राजकमल चौधरी के कविता संग्रह ‘कंकावती’ से कविताएँ | Poems from ‘Kankavati’, a poetry collection by Rajkamal Chaudhary
समय के बीते हुए से
प्राप्त कर लेना क्षमा सहज सम्भव
नहीं है अब। जल पर नहीं, पिघले
हुए इस्पात पर पड़ती है पाँवों की
छाप। रेतीले मैदान में स्काइस्क्रैपरों
की कतारें उग आयी हैं। कोहरा नहीं
हैं ताँबे के तारों का घना बुना हुआ
इन्द्रजाल। प्राप्त कर लेना क्षमा
सहज सम्भव नहीं है टाइपराइटर से,
टेलीफ़ोन-बूथ से। समय के बीते हुए
से हम केवल घृणा माँग सकते हैं।
रिक्शे पर एक सौ रातें
गरदन के नीचे से खींच लिया हाथ।
बोली, – अन्धकार हयनि (नहीं हुआ
है)! सड़कों पर अब तक घर-वापसी
का जुलूस। दफ़्तर, दुकानें, अख़बार
अब तक सड़कों पर। किसी मन्दिर के
खण्डहर में हम रुकें? बह जाने दें
चुपचाप इर्दगिर्द से समय? गरदन के
नीचे से उसने खींच ली तलवार!
कोई पागल घोड़े की तेज़ टाप बनकर
आता है। प्रश्नवाचक वृक्ष बाँहों में।
डालों पर लगातार लटके हुए चम-
गादड़। रिक्शे वाला हँसता है चार
बजे सुबह – अन्धकार हयनि (नहीं
हुआ है)। सिर्फ़, एक सौ रातों ने हमें
बताया, कि शाम को बन्द किये गये
दरवाज़े सुबह नहीं खुलते हैं।
शीला : आइने में
मैंने कब नहीं कहा, वह बदसूरत लड़की
अपना चेहरा सुबह में भी देखती नहीं?
मैंने कब नहीं कहा, मेरे दस नाख़ून
उसकी खुरदरी जाँघों से कालापन
खरोचने लगते हैं? मैंने कब नहीं
कहा, मेरे साथ उसका होना, बार-
बार ऐसे ही होते रहना, काले आइने
में नहीं, धुएँ के सुलगते घर में होता
है?
कंकावती-1
नसों की पीली धारियाँ। एक प्याला
रोशनी। टूटे हुए मकड़ी-जाल पर
शाम की धूप। वह अपने घुटनों में
सिर डालकर पी जाना चाहती है हर
सुबह।
भाषा
भाषा अब वेश्या है। सबकी बाँहों में
समायी हुई, सबके ओठों पर बसी रहती
है। उसके विवस्त्र अंगों में अब कोई अर्थ
नहीं।
एक प्रश्न हज़ार उत्तर
मैंने सूरज से पूछा – धरती कब आग का
गोला बन जाएगी? मुझसे सूरज ने पूछा,
– तुम बरफ़-घर में सोये रहोगे कब
तक?
मोनताज
अभिजात-परिवार की युवती विधवा
के लिए चाहिए एक प्रौढ़ा परिचारिका,
जिसे याद हों सारे हिलस्टेशनों के
सारे होटलों के नाम। गाँधी-मैदान में
‘हॉली-डे ऑन-आइस’। सिगरेटों पर
नये टैक्स नहीं लगे। एलिजाबेथ टेलर
पर एक फिल्म-कम्पनी ने बीस करोड़
का दावा किया। हज़ार साल बाद
सूरज तीन टुकड़े हो जाएगा। पत्नी
अपने पति को जहर देकर भरी
गंगा में डूब गयी – मछुओं ने उसे बचा
ही लिया।
अक़्ल के मसीहा
नेशनल लाइब्रेरी में किताबों की दीवार
के पीछे छिपकर कोणार्क की ताज़ा मूर्तियाँ
चूमते हैं। माइनस – नाइन – चश्मा फ़र्श
पर गिर जाता है, अरसे तक पड़ा रहता
है। मूर्तियाँ खिलखिलाती हुईं किताबों की
दीवार में समा जाती हैं। अक़्ल के मसीहा
हाथों से टटोलते रहते हैं माइनस-नाइन।
मरसिया
तुम्हारी बेचैन मुस्कुराहटों के बैलून
नीले जंगल में डूब गये। किसी छत
पर नहीं उतरे, कोई नन्ही-सी लड़की
उनके धागे पकड़ नहीं पायी। केवल,
तुम्हारी पुकार माँस का एक ताज़ा
टुकड़ा बनकर सातवीं मंज़िल की
खिड़की से बीच चौराहे पर कूद
गयी। भीड़ ने कहा – शहर में
करफ़्यू है।
मिट्टी का दरपन टूटकर
यह शहर खड़ा कर लेता है। इस्पात
की क़लम जादूगरों की कहानियाँ
लिखती है। बहादुर औरतें शॉपिंग में
कठपुतलियाँ अथवा अन्तरिक्ष-यान
ख़रीद लाती हैं। हवा अपनी दाग़दार
देह पर ख़बरें छापती रहती हैं। और,
हड़तालियों का जुलूस चुपके से
पब्लिक-बाथरूम में घुस जाता है।
शहर-अजीमाबाद
गोलघर चावल का गोदाम था, जिसमें
मुँडेरे से शहर मीनिएचर जंगल
दीखता है। कॉफ़ीहाउस पत्रकारों के
लिए सुरक्षित। जातिवाद के ख़िलाफ़
ज़ोरदार भाषण। कत्थक-नाच वाली
लड़कियों से इन्ट्रोडक्शन। सचिवालय
से कूदकर रामनाथ या श्यामनाथ
मर गया। लैम्प-पोस्टों की पीली
रोशनी संक्रामक है। गर्भवती हो गयी
हैं अस्पताल की सारी नर्सें। किसी को
भी नहीं स्मरण है अपना नाम। कल
आलमगंज मस्जिद में एक बम फूटा।
मन्त्री-उपमन्त्री चार बजे सुबह घूमने
निकलते हैं। अगम कूप से निकली है
राधा-किशन की मूरत। गाँधी मैदान
में सोना मना है। गंगा-नदी बहती
है। गंगा नदी बहती है। और, सात
नवयुवक विधान-भवन के सामने अब
तक ब्रोंज की चट्टान बने हुए खड़े हैं।
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