उतार दी।

“कहती है… हमने बचपन छीन लिया। बचपन भले ही छीना हो, इज़्ज़त तो बची रही! और तू भी सुन ले… इन लोगों के साथ दामन काला कर यहाँ वापस लौटने की तो कभी भूलकर भी नहीं सोचना।”, उन्होंने रुककर साँस ली पर अभी आवेश शान्त नहीं हुआ था। वह आगे बोली, “तब तो अर्थी को कंधा देने को भी आठ आदमी मायके के ही खड़े हुए। आज ससुराल वालों का सब हक़ हो गया। दफ़ा हो जा यहाँ से…”, सुलक्षणा मामी ने धीमी आवाज में एक-एक शब्द को चबा दाँत पीसते हुए कहा।

अपना जंग लगा छोटा-सा सन्दूक़ ले जब वनिता बाहर निकली तो लगा जैसे चलने को पैरों में जान ही नहीं हो। किसी ऐसे स्थान पर जहाँ सुबह से रात तक सिर्फ़ उपेक्षा मिली हो उसे छोड़ना भी क्या प्राण छोड़ने जैसा होता है? उसने सोचा। आभास का दूर-दूर तक कहीं कुछ अता-पता नहीं था।

एक अत्यधिक थका देने वाले लम्बे सफ़र के बाद वह जिस घर में पहुँची, वह मामी के घर से निश्चित ही कुछ बड़ा था। रास्ते भर हर गाँव से गुज़रने पर उसे लगता कि यह मेरा ही गाँव तो नहीं! मन करता कि गाड़ी से कूद इन पगडण्डियों पर दौड़ जाए तो यह पगडण्डियाँ सीधे घर के आँगन में खुलेंगी! लेकिन साथ चलती स्कार्पियो में छह फीट से भी लम्बे और बड़ी मूँछों वाले अजीबोग़रीब शक्ल के लोगों के चलते वह इस चौदह घण्टे के सफ़र में एक बार के लिए भी अपनी जगह से हिली तक नहीं थी।

यहाँ सालों बाद पहली बार किसी ने उसे खाना परोसा। वनिता को लगा शायद यही समय है जब उसकी क़िस्मत पर लगे ताले खुलने वाले हैं। अगले कुछ दिन नये-नये चेहरे आकर उसका चेहरा देखते। अचानक प्रकट हुई इन नयी बुआ जी ने सहृदयता दिखाते हुए कुछ नये कपड़े भी दिला दिए थे। वनीता भी शीशे के आगे से निकलते हुए ख़ुद को निहारने का लोभ संवरण नहीं कर पाती थी। अपने आस-पास हो रही बातों से वनिता को एहसास हुआ कि शायद घर में हो रही हलचल उसके विवाह को लेकर ही है। विवाह शब्द ही ऐसा है कि इस उम्र में किसी भी लड़की की धड़कन बढ़ा दे और वह विवाह जिसमें होने वाले साथी के बारे में कोई जानकारी ही नहीं हो! फिर, यह नया माहौल सुलक्षणा मामी के घर से काफ़ी अधिक मुखर और वाचाल था लेकिन एक रहस्य-सा हवा में तैरता रहता जिसके बारे में वह कभी किसी से कुछ पूछने की हिम्मत नहीं कर पाती।

फिर एक दिन मुखरता कोलाहल में बदल गई और एक लाल रंग की साड़ी पहनाकर, उसका चेहरा तरह-तरह की बिंदियों से सजा उसे एक अजनबी आदमी के पास बिठा दिया गया। पण्डित जी द्वारा जब उसे अपना हाथ इस अजनबी के हाथों में रखने के लिए कहा गया तो जाने क्यों उसे वह स्पर्श जाना पहचाना लगा।

“आभास!!”, सोचकर उसे सुकून मिला।

इससे पहले कि भोर की मूर्छा टूटती और रवि के प्रकाश में रात के काले सायों के वास्तविक चेहरे दिखायी देते, तारों की मद्धम छाँव में वनिता और भी अधिक अनजान लोगों के साथ एक नये गंतव्य के लिए रवाना हो चुकी थी।

पिछले एक हफ़्ते में जितना अधिक सुलक्षणा मामी का बिलासपुर का घर दूर छूटा जा रहा था, जाने क्यों उतनी ही अधिक उत्कण्ठा उसे वहाँ वापस जाने की हो रही थी।
यहाँ के लोगों की वेशभूषा, बोलचाल में एक अलग-सा गंवईपन और अभद्रता थी। वनिता संकोच से गड़ी जाती। घर में पदार्पण के साथ ही वनिता समझ गई थी कि यहाँ लोगों का जीवन सहज स्वाभाविक है, वह कोई मुखौटा नहीं लगाते …जितने स्वार्थी, धूर्त और निर्दयी हैं, पूरी निर्लज्जता के साथ उसे दिखाते हैं।

मुँह दिखाई की रस्म में हर बार घूँघट उठने पर रहस्यों से भी पर्दा उठता गया। तीसरे नम्बर की जेठानी ने घूँघट उठाते हुए कहा – “तो पचास हज़ार रुपये नकद देकर यह आफ़ताब आया है! मेरी लज्जो क्या बुरी थी इससे!”, कहकर उसने उपेक्षा से मुँह बनाया।

“हाँ, अपने एक पैर पर ऊपर नीचे भागकर गृहस्थी ज़रूर सम्भाल लेती तुम्हारी लज्जो।”, बड़ी जेठानी ने बिना कोई समय गँवाए कहा तो सभी स्त्रियाँ आँचल में मुँह दबा ही-ही कर हँस पड़ीं।

“तो दुहेजू को दो टाँगों वाली लड़की कौन देगा! यूँ ही घर की जमा पूँजी लुटाकर ख़रीदनी पड़ी ना!”, कहते हुए वह तुनकती हुई चली गई।

तो उसका मूल्य पचास हज़ार रूपये है… वनिता का दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा। वह तो आज तक ख़ुद को एक अवांछित बोझ ही समझ रही थी। क्या सच ही वह किसी के लिए इतना मायने रखती है कि मूल्य चुकाकर वह उसका वरण करे। ज्यूँ भूखे को चाँद भी रोटी दिखता है… वर्षों से सम्मान के दो बोलों को तरसती वनिता को यह ख़याल मात्र ही भावविभोर कर रहा था।

“नयी दुल्हनिया है तो चाँद की ही तरह! पहली बिन बच्चा जने मर गई, यह ज़रूर मनोज को वारिस देगी।”, बड़बोली नाइन ने कुछ अधिक नेग मिलने की उम्मीद में तारीफ़ों की लाइन लगा दी।

दिन भर यंत्रवत पूजा की रीतियाँ निपटाते वनिता का दिल अपने उस नये स्वामी से मिलने को प्रतीक्षारत रहा जिसने उसे कुछ मूल्यवान समझा था।

आख़िर ऐसा क्या है मुझ में, उसने पूछा भी स्वयं से!

“मेरी नज़रों से देखो”, जवाब आया… “सब देकर भी तुम्हें पाना होता तब भी तुम्हें ही चुनता”, वह बोला।

“सच?”, वनिता ने आँखों में झाँका।

“अभी भी कोई शक है क्या?”, पास खड़ी ननद ने ठिठोली की!

वनिता ने घूँघट से झाँका तो आसपास औरतों का हुजूम था। इंतज़ार की घड़ियाँ देर रात ख़त्म हुईं… दरवाज़ा खुला और एक छाया उसकी ओर बढ़ी।

“आभास!”, उसने दबे स्वर में पुकारा।

रात का गहन अन्धकार वनिता के समूचे वजूद को अपनी गिरफ़्त में जकड़ता गया।

सुबह सूर्य की किरणों ने धरती पर बिखरी ओस की चादर में कुछ सुनहरे रंग भरे। पंछियों के कलरव ने रात की नीरवता भंग की और वनिता ने अपने शरीर पर पड़े नीले धब्बों को सहलाते हुए सोचा कि अवश्य ही अन्तहीन सृष्टि के कुछ हिस्से सूरज की किरणों से अछूते सदा ही अन्धकार में रहने को उस जैसे ही शापित होते होंगे।

4

सुलक्षणा मामी के शब्द दिन-रात उसके कानों में गूँजते। सिर्फ़ बचपन ही नहीं सच में इन लोगों ने उसका समूचा वजूद ही हर लिया था। वह दिन-रात यंत्रवत काम करती, सास और जेठानियों के ताने-उलाहने सुनती और रात भर अपने इस स्वामी की इच्छाओं के आगे बिना किसी प्रतिरोध सर्वस्व हारती जाती। वनिता द्वारा हार स्वीकार लेने पर भी वह क्यों जीत के लिए इतनी जद्दोजहद करता है, वनिता समझने में ख़ुद को असमर्थ पाती। यूँ भी कुछ समझने महसूस करने को ना उसके पास दिल बचा था ना दिमाग़।

चाँद निकले दो घण्टे बीत चुके थे। मनोज का कहीं कुछ पता नहीं था। उसकी सास और भाभियाँ व्रत खोलकर सोने की तैयारी में थी। वनिता ने एक बार फिर छत पर जा चाँद को देखा।

“व्रत में कोई कमी रह गई क्या?”, उसने पूछा ।

उसने दिया जलाया, अकेले ही चाँद को अर्ध्य दिया, परिक्रमा की, हाथ जोड़ पति की लम्बी आयु की प्रार्थना की!

आँखें खुली तो सामने आभास खड़ा था।

“तुम?”

“सच्चे मन से जो पूजा की तुमने!”, आभास के कोमल शब्द आत्मा को भी आह्लादित कर गए।

आभास ने थाली में से बर्फ़ी उठा वनिता को खिलायी, लोटे का जल पिलाया और उसका हाथ पकड़ नीचे ले आया। वनिता मंत्रमुग्ध सी देखती रही। वह भूल गई कि यह ससुराल है। वह भूल गई कि आभास से उसका रिश्ता तन का नहीं मन का है। उसने झुककर आभास के पैर छू लिए। आभास उसे बाँहों में भर रसोई में ले आया। वनिता ने उत्साह से कड़ाही में तेल गर्म कर पूरियाँ उतारीं… थाली लगायी और आभास के सामने रखी।

“तुम भी आओ।”, आभास ने कहा।

“नहीं, मैं तुम्हें देखूँगी… अभी तुम खाओ”, वह आभास के सामने बैठ गई।

आभास ने कौर तोड़ा, उसके मुँह में दिया, और इसी समय वनिता की सास पानी लेने कमरे में दाख़िल हुई। उन्होंने हाथ मारकर खाने की थाली गिरा दी।

“कुलक्षणी!”, वह चिल्लायी थी।

अब तक मनोज घर लौट आया था। उसने जो देखा उसका ख़ून खौल गया। कुछ शराब का नशा, कुछ माँ का बढ़ावा। उसने कुर्सी में लात मारी। फिर दो-तीन लातें ज़मीन पर औंधी पड़ी वनिता में भी।

“सब्र ही नहीं तो ढकोसला क्यों करती है व्रत का….”

आगे की गालियाँ सुनने से पहले वनिता मूर्छा में जा चुकी थी।

आधी रात बीती… उसकी मूर्छा टूटी। घुप अन्धेरा। दर्द की लहर दुगने वेग से पूरे शरीर में दौड़ गई। सिर छुआ तो महसूस हुआ कि निकला हुआ ख़ून सूखकर थक्का बन गया था।

आभास क्या उसे भी?… उसने याद करने की कोशिश की। लेकिन कुछ याद आया तो बस मनोज की बलशाली लातें। वह पुनः लेट गई लेकिन आती हुई उबकाई से उठना पड़ा। मुँह धोते हुए उसे लगा जैसे वह खड़ी है और बाक़ी सब कुछ घूम रहा है। बाथरूम के रोशनदान से बाहर सड़क के लैम्प की एक पीली रेखा अन्दर आ रही थी। वनिता को लगा शायद यह एक दैवीय संकेत है। उसने साड़ी के पल्ले से मुँह पोंछा और बिना कोई लाइट जलाए, दरवाज़ा खोल बाहर आ गई। सड़क के कुत्ते एक बारगी चौंके… लेकिन वनिता को देख पुनः निश्चिन्त हो सो गए। कई रोशनी और आवाज़ों के दैवीय योग बने और अब वनिता रेलवे लाइन के पास खड़ी थी। दूर से आती हुई ट्रेन की रोशनी दिखायी दे रही थी। वनिता ने एक बारगी सुलक्षणा मामी के बारे में सोचा… बिलासपुर …बिलासपुर चल वनिता, उसने ख़ुद से कहा, पर तभी बिलासपुर से सुलक्षणा मामी ने अपनी अभी तक सहेजी हुई पूरी ताक़त का इस्तेमाल कर चिल्लाया… यहाँ आने की तो सोचना भी मत!

वनिता ने दूसरा क़दम आगे बढ़ाया और पटरी पर लेट गई, “वनिता… नहीं ….”, तभी आभास वहाँ आया। वह पैर घसीटकर चल रहा था, चेहरा सूजा था…

“उठो”, उसने हाथ बढ़ाया!

“अब जान ही नहीं…”, वनिता ने कहा।

ट्रेन की इंजन की तेज़ रोशनी उन दोनों पर पड़ी। अगले ही पल आभास भी उसके साथ लेटा था… उसके बिल्कुल पास! वनिता ने अपनी पूरी ताक़त समेट उसकी ओर करवट ले अपना सर उसके कांधे पर टिका दिया। उन दोनों को क्षत-विक्षत कर ट्रेन गुज़र चुकी थी।

अगले दिन अख़बार में खबर छपी थी-

एक महिला ने ट्रेन के नीचे कटकर जान दी जिसे पढ़ देश के अलग-अलग कोनों में अलग-अलग समुदाय की रमणी, कामिनी, कांता, प्रज्ञा, कात्यायनी और प्रजाता जैसी अनेक स्त्रियों ने एक साथ सोचा कि सुखद स्वप्निल अनुभूतियों के आभास के भी मर जाने पर भला कोई स्त्री किसके सहारे ज़िन्दा रहे!

डॉ. निधि अग्रवाल
डॉ. निधि अग्रवाल पेशे से चिकित्सक हैं। लमही, दोआबा,मुक्तांचल, परिकथा,अभिनव इमरोज आदि साहित्यिक पत्रिकाओं व आकाशवाणी छतरपुर के आकाशवाणी केंद्र के कार्यक्रमों में उनकी कहानियां व कविताएँ , विगत दो वर्षों से निरन्तर प्रकाशित व प्रसारित हो रहीं हैं। प्रथम कहानी संग्रह 'फैंटम लिंब' (प्रकाशाधीन) जल्द ही पाठकों की प्रतिक्रिया हेतु उपलब्ध होगा।