मौसम विज्ञान कहता है शहर में आज धूप होगी। लड़की जानती है आज मन भरा हुआ है, और शहर भीग जाएगा। गूगल मैप बताता है दूरी दो जगहों के बीच की… वो जानती है कई बार किसी के पास बैठे उसने कितना दूर महसूस किया ख़ुद को…। सिगरेट के पैकेट पर लिखे ‘smoking is injurious to health’ को निहारते निहारते दो मार्लबोरो पी चुकी है। नींद उसकी आँखों के नीचे जमा हो रहने लगी है। उसके कहे शब्द ‘मैं तुमसे प्रेम करता हूँ’ को वो अपने अकेलेपन में दोहराती थी। ‘वो लौटेगा’ का भरोसा विंड चाइम्स की तरह उसके मन के दरवाज़े पर टँगा था और हवा के बहते ही सुंदर संगीत सा बजता था। इन दिनों वो रास्ते से गिरे, सूखे, ज़र्द हुए पत्ते इकठ्ठा करने लगी है, जिसपे सारे हरे पत्ते हँस रहे हैं। वो शहर की इस भीड़ में ख़ुद को उसी सूखी, बेजान, ज़र्द पड़े पत्ते सा पाती है। जब दो हाथ एक-दूसरे को बहुत दिनों तक पकड़े रहने के बाद अकेले होते हैं, तो एक हाथ को दूसरे हाथ के होने का एहसास दुगुने समय तक बना रहता है। वो इस भ्रम से तब बाहर आती है जब कोई नुकीली चीज़ चुभती है उसके हाथों में…

वो कम बोलने लगी है, देर तक चीज़ों को देखने लगी है। कल ही किसी बूढ़े के चेहरे को एकटक देखते हुए चेहरे की झुर्रियाँ गिन रही थी, और बीती रात पढ़ी उस कविता को याद करने की कोशिश कर रही थी जिसे पढ़कर वो अचानक रोने लगी थी।

वो किस को समझाए कि वो अकेला रहना चाहती है और किसी के साथ की कमी उसे खलती है। वो चुप्पी से सुनना चाहती है सबकुछ, और किसी से जब बात नहीं करती तो दम घुटता है उसका। वो जब कुछ पढ़ती है तो परेशान हो जाती है और ना पढ़े तो ऐसा लगता है मानो वो कुछ खो रही है। वो अब किसी पर भरोसा नहीं करती और वो किसी को गले लगाकर फूट-फूटकर रोना चाहती है।

कई मेट्रो गुज़र जाने के बाद उसे लगा कि वो नोएडा सिटी की ओर जाने वाली मेट्रो की तरफ़ खड़ी है, पर उसे द्वारका की ओर जाना है। वो गेट न. 6 से पालिका की ओर एग्जिट करने लगी। कनॉट प्लेस की सड़कों पर बेवजह चलते रहना उसे पसन्द है। थोड़ी देर के लिये यह सबकुछ भूलने की दवा की तरह काम करता है।

कई बार बेवजह की गयी चीज़ें हमें अच्छे-बुरे परिणाम के बोझ से मुक्त रखती हैं। हम कुछ समय के लिए हल्का महसूस करते हैं।

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पूरी रात अपनी कुर्सी पर बैठे-बैठे ताकता रहता हूँ, जुगनुओं की पीठ पर बैठे किसी शब्द को ढूँढ रहा, जिसने मिलने का वादा किया था। लिखने की इच्छा तीव्र हो और कोई शब्द हाथ ना बढ़ाए तो शब्द के अभाव में उभरी उस ख़ाली जगह में चिढ़ धीरे-धीरे अपनी जगह बनाने लगती है। लेखक के लिए एक शब्द, उफनती नदी में दिखता वो तिनका है जिसे पकड़कर वो नदी पार कर सकता है।

कल्पनाएँ खोती जा रही हैं, शब्द ठहर नहीं रहे, वक़्त बीत रहा है… मैं इस वक़्त ख़ुद को किसी वीराने में खड़ा निरीह-सा महसूस करता हूँ…

लिखना मेरे लिए किसी घाव से जमे ख़ून को धीरे-धीरे दबाकर किसी कोशिशों से निकालना नहीं है। लिखना मेरे लिए किसी शातिर हत्यारे की पतली छुरी का वो चीरा है जो चमड़ी पर लगे और उफ़्फ़ तक ना हुई हो और सारा ख़ून बहता ही जा रहा हो बिना रोक टोक के।

नवम्बर आ गया है, सोच रहा तुम्हें चिट्ठी ही लिख दूँ, पर जानती हो, मुलाक़ात के इतने वक़्त बाद भी तुम्हारा पता नहीं पूछ पाने का अफ़सोस इस ख़ूबसूरत महीने को बोझिल बनाएगा। मैं नवम्बर को दुःखों का महीना नहीं बनाना चाहता। क्या तुम लौट सकती हो ठण्ड की इस बारिश की तरह! शायद तुम्हारा लौटना, शब्दों का लौटना होगा मुझ तक…

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कहीं नहीं था मैं, ना सिरहाने, ना बिस्तर के नीचे, ना बालकनी में, ना छत पर, ना मेज़ पर… आखिर था कहाँ मैं? सब घर, अंदर-बाहर से बिखेर देने के बाद, पसीने से लथपथ थककर जब बैठ गया तो याद आया एक जगह बची रह गयी है ढूँढने में। मैंने दराज़ खोलकर देखा ही नहीं था, जहाँ होती है सिगरेट और माचिस की डिब्बी, कई बार सिगरेट के पैकेट से गिरकर, अधजली सिगरेट की बिखरी राख… आख़िरकार मैं वहीं था। छिपा था एक दराज़ में, तुड़े-मुड़े हुए काग़ज़ में उकड़ू सा लेटा हुआ। जैसे मैं किसी चीज़ से भाग रहा हूँ।

घर के कुछ कोने से लगाव होता है, जहाँ हम सबसे छुपाकर कुछ ना कुछ रखते हैं। नितांत निजी चीज़ें- कुछ खत, कुछ राज़, कुछ आँसू, कुछ अनकही ज़िन्दगी। उस जगह पर किसी और का आना जाना, उस जगह पर किसी का छूना पसन्द नहीं आता। कुछ ऐसा ही कोना मन का भी होता है। मुझे नहीं पता मैं अक्सर भीड़ से क्यों भागता हूँ, लेकिन मुझे मेरे भागने का एहसास है और मुझे पता है मैं भागकर पहुँचूँगा उसी अपने एकांत कोने में। ख़ुद को खोजना हो तो हमें ख़ुद को अपने उसी पसंदीदा एकांत में ढूँढना चाहिए। हम वहीं होते हैं जहाँ कोई ताक-झाँक ना कर रहा हो, जहाँ किसी की आवाजाही ना हो। जब दुनिया से चिढ़ कर भागते हैं, हम जाने अनजाने ख़ुद को वहीं छुपाना पसन्द करते हैं, या हम जब ख़ुद को भूल जाते हैं तो बहुत ढूँढने के बाद ख़ुद को वहीं पाते हैं… वो जगह जिसे किसी ने शब्द से सजाया हो, किसी ने संगीत से, या किसी ने चित्रों से। दुनिया का एकांत वहाँ बिछा होता है, हम वहीं सुस्ताते हुए तो कभी सबसे छुपे हुए मिलते हैं ख़ुद से…

…कभी-कभी मेरे सपने किसी मछली की तरह मेरी नींद से उछलकर बहार आ जाते हैं, और किनारे पर छटपटाते रहते हैं। ऐसे समय में मैं तुम्हें गले लगाना चाहता हूँ।

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…प्रेम जितना प्रगाढ़ होगा, उसके बीच घटित संवाद की आवाज़ उतनी ही धीमी होगी। एक समय आता है जब आवाज़ की ज़रूरत नहीं होती। कहने-सुनने के लिए मौन ही काफ़ी होता है…

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गौरव गुप्ता
हिन्दी युवा कवि. सम्पर्क- gaurow.du@gmail.com