पार्टनर, तुम्हारी जात क्या है
सच ही कहा था शेक्सपियर ने
‘नाम में क्या रखा है’
जो कुछ है, जाति है
नाम तो नाम है, जाति थोड़ी है
जो मरे भी न बदले
ऐसा भी नहीं कि लोग चुप हो जाएँ नाम पूछकर
जब तक पता नहीं चलता जाति का
परिचय अधूरा ही रहता है
क्या रखा है नाम में
कुछ भी हो सकता है नाम
नाम के पीछे जो पुच्छल्ला है वो महत्त्वपूर्ण है
ये पुच्छल्ला ही तो पहचान है
ये पुच्छल्ला हटा और सन्दिग्ध हुए
साधो, साधुओं की भी जाति पूछ लीजिए
निम्न जात और साधु हो जाए
धर्म न पड़ जाएगा ख़तरे में
अनिवार्य है उसका वध धर्म रक्षार्थ
म्यान बड़ी चीज़ है, तलवार कौन देखता है
फिर जाति तो ठप्पा है
जो मज़हब बदले भी नहीं हटता
हिन्दुओं के लिए अछूत
अछूत है मुसलमानों के लिए भी
ईसाइयों और पारसियों के लिए भी अछूत है
नाम से क्या होता है
नाम तो संकेत मात्र है
पिटारा तो जाति में खुलता है
नाम भले विष्णु के किसी अवतार का हो
लेकिन अछूत है जाति से
वर्णमाला में भले अव्वल पर आए
पर कक्षा में तो पीछे ही बैठना है
नाम भी कई हो सकते हैं एक ही आदमी के
पर हरेक नाम के पीछे जाति एक होती है
और वो एक जाति सब नामों पर भारी पड़ती है
पार्टनर, तुम्हारी पोलिटिक्स क्या है
इसके उत्तर में प्रतिप्रश्न उछलता है
पार्टनर, तुम्हारी जात क्या है!
समय के साथ
डर चला जाता है समय के साथ
समय के साथ भर जाते हैं घाव भी
क्षीण हो जाते हैं दुःख समय के साथ
समय के साथ दूरियाँ और भी बढ़ जाती है
समय के साथ धुन्धला जाते हैं चेहरे
कुछ चलते हैं समय के पीछे
इस उम्मीद में कि ठहरेगा समय उनकी ख़ातिर
किसी पेड़ की छाँव में
या लौटकर चला आएगा किसी भटके हुए मेमने-सा
चलते हैं कुछ समय के साथ क़दम ताल मिलाते हुए
निकल जाते हैं कुछ समय के आगे
और इंतज़ार करते हैं
समय से आँख मिलाकर चलते हैं कुछ
कुछ डाल देते हैं समय की आँखों में आँखें
मोड़ देते हैं कुछ समय की धारा
कुछ बह जाते हैं समय की धारा में
देख लेते हैं कुछ समय के परे भी
कुछ देख नहीं पाते अपने ही समय को
कुछ का समय वाक़ई बुरा होता है
वो धीरज धरते हैं, कट जाएगा बुरा समय भी
अच्छे समय की तरह
पर सच तो यह है कि काटता रहता है समय ही उन्हें धीरे-धीरे
कुछ पाले रखते हैं भ्रम अच्छे समय का
दिखाए रखते हैं सपने कुछ अच्छे समय के
बुरे समय को ही अच्छा सिद्ध कर देते हैं कुछ
बड़ा निष्ठुर है समय
चुपचाप चले जाते हैं अच्छे – भले समय से पहले ही
बुरे बैठे रहते हैं मजमा लगाकर
लोग प्रतीक्षा करते हैं उनके जाने की
तुम्हारी स्मृति क्यों है अछूती समय के प्रभाव से
सोते-सोते
अक्सर मैं दिशा, स्थान और समय भूल जाता हूँ
रात को तो ऐसा होता ही है, तब भी होता है जब मैं दिन में सोता हूँ
दिन में सोना मेरे सामन्ती होने की पहचान नहीं है
दिन में सोने के बावजूद भी मैं रात को किसी की नींद में ख़लल नहीं डालता
मैं उत्तर में पैर करके सोता हूँ
पर उठने से पहले लगता है कि मेरे पाँव दक्षिण में हैं
यद्यपि दक्षिण में पैर करके सोना अशुभ होता है
और यही विचार मुझे विचलित करता है
पैरों की दिशा बदलते ही सबकी दिशा बदल जाती है
रास्ता और लक्ष्य दोनों बदल जाते हैं
खिड़की जो दायीं तरफ़ थी बायीं ओर हो जाती है
दरवाज़ा जो ठीक पैरों की ओर था सिर के पीछे चला आता है
मेरे बायीं ओर सोया शख़्स दायीं ओर चला आता है
मैं उसे दायीं ओर टटोलता हूँ तो वो बायीं ओर कुनमुनाता है
अगर मैं आँखें बन्द किए उठकर चल दूँ तो सीधा दीवार से जा टकराऊँ
और कभी लगता है कि मैं दूसरे ही स्थान पर आकर सोया हूँ
मेरा कमरा और घर दोनों अलग है
मेरे आसपास के लोग भी अलग ही हैं
ऐसे भी लोग उपस्थित हैं जो अब इस दुनिया में नहीं है
यथार्थ में जो क्रमबद्ध और व्यवस्थित है
नींद में सब उल्टा-पुल्टा हो जाता है
और कभी ऐसा होता है कि मैं
दिन को रात समझ देर तक सोया रहता हूँ
कभी रात को दिन समझ खिड़की की ओर झाँकता हूँ
यह मात्र संयोग है या सच में मेरे तले की धरती दिन-ब-दिन कठोर होती जा रही है?!