पुत्र बीमार हो या पति या फिर घर में कोई और। माँ का छोटा-सा पर्स खुले दिल से अपना मुँह खोलकर टेबल पर पसर जाता था। फिर उसके प्यार में तो जमा-जमा और केवल जमा होता जाता था, मगर नोटों की गिनती में घटाव का क्रम तब तक बढ़ते क्रम में चढ़ता जब तक उस पर्स में रोशनी रहती।

इस पर भी बुद्धू माँ चाहती थी कि यह पर्स जिन्न का दीपक बन जाए और कभी ख़ाली ही न हो।

मगर आज वही धनवान हृदया माँ बीमार थी, बहुत बीमार थी। अच्छे अस्पताल में इलाज भी चल रहा था। और यह ज़िम्मेदारी घर में ख़र्च करने में शिरोमणि बड़ा बेटा उठाए हुए था। माँ का एक छोटा बेटा भी था। वह वित्तीय आधार पर बहुत तो नहीं था, मगर हमारे माली जितना ग़रीब भी नहीं था, कि जिसने अपनी माँ के इलाज की ख़ातिर अपना शहर में लिया कमरा, गाँव में पैतृक ज़मीन का छोटा-सा टुकड़ा तक बेचकर माँ का इलाज करवाया था।

चलो ख़ैर! सारा ख़र्च किया घर में कहने-सुनने और मान जाने वाले बड़े लड़के ने।
मगर नज़दीकी रिश्तेदार (जाँच करने आए अधिकारी के समान) जिनकी सब ज्ञानेंद्रियाँ ठीक होते हुए भी, अपने पतले कानों के सुने पर अधिक भरोसा करते हैं, उनके बोलों के तंज़ फिर भी बड़े बेटे को ही सहने पड़े कि पैसा देना ही सर्वोच्च नहीं, हाथों से सेवा तो छोटा ही करता है।

चलो फिर यह भी बड़े बेटे द्वारा शिरोधार्य किया गया, और अपनी पत्नी संग— जो पहले ही नौकरी से छुट्टियाँ लेकर, बच्चे की पढ़ाई से ध्यान हटाकर दूर अस्पताल में बीमार माँ (सास) के पास रह रही थी।

इसी दौरान बैंक की कुछ औपचारिकताओं के समय पर न होने के कारण पैसों की कमी सम्बन्धी एक ज्वारभाटा आया जो समुद्र के तल की सच्चाई को किनारे पर उड़ेलकर रख गया।

माँ के परमेश्वर पति का कहना था कि कर सको तो ठीक नहीं तो वापस आ जाओ। छोटे लाडले का कथन था कि मैं भाई साहब आपका ए.टी.एम. कार्ड आकर ले जाता हूँ, बैंक की औपचारिकताओं को पूरा कर आपके खाते में से पैसे निकालकर भेज देता हूँ।

इस सुनामी ने घर की हमदर्दी के फ़र्श, प्यार की छत, अपनेपन की दीवारों को तहस-नहस कर दिया था। अब वो मकान था केवल मकान।

मगर माँ को रब मानकर बड़े बेटे ने सब न्योछावर करने की ठान ली। ख़ुशक़िस्मती से माँ घर भी आ गयी।

मगर भगवान को कुछ और ही मंज़ूर था। तभी थोड़े दिनों बाद फिर अस्पताल, पी.जी.आई. तक के चक्कर। और इस बार माँ चली गई, बहुत दूर, और गर्व से अन्तिम क्षण में ओड़ी लाल चुनरी के धागों में घुल सी गई।

दो-तीन दिनों के बाद सन्नाटे की छाया में, उस अन्धेरे मकान में कोलाहल-सा मच गया। चीख़ें गूँजने लगीं और व्याकुल, भयाक्रान्त छोटा बेटा कह रहा था— “माँ! मेरी छाती पर आकर बैठ गई, मुझसे चीख़ा भी नहीं जा रहा था। अब मेरी बारी है, शायद।” और पता नहीं क्या-क्या!

घर के बाक़ी सदस्य डर गए। मगर बड़ा बेटा और बहू सामान्य, सौम्य दिखायी दे रहे थे और मेरे मन में सवाल आया कि क्या कोई माँ भूत बन सकती है? और अपने ही बेटे की छाती पर भी सवारी कर सकती है, क्या?

नहीं, नहीं, बिलकुल नहीं! यह तो उस बेटे का भूत हो सकता है जो अब भूत बनकर उसकी आँखों की पुतलियों में नाच रहा था।