बारिश की भारी बूँदों से
भयभीत झोपड़ी भीतर भागती है,
एक मात्र तिरपाल के छेदों को ढकना
उसकी आपातकालीन व्यवस्था है
महल झरोखों से मुख निकाल
आँखें मूँदकर
बूँद-बूँद चूसता है
यह उसका क्षणिक मौसमी-सुरापान है
एक माली है
जिसकी हथेलियों में
गिरते फलों की आवाज़ को थामने की प्रार्थनाएँ हैं
कुछ छिपे हुए छौने भी हैं, जिनकी
मिट्टी की उसी गीली आवाज़ की ओर बेतहाशा दौड़ है
अम्मा को डंगरों तक पहुँचने के लिए
आधी सूखी धोती को फिर से सिकुड़ते हुए लपेटना है,
बाबा को धान के फूटते मुलजों में भारी बोरियाँ दिखती हैं
नवयौवना की घमौरियों को पहली बरसात में नहाना है
वही पुरानी बारिश है, जो
हर बार नए तरीक़े से बरसती है
झोपड़ी की छत से टपकती धीमी-बूँदें
ईश्वर की भेजी चुम्बनों की गीली-स्मृतियाँ हैं।