जाले तने हुए हैं घर में कोई नहीं
‘कोई नहीं’ इक-इक कोना चिल्लाता है
दीवारें उठकर कहती हैं ‘कोई नहीं’
‘कोई नहीं’ दरवाज़ा शोर मचाता है
कोई नहीं इस घर में, कोई नहीं लेकिन
कोई मुझे इस घर में रोज़ बुलाता है
रोज़ यहाँ मैं आता हूँ, हर रोज़ कोई
मेरे कान में चुपके-से कह जाता है—
‘कोई नहीं इस घर में कोई नहीं पगले
किससे मिलने रोज़ यहाँ तू आता है!’
मोहम्मद अल्वी की नज़्म 'मछली की बू'