nayi kitaab - sapno ke kareeb ho aankhein

विवरण: जय प्रकाश मानस के प्रस्तुत संकलन की कविताएं आम आदमी की फ़िक्र में लिखी गयी कविताएँ हैं। उनकी कविताओं के सरोकार के केन्द्र में उनके आसपास का मामूली आदमी है। वे अपनी कविताओं में छोटे लोगों की छोटी-छोटी ख़वाहिशों और उनके साथ की छोटी-छोटी चीज़ों के महत्व को दर्ज़ करने की कोशिश करते हैं। ये वे लोग हैं, जिनको इस देश के तंंत्र ने आज़ादी के बाद लगातार और छोटा बनाने का ही उपक्रम किया है। जय प्रकाश मानस ऐसे ही लुटे-पिटे और व्यवस्था द्वारा अपने ह़क से वंचित लोगों के अंतर्मन के भीतर पैठने की कोशिश करते हैं। एक कवि के बतौर उनकी एक कविता है, ‘सबसे अच्छी परजा’। यह कविता बहुत ही नरम टोन में पूरी शाइस्तग़ी के साथ आज के निज़ाम की ख़तरनाक मंशा को सामने लाती है, जहाँ ‘‘सबसे अच्छी परजा के लिए होता है देशनिकाला’’। कवि मानस इस जटिल और डरावनी व्यवस्था का आंतरिक हिस्सा होते हुए भी उसकी आलोचना को सामने लाते हैं। उनकी इधर की कविताओं में यह एक ग़ौरतलब पहलू है। मानस शोर-शराबे, चीख-चिल्लाहट, उद्वेलन और उत्तेजना के कवि नहीं हैं। उनको पता है कि कविता में शब्दों को पोर-पोर तक संवेदना में रचा-बसा होना चाहिए। अपनी एक कविता ‘खुशगवार मौसम’ में वो लिखते हैं- ‘‘चाँद-सितारे न बन पायें, जुगनू तो बना जा सकता है।’’ इसी तरह की बिम्बपरकता मानस की कविताओं को मामूली लोगों का कवि बनाती है। वे बहुत ही ईमानदारी के साथ अपनी एक कविता ‘इधर बहुत दिन हुए’ में व्यवस्था के मकड़जाल और बाहुपाश में जकड़े मामूली लोगों के पक्ष में खड़ा होकर स्वीकार करते हैं, ‘‘रीढ़ की हड्डी को तानकर /रख पाया नहीं कभी/आत्महंता प्रश्नों को टालता रहा/ बार-बार/एक बार भी न चीखा, न चिल्लाया /जैसे रहा हो कहीं रेहन में/सपने तो जैसे भूल गया देखना/किसी खूँटे से बँधे ढोर की तरह।’’

मानस इस व्यवस्था में फँसे होकर भी इस फ़िक्र से जुड़े हुए हैं कि तटस्थता कोई मूल्य नहीं है। वे लोगों के भीतर इत्मीनान से उकड़ू बैठे और हाथ-पाँव सिकोड़े ठंड को लेकर परेशान दिखते हैं। वे ‘ठंडे लोग’ कविता में लिखते हैं- ‘‘जो नहीं उठाते जो़िखम/जो खड़े नहीं होते तनकर /जो कह नहीं पाते बेलाग बात/जो नहीं बचा पाते धूप-छाँह /यदि तटस्थता यही है/ तो सर्वाधिक ख़तरा/ तटस्थ लोगों से है।’’ कवि मानस का ‘कवित्त विवेक’ वैचारिक आग्रह से संपृक्त है। वे सामाजिक जीवन की व्यवस्थाजन्य विडंबनात्मक स्थितियों की सहज तरी़के से पड़ताल करते हुए इस निष्कर्ष तक पहुँचते हैं कि तटस्थता एक ग़लत बात है। मामूली से मामूली आदमी को ये पता होना चाहिए कि उसका पक्ष क्या है।

कवि मानस को अच्छाई पर पूरा भरोसा है। वो अपनी कविता ‘बचे रहेंगे सबसे अच्छे’ में लिखते हैं- ‘‘सबसे अच्छे मनुष्य बचे रहेंगे/उनके हिस्से की दुनिया में चले जाने के बाद भी/ ़खुशबू की तरह /समूची दुनिया को छतनार करते हुए /गुलाब की तरह।’’ कवि मानस की कविताओं में जंगल, नदी और पहाड़ का ज़िक्र सहज-स्वाभाविक रूप से हुआ है। वे एक कविता ‘वे जा रहे हैं’ में लिखते हैं- ‘‘रहा जा सकता है वहाँ भी /बूढ़े पहाड़ जैसे सयाने पिता /हरी-भरी नदी जैसी अनुभवी माँ।’’ वे ‘ख़तरा’ कविता में लिखते हैं-‘‘कोई ख़तरा नहीं जंगल भीतर/ हरीतिमा के भीतर यदि पगडंडी गुम हो गयी/ तो भी कोई बात नहीं/भटकने के बाद भी/ ख़तरा यदि कहीं है तो/मन में घात लगाए बैठे/ घुसपैठिये से/ भय से।’’ कवि मानस यह मानकर चलते हैं कि अभी ‘‘बहुत कुछ है अपनी जगह/समय अभी शेष है/रास्ते भी यहीं कहीं/भूले नहीं हैं पखेरू अभी उड़ान/ ठूँठ हुए पेड़ में हरेपन की संभावना भी/ नमक कहाँ कम हुआ पसीने में।’’ वो रास्ते की पहचान करने और पसीने में नमक के सही अनुपात की जानकारी रखनेवाले कवि हैं। कवि मानस ख़ाली समय में और ज़्यादा रचनात्मक हो उठते हैं। उनकी स्मृतियों को मानो पंख लग जाते हैं। वे ‘ख़ाली समय’ कविता में लिखते हैं- ‘‘ख़ाली समय में काँट-छाँट लेते हैं नाखून/कोने-अंतरे से झाड़-बुहार लेते हैं/मकड़ी के जाले/आँगन की आधी धूप, आधी छाँह से /आँखों में भर लेते हैं आकाश /लोहार से धार कराकर ले आते हैं पउसूल /इमली या नींबू से माँज लेते हैं /पूर्वजों के रखे हुए ताँबे के सिक्के/जगन्नाथपुरी की तीर्थ यात्रा में मिले/बातूनी गाइड को कर लेते हैं याद/ ख़ाली समय हमें भर देता है वैसे ही लबालब।’’

कवि मानस के यहाँ कुछ भी विशेष या असाधारण नहीं है। वे काव्य पंक्तियों में उक्ति वैचित्र्य या चमत्कारिक कथन से बचते या परहेज़ करते जान पड़ते हैं। उनकी कविताओं में श्रमशील वर्ग के प्रति एक ़िकस्म का कृतज्ञता भाव भी दिखाई देता है। कवि मानस की थाली में जब अन्न से बना कोई व्यंजन परोसा जाता है, तो वो कृतज्ञ हो उठते हैं। इसके मूल में उनके नैतिक संस्कार हैं। कवि मानस की कविता को पढ़ते हुए छत्तीसगढ़ के सामाजिक-सांस्कृतिक और प्राकृतिक परिवेश के कई बिम्ब उभरते हैं। वे अपने समूचे परिवेश के प्रति बहुत ही सजग और प्रतिबद्ध हैं। उनकी एक कविता छत्तीसगढ़ राज्य के गठन के समय की है। नये राज्य के गठन को लेकर सामान्य जन जीवन में जो उल्लास होता है, वह कवि की कविता में भी देखने को मिलता है। वे अपनी कविता ‘अब जो दिन आएगा’ में लिखते हैं- ‘‘सि़र्फ एक ही अर्थ होगा/धान की पकी बालियों के झूमने का/ आँखों में जाग उठेगी नदी की मिठास/पर्वतों की छातियों में उजास और पूरी की पूरी साँस/ आम्र मंजरियों की हुमक से जाग उठेंगी दिशाएं/ सबसे बड़ी बात होगी /अब जो दिन आएगा/ नहीं डूबेगा किसी के इशारे पर।’’ वे ‘माँ की रसोई’ और ‘एक अदद घर’ जैसी कविताओं में अपनी परंपरा के प्रति पूरे नैतिक बोध के साथ उपस्थित हैं। उनकी कविता में माँ घर की नींव है और पिता छत की तरह। भाई स्तंभ की तरह हैं, तो बहन दवा और अँजोर बटोर लाती है। कवि मानस के सपनों में नदी एक अंतहीन लोक गीत सुनाती है।

कवि की चिंता हिंसा को लेकर भी है। वे ‘गोली’ कविता में लिखते हैं- ‘‘गोली आदमी को सि़र्फ मारना जानती है/फिर भी है दुनिया भर की मंडियों में बेची जा रही गोली!’’ कवि नये समय में बदल गये हत्यारों के चेहरों की शिनाख़्त करता है। वे लिखते हैं- ‘‘देखते ही देखते एक हत्या हो जाती है /अब हत्यारे को कुछ भी नहीं करना पड़ता/हम सब ही उसे आत्महत्या घोषित कर देते हैं।’’ कवि इस हिंसक और लहूलुहान समय में सवाल करता है-‘‘जब आपके पास दो ही रास्ते बचे हों/पहला हत्या/ दूसरा आत्महत्या/तब आप किधर जाना चाहेंगे?’’
कवि जयप्रकाश मानस के प्रस्तुत काव्य संकलन को पाठकों का भरपूर प्यार ज़रूर मिलेगा और समकालीन कविता के परिदृश्य पर भी यह एक ज़रूरी संकलन साबित होगा।

– चंद्रेश्वर

  • Format: Paperback
  • Publisher: Rashmi prakashan pvt. ltd. (2018)
  • ISBN-10: 8193557557
  • ISBN-13: 978-8193557556
  • ASIN: B07D3S1WHK

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