किसी दिन तुमने कह दिया कि दिखाओ नदी
असल और सच्ची। तो मैं क्या करूँगा?
आज तो यह कर सकता हूँ—घर के सीले कोने में जाकर कहूँ
नल खोलो और नदी पी लो
लाओ घर भर का गन्दा हफ़्ता और इस छोर पर धो लो
नहाओ
ख़ूब सपने में नाव पर घूमो
छोड़ो कहीं की, अब तो अपने घर की ही है नदी
जो मैं परसाल न कर सका
उसका तुम इस साल भी माने हुए हो बुरा
सोचो घर की दीवार पर पानी सर टेके खड़ा हो
क्या यह सुख और ख़ुशी दोनों नहीं है?
पर किसी दिन तुमने कह दिया कि खोलो नल
और दिखाओ पानी। तो मैं क्या करूँगा?
कूड़े पर कूड़ा बढ़ता जा रहा है
सुबह पर सुबह और शाम पर शाम खोता जा रहा हूँ मैं
तिस पर भी ढूँढता हूँ कोई ख़ुशी
साफ़ आसमान में जैसे बित्ते-भर बादल
जिसके फ़ैसले ही फिर बाढ़ आने वाली है
बीच अकाल नदी बौखलाने वाली है
टूटने वाले हैं बाँध
ऐसे में तुमने कह दिया कि मुझे सचमुच की नाव पर
घुमाओ। तो मैं क्या करूँगा?
नल खोलो। नल खोलो
मारे प्रेम के जो है सो उसकी पोल न खोलो
ठीक है कि इतने कमज़ोर पानी में लहरें नहीं उठतीं
डुबकियाँ नहीं लगतीं
न सही जमकर नहाना हाथ-पाँव ही धो लो
फिर सो लो
सुनहरे सपनों के लिए सोना ज़रूरी है
सपनों में खदेड़ लाऊँगा मैं
हिरनों की पूरी-पूरी डार
पूरे चन्द्रमा के साथ नहायी हुई रातें
जिनमें तुम बाघ की धारियाँ तक गिन सकोगी
ऐसा माहौल होगा
कि बाज़ार-भर में भूसे से भरी हुई हिरनियाँ भी
गर्भ धारण के लिए दौड़ने लगें
उन्हें ढूँढते हुए आएँगे जंगली हिरन। थके-माँदे
पानी की ढूँढ में नदी तक
नदी की ढूँढ में नल तक
धुले हुए कपड़ों और मँजे हुए बर्तनों को देखकर
सीटियाती टोंटी से डरकर वे वापस चले जाएँगे
पर तुमने यदि कह दिया कि मृगछाल ला दो
या कि बाघम्बर। तो मैं क्या करूँगा?
लीलाधर जगूड़ी की कविता 'लापता पूरी स्त्री'