वर्तमान में भारतीय फिल्म उद्योग एक बड़े बदलाव से गुज़र रहा है। बड़े कलाकार और जाने-माने चेहरों को लेकर बनाई गई फॉर्मूला फिल्में अब उतनी सफल नहीं हो रहीं जितनी कि कंटेंट आधारित फिल्में हो रही हैं। नवीनतम निर्देशकों द्वारा पेश की जा रही फिल्में अच्छी खासी जनता को सिनेमाघरों तक ला रही हैं। पिछले कुछ महीनों में आई फिल्में जैसे अमर कौशिक की ‘स्त्री’, साजिद अली की ‘लैला-मजनू’ और हरीश व्यास की संजय मिश्रा अभिनित ‘अंग्रेज़ी में कहते हैं’ बहुत बेहतर फिल्में हैं और ना केवल क्रिटिक्स बल्कि लोगों को भी खासी पसन्द आई हैं। हालांकि इनमें से कुछ फिल्में बॉक्स ऑफिस पर कामयाबी हासिल नहीं कर सकीं लेकिन एक फ़िल्म के तौर पर हर मायने में सफल हुई हैं।
उल्लेखनीय है कि अमर कौशिक की राजकुमार राव और श्रद्धा कपूर अभिनित ‘स्त्री’ आज भी सिनेमाघरों में छाई हुई है और अब तक 160 करोड़ से ज़्यादा का बिज़नेस कर चुकी है।
नए-नवेले निर्देशकों द्वारा रचे गए शाहकारों में एक और नाम ‘तुम्बाड’ भी जुड़ गया है। आश्चर्य है लेकिन सत्य है कि इस फ़िल्म का पहला ड्राफ्ट 1997 में तब लिखा गया था जब निर्देशक राही अनिल बर्वे मात्र 18 साल के थे। तब से अब तक ना-जाने कितनी कठिनाइयों का सामना करते हुए यह कहानी 21 साल बाद लोगों के सामने सिनेमाई पर्दे पर आई है। गौरतलब है कि इस फ़िल्म के निर्माण में ही पाँच से छह वर्ष का वक़्त लगा था।
फ़िल्म का टाइटल मकबूल मराठी लेखक और उपन्यासकार श्रीपद नारायण के मराठी उपन्यास तुमबड़चे खोट से लिया गया है और फ़िल्म की पटकथा मराठी लेखक नारायण धरप के फ़साने पर आधारित है। संभवतः निर्देशक मराठी साहित्य से बहुत अधिक प्रभावित हैं ऐसा माना जा सकता है।
तुम्बाड का शाब्दिक अर्थ तुरही या अंग्रेज़ी में ट्रम्पेट होता है और वास्तव में इस तुम्बाड की आवाज़ भारतीय सिनेमा जगत में गूंज रही है। ‘शिप ऑफ थिसिस’ और ‘एन इनसिग्निफिकेन्ट मैन’ जैसी फिल्मों का निर्माण कर चुके राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता आनंद गांधी इस फ़िल्म से एक कलात्मक निर्देशक, निर्माता और सह-लेखक के रूप में जुड़े हुए हैं जिससे इसकी विश्वसनीयता और बढ़ जाती है।
कहानी की शुरुआत सतारा-पुणे के करीब बसे एक गांव तुम्बाड से होती है जहां के एक प्रसिद्ध देवी मंदिर पर हस्तर का श्राप है। वर्तमान में मन्दिर और उससे लगे बाड़े का मालिक ‘सरकार’ है जो अपनी पत्नी और दो बच्चों के साथ तुम्बाड में रहता है। उसे हस्तर के खजाने की तलाश है और उसकी माँ हस्तर के श्राप से पीड़ित है। एक रोज़ दो भाइयों सदा और विनायक (सोहम शाह) में से एक ‘सदा’ की एक दुर्घटना में मौत हो जाती है और इसलिए उनकी माँ विनायक को लेकर पुणे चली जाती है। लेकिन लालची खून होने की वजह से अपनी माँ के मना करने के बावजूद विनायक पंद्रह साल बाद दोबारा तुम्बाड जाता है। वह लगातार वहां जाकर थोड़ा-थोड़ा खज़ाना लेकर आता है और ऐसा करते हुए कई साल बीत जाते हैं। वह अपने बेटे को भी इसी काम के लिए तैयार करता है। हस्तर कौन या क्या है? हस्तर का श्राप क्या है? मन्दिर में खज़ाना कहाँ और किसके पास है? एवं उसे हासिल करने के लिए किस कसौटी से गुज़रना पड़ता है? यह सब सवाल हैं। और इनके जवाब फ़िल्म में हैं।
आर्ट डायरेक्शन कमाल और म्यूज़िक अच्छा है। निर्देशक बर्वे के अनुसार फिल्म की अधिकतर शूटिंग निर्जन लोकेशंस पर की गई है। सम्पूर्ण फ़िल्म के दौरान आप आने वाली घटनाओं के मुतालिक विचार करते रहते हैं। फ़िल्म का अंत ‘निन्यानवे के फेर’ की कहानी कहते हुए इंसान की लालची प्रवत्ति को दर्शाता है।
सोहम शाह, जिन्हें इससे पहले मेघना गुलज़ार की ‘तलवार’ में देखा गया था, फ़िल्म में और किरदार में फिट बैठे हैं। वे इस फ़िल्म के सह-निर्माता भी हैं। बाकी कलाकारों का काम भी सराहनीय है!
हॉरर फिल्मों की एक नई परिभाषा लिखने वाली और ‘कंटेंट इस किंग’ की कहावत को एक और बार सही साबित करने वाली यह फ़िल्म ‘तुम्बाड’ ज़रूर देखी जानी चाहिए। 1920, 1920 ईविल रिटर्न्स, क्रिएचर, रागिनी एमएमएस जैसी ‘हॉरर’ फिल्में बनाने वालों को तो यह फ़िल्म मुम्बई के सबसे महंगे सिनेमाघर में दिखाई जानी चाहिए।
आप भी जाइये। जाइये, वरना हस्तर आ जाएगा।