महत्त्वाकाँक्षाओ!
चली जाओ
जहाँ तुम्हारा मन करे
जहाँ तुम्हारे पाँव पड़ें
मैं तुम्हारे साथ नहीं रहना चाहती
न अभी
न आगे कभी
मैं नहीं बाँटना चाहती तुमसे
अपने सपने
अपने सरोकार
तुम मुझे समेट देती हो
एक ऐसे कक्ष में बदल देती हो
जहाँ रोशनी तो ख़ूब होती है
साज-सज्जा भी उत्तम
पर वहाँ खिड़कियाँ नहीं होतीं
दरवाज़े नहीं होते
वहाँ कोई आता-जाता नहीं
मैं सरल होना चाहती हूँ
जैसे कि बच्चे की पेंसिल
जैसे कि हवा में धूल!
निर्मला गर्ग की कविता 'फ़ेयर एण्ड लवली'