गीताञ्जलि की ये नज़्में अपने अतराफ़ और अंदरून के दरमियान एक मुस्तक़िल सफ़र का बयानिया हैं। एक ऐसा सफ़र जिसके सहयात्री जंगल भी हैं, मुख़्तलिफ़ पेड़ पौधे भी, सुबहें, दोपहरें, शामें और रातें तो ख़ैर हैं ही, एक जादूगर भी है और कई बार हम और आप भी। ये नज़्में इस बात पर यक़ीन और पुख़्ता करती हैं की शाइरी महज़ ज़ात का इज़हार भर नहीं बल्कि इज़हार की ज़ात भी है। लखनऊ में मक़ीम और पेशे से सॉफ़्टवेयर इंजीनियर गीताञ्जलि का ये पहला मजमुआ है मगर इसकी नज़्में अपनी पहली ही क़िर’अत में क़ारी को ये एहसास दिला देती हैं कि “सरसरी इस जहाँ में कुछ भी नहीं..”
पढ़िए कुछ नज्में गीताञ्जलि राय की नयी किताब ‘सुबहों जैसे लोग’ से! इस किताब का विमोचन इंडिया इंटरनेशनल सेण्टर, दिल्ली में 2 सितम्बर को होगा, जिसकी जानकारी इस लिंक पर मौजूद है! आप इस किताब को यहाँ प्री-आर्डर भी कर सकते हैं!
अधूरा ख़्वाब
सुबह होने वाली है
तुम्हारा ख़्वाब टूटने वाला है
मेरे जाने का वक़्त हो गया है
जाने दो मुझे
इससे पहले कि
तुम्हारी आँखें खुलें
और एक अधूरा ख़्वाब
तुम्हारी आँखों में बस जाए
मैं नहीं चाहती कि
सारी उम्र
तुम एक ख़्वाब का पीछा करने में बिता दो
मेरी तरह…
शेर और शिकारी
शेर और शिकारी की लड़ाई में
कभी शेर जीतते थे
तो कभी शिकारी।
शिकारियों की आदत थी
कि वो अपनी हर जीत की कहानी लिखते थे
लेकिन शेरों को ऐसे फ़िज़ूल कामों में कोई दिलचस्पी नहीं थी।
वक़्त बीता
शेरों की नई पीढ़ी
जो शिकारियों की लिखी कहानियाँ पढ़ के बड़ी हुई थी
मानने लगी
कि शेर लड़ाई-वड़ाई जैसे कामों के लिए नहीं बने।
नए शिकारी
जवान शेरों को बताते थे
कि कैसे उनके दादा जी ने पलट दिया था पूरा समंदर,
बाँध दिया था बादलों को,
और उखाड़ के रख दिये थे पहाड़…
शेर सर झुकाए उनकी बातें सुनते रहते।
एक बार
एक बूढ़े शेर ने
अपनी बहादुरी की दास्तान सुनाने की कोशिश की
तो जवान शेर ये कह के हँस पड़े कि
‘हाँ दद्दा, तुम ज़रूर जीते होगे
तुम तो पहाड़ से भी भारी हो ना…’
अब शेरों के यहाँ रिवाज बहुत बदल गया है।
लड़ने-ग़ुस्सा करने वाले शेर
अच्छे नहीं माने जाते।
एक अच्छा शेर
हमेशा मुस्कुरा के मिलता है सबसे
और शिकारियों की हर बात मानता है
क्योंकि ये बहादुर शिकारी ही तो बचाते हैं शेरों को
जंगल के ख़तरों से।
अब शेरों के यहाँ लड़ाई-वड़ाई जैसे बुरे काम नहीं होते।
अब शेरों के बच्चे
बस सर्कस में काम करते हैं।
इतवार की दोपहर
इतवार की दोपहर तो हमेशा ही अच्छी होती है
बिल्कुल तुम्हारी तरह…
बेफ़िक्र, बेपरवा, आज़ाद।
मैंने भी हमेशा इसे अपने ही तरीक़े से बिताया है
पर जाने क्यूँ,
कुछ अरसे से जब भी ये सुकून भरा वक़्त अपने साथ बिताने की कोशिश की,
तुम दूर-दराज़ के वक़्तों से निकल के चुपचाप मेरे क़रीब बैठ जाते हो…
मेरे हाथों की खुली किताब बंद कर के
अपने ही क़िस्से सुनाने लगते हो।
दिसम्बर की सर्दी,
बारिश की बूँदे
और इतवार की दोपहर
वही क़िस्सा जो तुमने जिया था कभी
मेरे साथ,
लगभग हर हफ़्ते दोहराते हो,
और मुझे अहसास भी नहीं होता कि मैं क़ैद हूँ…
कुछ आज़ाद से लम्हों में,
हमेशा के लिए।
एक रात… एक ख़्वाब
एक रात,
एक ख़्वाब,
हम दोनों ने देखा
और फिर हारती रहीं हक़ीक़तें
हर रोज़…
सूइयाँ
(साल 2015 में दिल्ली की एक LGBT परेड की याद में)
मैंने हँसते देखा कुछ लोगों को
और भीतर जैसे कुछ टूट गया
नहीं, वो मुझ पे नहीं हंस रहे थे
वो तो मासूम से लोग थे
बस ख़ुश थे एक दूसरे के साथ
वही जो सहमे रहते थे अक्सर
अपने चलने के तरीक़े पे,
बात करने के अन्दाज़ पे,
बात उठते ही चुप हो जाते थे
इससे पहले की वो एक लफ़्ज़ निकल जाए किसी के मुँह से…
हिजड़ा… छक्का या गे
बहुत छोटे-छोटे अल्फ़ाज़
जो इनकी मुकम्मल ज़ात पे चुभे थे सूइयों की तरह
इस मासूम हँसी के ज़रिए
उन सारी सूइयों को
जैसे एक दिन में निकाल के फेंक देना चाहते थे
और मैं ये सोच के टूट रही थी
कि कल फिर ये उन्हीं लोगों के बीच होंगे
जो ख़ुद को ‘नॉर्मल’ समझते हैं
और वो फिर चुभाना शुरू कर देंगे वही सूइयाँ…
हिजड़ा… छक्का और गे
नफ़रत
जो लोग तुम से नफ़रत करते होंगे,
अब कुछ तो करते ही होंगे,
आख़िर किस बात पे नफ़रत करते होंगे
बहुत ढूँढी है मैंने भी वो एक बात या वो सारी बातें
जो मेरे दिल में भी नफ़रत पैदा कर दें
ज़्यादा नहीं, बस इतनी कि मैं सुकून से जी सकूं
दो-एक नुकीले ऐब
जिनसे खुरच दूँ तुम्हारी तस्वीर इन आँखों से और चैन से सो जाऊँ
बातें मोहब्बतों की
वो वक़्त तो कब का गुज़र गया
जब डर था मुझे
कि तुम किसी और की ख़्वाहिश ना कर बैठो
अब तो इंतज़ार है मुझे
कि कोई तो मिले तुम्हें भी
जिसे तुम कहो एक मुकम्मल तस्वीर मोहब्बत की
और फिर
हम साथ बैठ के घंटों बातें करें
अपनी मोहब्बतों के बारे में…