अमावस-सी अंधियारी रात्रियों में
टॉर्च की चुभती तीखी रोशनी में
पत्थर की चोट सहता
पत्थर जैसा ही आ गिरता है धरा पर
वो मूक स्तब्ध अमराई का आम,
बाट जोहता है उस नन्ही लड़की की
जिसका नाम ‘शकुंतला’ था
आएगी अभी मन्द बयार-सी बहती
और रोक लेगी पत्थर फेंकते हाथ
कोकिल कण्ठ से गुँजा देगी अमराई
छोड़ेगी नयनों के मीठे बाण
आँचल फैला देगी अपना
आम निछावर हो जा गिरेगा उसकी झोली में
अपने नन्हे हाथों से रोप देगी
एक चमेली उसकी जड़ में
जिसे उसके बाबा ने नाम दिया था ‘वन ज्योत्सना’
कितने प्रेम से उसके खुरदुरे कठोर वक्ष पर
नाज़ुक कोमल कदम बढ़ाती लिपटती गई थी वह
नीरवता से भरी अंधेरी रात्रियों में भी
अपने नन्हे श्वेत पुष्पों से चाँद-सा प्रकाश फैलाकर
खिलखिलाती रहती थी और आम के बौर
उसकी सुगन्ध से लहलहा उठते थे
ओ नन्ही लड़की! कब आओगी तुम!
सूख गई है वन ज्योत्सना तुम्हारे बग़ैर
मिठास खोने लगी है मेरी तुम्हारे बग़ैर
बाट जोहता खड़ा है अमराई का आम
मंदिर के अहाते में खड़ा
कामनाओं के ताप से दहकता कदम्ब
उसके चारों ओर की हर एक लौ में
धर दी गई है अनेकों असंतृप्त कामनाएँ
जो ऊँची लपट बन उसे निगल जाने को व्याकुल हैं
सूखने लगा है उसके हृदय का रस प्रवाह
दग्ध कदम्ब बाट जोहता है
माखन लिपटे अधरों के शीतल स्निग्ध स्पर्श की
गोपियों के नम चीरों की
उनकी झिड़कियों की शीतल बयार की
वह सुनना चाहता है मुरली की तान
बहाना चाहता है फिर से प्रेम-रस
वह आतुर है समर्पण के लिए
कटने घिसने छिलने को लालायित है
ओ मेरे कान्हा! कब आओगे!
बाट जोहता है
मंदिर के अहाते में खड़ा दग्ध कदम्ब
शहर की गहमागहमी और कोलाहल के मध्य
सड़क के एक ओर
विरक्त होने का आडम्बर रचता-सा
खड़ा है एक पीपल
जिसकी छाँव में है एक पान की गुमटी
सारा दिन मधुमक्खी से भिनभिनाते हैं जहाँ शोहदे
ज़ुबान पर उगी हैं खरपतवार-सी गालियाँ
होठों के मध्य से धुएँ के साथ उगलते हैं
रोष, कुढ़न, द्वेष, घृणा और तृष्णा
तने से टकराकर जब फोड़ देते हैं बीयर की बोतल
तो वह हृदय पर आघात कर जाती है पीपल के
बाट जोहता है वह उस राजकुमार की
जिसका साथ पाकर वह भी कहलाने लगा था बोधि
सोचता खड़ा है पीपल
काश! उसकी शरण मे आए इन किशोरों के भीतर
उतार सके वह थोड़ा-सा बुद्ध
हे बुद्ध! कब आओगे बाट जोहता है पीपल!
मन्नतों की डोरों से लिपटा उलझा बेबस-सा
खड़ा है वह मोटे तने वाला वृहद वट वृक्ष
गिन रहा है अपने इर्द गिर्द बुने जालों के घेरे
लाल डोर में बंधी है पति की लम्बी आयु की मन्नत
पीली में बेटे की उन्नति की मन्नत
काली में घर परिवार की रक्षा की मन्नत
डरने लगा है वह इन मन्नतों के घेरों से
कैसे झेल पाएगा इन मन्नतों का बोझ
बाट जोहता है उस किशोर ‘शंकर’ की
जो इन उलझी डोरों के बंधनों को काट
बन गया था ‘शंकराचार्य’
हे शंकर! कब आओगे!
बाट जोहता बंधा खड़ा है बेबस वट
पीढ़ी दर पीढ़ी अपने मूल स्वभाव में स्थित वृक्ष
बाट जोह रहे हैं
इंसान के अपने मूल स्वभाव में लौटने की।