गरदन के नीचे से खींच लिया हाथ।
बोली—अंधकार हयनि (नहीं हुआ
है)! सड़कों पर अब तक घर-वापसी
का जुलूस। दफ़्तर, दुकानें, अख़बार
अब तक सड़कों पर। किसी
मन्दिर के खण्डहर में हम रुकें? बह
जाने दें चुपचाप इर्द-गिर्द से समय?
गरदन के नीचे से उसने खींच ली
तलवार! कोई पागल घोड़े की तेज़
टाप बनकर आता है। प्रश्नवाचक
वृक्ष बाँहों में। डालों पर लगातार
लटके हुए चमगादड़। रिक्शे वाला
हँसता है चार बजे सुबह—अंधकार
हयनि (नहीं हुआ है)। सिर्फ़,
एक सौ रातों ने हमें बताया, कि
शाम को बन्द किए गए दरवाज़े
सुबह नहीं खुलते हैं।
राजकमल चौधरी की कविता 'नींद में भटकता हुआ आदमी'