कुछ मेरी कविताओं पर
कुछ तुम्हारी पर
जिन कविताओं में
शेष समर की विजय पताका
फहरा दी गई
दारुण साम्राज्यों ने
कवियों से लिखवाए अपने
ध्वजवंदन के छन्द
जिन कविताओं ने टेक दिए घुटने
कर्ता के प्रत्यक्ष
कर्म को प्रधान नहीं होने दिया
कुलीन पुस्तिकाओं में
ज़मींदारों के तलवे चाटती रहीं
रसूख़दारों के दरवाज़ों के
ऊपर की कील पर टंगी रहीं
जिन कविताओं में नहीं लिखा गया
व्यभिचार का आघात
अर्धरात्रि का रुदन
चौराहे पर पड़ा शव
बरगद से लटकता कृषक
तीसरे जून की क्षुधा
निर्वासित परित्यकताएँ
खण्डित वसन
और
तीन-चौथाई निराशा
जिन कविताओं में प्रकृति के
मंजुल छन्द लिखे गए
किन्तु नहीं लिखे गए
विलुप्त होते स्वर
सूखते प्रपर्ण वृक्ष
घोंसलों से गिराए गए अण्डज
पाशविकता की परिसीमाएँ
दावानल की ऊष्मा
जिन कविताओं में नहीं लिखा गया
क्रान्ति का उद्घोष
लोकहित के नेपथ्य में
रचा गया जिन्हें
अनैतिक स्वार्थ के लिए
श्लेषों को अतिशयोक्ति से ढका गया
उपमाओं को कृपणता की
पुष्पमाला पहनायी गई
और
रख दिया गया भाषण मंचों पर
जिन कविताओं पर आरोप नहीं लगे
कठघरे में खड़ा कर
निरपराध घोषित किया गया
बाक़ायदा उनके उलट कविताएँ
कुछ सन्दूक़ में पड़ी रहीं
कुछ बिस्तरों पर
कुछ शहर की अप्रतिष्ठित गलियों में
जिन कविताओं ने शोषण नहीं देखा
शहर की दूरबीन से गाँव देखे
काजल की कोठरी में नहीं गईं
कालिख के भय से
जिन कविताओं ने
मिट्टी के चूल्हों का धुआँ नहीं खाया
चिमनियों में जली नहीं
मिलों में कुटी नहीं
जिन कविताओं के दूध के दाँत नहीं गिरे
कच्ची सड़क पर दौड़ते घुटने नहीं छिले
पेड़ों से पककर गिरी नहीं
महुए की सुगन्ध नहीं पायी
कुम्हार के चाक पर रगड़ नहीं खायी
ढिबरी के प्रकाश में आँखें नहीं गड़ायीं
जुगनुओं के पीछे दौड़ी नहीं
जिन कविताओं में
प्रेम समर्पण नहीं देख पाया
निरन्तर किसी पिपासा में बैठा रहा
जिन कविताओं ने प्रेम के लिए
शब्दों को चुना
भाषाहीन सम्वेदनाओं को
प्रेम नहीं समझा
जिन कविताओं ने
प्रतीक्षा में
अपनी आँखें नहीं खोयीं
जो कविताएँ सुबह घर से निकलकर
शाम को वापस कभी नहीं लौटीं
उन तमाम कविताओं पर रिश्वत का आरोप है!