बिखरा है रंग, रूप, गंध, रस मेरे आगे
मुझे मना है किंतु
गंध को अंग लगाना,
ख़ुशियों के चमकीले दामन को
आगे बढ़कर छू आना,
रस पीना, छक जाना,
लुब्ध भँवर-सा
सुषमा पर मँडराना
मुझे मना है!
दौड़े भी तो
अपराधी-सी दृष्टि झिझक
झुक जाती है
वैभव के आगे,
हाथ काँप उठता है
अंजलि में भरते ही मधुर चाँदनी,
सुख की सीमा पर अनजाने भी जा पहुँचूँ
तेरा मुख वर्जित करता मुझको बढ़ने से
जैसे कौंध लपक जाती बिजली की रेखा
दिख जाता सब असंपृक्त अविदित अनदेखा,
तेरा ध्यान मुझे झकझोर चला जाता है
बढ़ा हुआ मेरा पग सहम लौट आता है,
मुझे चाहिए नहीं अकेले गंध, राग, रस
मुझे चाहिए नहीं अकेले प्रीति, प्रेम, यश
तेरा झुका हुआ मस्तक
जब तक ऊपर को नहीं उठेगा
तेरे भटके चरणों को जब तक
पथ इंगित नहीं मिलेगा
तब तक मुझको वर्जित होंगे
सुख-वैभव के सारे साधन
तब तक मुझे लौटना होगा
बार-बार यों ही निर्धन बन।
कीर्ति चौधरी की कविता 'केवल एक बात'