नाक निगोड़ी भी क्‍या ही बुरी बला है। जिसके नहीं तो उसका फिर जीना ही क्‍या? कहावत है – ‘नकटा जिया बुरे हवाल’। है तो न जानिए क्‍या-क्‍या फसाद बरपा करती है, जरा-जरा सी बात में इसके कट जाने का डर लगा रहता है।

नित्‍य के भोजनाच्‍छान में बड़े संकुचित भाव से रहते हैं निहायत तंग दस्‍त, फटेहाल से जिंदगी पार कर रहे हैं, यहाँ लो कि पेट भर खाते तक नहीं, मोटा-झोटा पहन रूखा-सूखा खा-पी किसी तरह गुजारा करते हैं पर नाक की जगह राजा करन से उदार हो, जी खोल शाह खर्च बन बैठते हैं। पास न हुआ तो कर्ज अपने ऊपर लाद लेते हैं, वर्षों तक वरन जिंदगी भर ऋण से उद्धार नहीं पाते पर बिरादरी और पंच के बीच नाक नहीं कटने देते। गरदन कट जाए बला से पर नाक न कटने पाए। चोखे लोग आन वाले नाक पर रख देते है पर हेठी नहीं सहते। भगवान ऐसों के नाक की लाज रख भी देता है। भटक कर इधर उधर न मुड़ें, बराबर नाक के सौहें चले जाएँ, दूर से दूर मंजिल को तय कर ठिकाने पर अंत को पहुँचेंगे ही। तब हमारे और आप में केवल नाक मुँह का बल रहा इसलिए कि उसी अपने जीवन की मंजिल तक आप भी अंत को पहुँचे सही, पर जिद्द में आप किसी बुजुर्ग का कहना न मान अपने मन की कर बहुत भटकने के उपरांत। हम अपनी मंतिक और तकरीर के दखल को बालाय ताक कर सरल सीधे भाव से किसी आप्‍त महानुभाव को अपने लिए रहनुमा करनेवाला मान विश्‍वास की लैन डोरी पर सीधे चले गए.. कोई कठिनाई रास्‍ता में हमें न झेलना पड़ी।

बड़ा कुनबा है, पोते और नातियों की गिनती दरजन और कोड़ियों में की जाती है। बुढ़ऊ जो भागवानी का तगमा बाँधे हुए हैं, गृहस्‍थी के इंतजाम और बहू-बेटियों की देखभाल में जिंदगी का ओर होता जाता है। चादर के चार खूँट हैं, इत्तिफाक से एक कोना मैला हो गया, जात बिरादरी के लोग ने छोड़ दिया, हुक्‍का पानी पंच की भाजीबंद हो गई। बुढ़ऊ बड़े चपकुलिश में पड़े हुए हैं, बिरादरी के एक-एक आदमी की खुशामद में लगे हैं। नाक घिसते-पिसते और नकघिरीं करते-करते नाक की नोक खिआय गई पर किसी का मुँह सीधा नहीं होता। बड़ा भारी डाड़ देने पर लोगों ने उन्‍हें बिरादरी में लेना भी मंजूर भी कर लिया तो भाजी जो बाँटी गई उसमें लड्डू कुछ छोटे थे। लोगों ने नका-सा छिड़क उसे लौटा दिया और नाक-भौं सिकोड़ने लगे। बूढ़े का किया धरा सब नष्‍ट हो गया, हाथ मल पछताता रह गया। इत्‍यादि, इस नाक की लाज निबहने में न जानिए कितने झगड़े रहते हैं जिससे बड़े कुनबे वाले गृहस्‍थ का यावज्‍जीव पिंड नहीं छूटता। ईश्‍वर की बड़ी कृपा है, जिसकी अंत तक प्रतिष्‍ठापूर्वक निभ जाय और नाक की नोक न झरने पाए। समाज को छिन्‍न-भिन्‍न करने में जहाँ और बहुत सी बातें हैं उनमें नाक निगोड़ी भी एक है।

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बालकृष्ण भट्ट
पंडित बाल कृष्ण भट्ट (३ जून १८४४- २० जुलाई १९१४) हिन्दी के सफल पत्रकार, नाटककार और निबंधकार थे। उन्हें आज की गद्य प्रधान कविता का जनक माना जा सकता है। हिन्दी गद्य साहित्य के निर्माताओं में भी उनका प्रमुख स्थान है।