ख़ुदा-वंद… मुझ में कहाँ हौसला है
कि मैं तुझसे नज़रें मिलाऊँ
तिरी शान में कुछ कहूँ
तुझे अपनी नज़रों से नीचे गिराऊँ

ख़ुदा-वंद… मुझ में कहाँ हौसला है
कि तू
रोज़-ए-अव्वल से पहले भी मौजूद था
आज भी है
हमेशा रहेगा
और मैं
मेरी हस्ती ही क्या है
आज हूँ
कल नहीं हूँ

ख़ुदा-वंद मुझ में कहाँ हौसला है
मगर आज इक बात कहनी है तुझ से
कि मैं आज हूँ
कल नहीं हूँ
ये सच है मगर
कोई ऐसा नहीं है
कि जो मेरे होने से इंकार कर दे
किसी में ये जुरअत नहीं है
मगर तू
बहुत लोग कहते हैं तुझको
कि तू वहम है
और कुछ भी नहीं है!

Book by Mohammad Alvi: