राधाकृष्ण प्रकाशन से प्रकाशित ‘साहित्य विधाओं की प्रकृति’ से
अनुवाद : वंशीधर विद्यालंकार
केवल अपने लिए लिखने को साहित्य नहीं कहते हैं—जैसे पक्षी अपने आनंद के उल्लास में गाता है, उसी प्रकार हम भी अपने आनंद में विभोर होकर केवल अपने ही लिए लिखते हैं, मानो श्रोता या पाठक का उससे कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं होता।
यह बात बिल्कुल निर्विवाद रूप से नहीं कही जा सकती कि पक्षी जब गाता है तब वह पक्षी-समाज ज़रा भी उसके ध्यान में नहीं होता। यदि नहीं होता तो न सही, इस बात पर तर्क करने से लाभ ही क्या? परंतु यह तो मानना ही पड़ेगा कि लेखक की रचना का प्रधान लक्ष्य पाठक-समाज होता है।
क्या इस कारण लेखक की रचना कृत्रिम हो जाती है? माता का दूध संतान के लिए ही होता है तो क्या इसीलिए वह स्वतः-स्फूर्त नहीं होता?
नीरव कवित्व और आत्मगत भावोच्छ्वास अर्थात एकमात्र अपने ही लिए भावों का प्रकाशन—बहुत से कवि इन दो निरर्थक सिद्धांतों को मानते हैं। जिस प्रकार जो इंधन जलता नहीं है, उसे आग के नाम से नहीं पुकारा जा सकता, उसी प्रकार जो कवि आकाश की ओर देखकर आकाश ही के समान नीरव हो जाता है, उसे कवि नहीं कहा जा सकता। प्रकाश ही साहित्य है। मन के अंतस्तल में क्या है, यह कौन जान सकता है और इस पर आलोचना करने से लाभ ही क्या? श्लोक में कहते हैं—’मिष्ठान्नमितरे जनाः’। भंडार में कौन-सी वस्तु पड़ी हुई है, इसका अनुमान से पता लगाना बेकार है। यारों को तो मिष्ठान्न हाथों-हाथ मिलना चाहिए।
एक-मात्र अपने ही लिए भावों का प्रकाशन भी एक ऐसी ही निरर्थक बात है। रचना स्वयं रचयिता के लिए नहीं है, यह मानना पड़ेगा और यह मानकर ही चलना पड़ेगा।
हमारे भावों की यह स्वाभाविक प्रवृत्ति है कि वे अपने आप को अनेक हृदयों में अनुभव कराना चाहते हैं। प्रकृति में देखिए—प्राणिमात्र, व्याप्त होने के लिए, स्थिरतापूर्वक रहने के लिए प्रयत्नशील हैं। जो प्राणी अपने को जितना बहुगुणित करके जितना अधिक फैला सकता है, उसके जीवन की सीमा उतनी ही विस्तृत हो जाती है, वह अपना अस्तित्व संसार को उतना ही अधिक अनुभव करा सकता है। मनुष्य के मानसिक भावों के अंदर भी हमें इसी प्रकार की चेष्टा दिखायी देती है। भेद इतना ही है कि प्राणी देश और काल पर अपना प्रभुत्व स्थापित करते हैं और मानसिक भाव मन और काल पर। हमारे मानसिक भाव अनंत काल तक अनंत हृदयों को प्रभावित करना चाहते हैं।
अनादि काल से मनुष्य इसी इच्छा की पूर्ति के लिए कितना प्रयत्नशील रहा है। उसने कितने संकेतों में, कितनी भाषाओं में, कितनी लिपियों में, पत्थर की कितनी खुदाइयों में, धातुओं की कितनी ढलाइयों में, चमड़े की कितनी बंधाइयों में, वृक्षों की कितनी छालों में, पत्तों में, काग़ज़ों में, कितनी तूलिकाओं से, छेनियों से, क़लमों से कितना चित्रण और भाव-प्रकाशन किया है। बाईं ओर से दाईं ओर, दाईं ओर से बाईं, ऊपर से नीचे की ओर, एक पंक्ति से दूसरी पंक्ति में क्या कुछ नहीं किया गया। एक न एक दिन हमारा घर, हमारा सामान आदि, हमारा शरीर-मन सब कुछ नष्ट हो जाएगा—एकमात्र मैंने जो कुछ विचारा है, जो कुछ अनुभव किया है, वह अनंत काल तक मनुष्य की बुद्धि और भावना का सहारा लेकर सजीव संसार में जीता रहेगा।
कुछ समय हुआ मध्य एशिया के गोबी-मरुस्थल के बालुका-स्तूपों में विलुप्त मानवसमाज की एक विस्मृत प्राचीनकाल की फटी-पुरानी पुस्तक प्राप्त हुई। उसकी विस्मृत अज्ञात भाषा में और अपरिचित लिपि में क्या एक वेदना-सी प्रकट नहीं होती थी? ऐसा प्रतीत होता था कि जाने किस समय के एक सजीव चित्त के भाव और विचार हमारे मन के अंदर प्रवेश करने के लिए छटपटा रहे हैं। न तो यह पता था कि इस पुस्तक का लिखने वाला कौन है और न यह ज्ञात था कि यह किस स्थान पर लिखी गयी है। मनुष्य के मन के एकमात्र भाव और विचार मनुष्य के सुख-दुःख में परिगणित होने के लिए एक युग से दूसरे युग में आकर अपना परिचय नहीं दे सकते : अपने दोनों हाथ बढ़ाकर जैसे मनुष्य के मुख की ओर एकटक निहार रहे हैं।
संसार के सर्वश्रेष्ठ सम्राट अशोक अपनी जिन बातों को अनंतकाल से श्रुतिगोचर कराना चाहते थे, उन्हें उन्होंने पहाड़ के शरीर में खुदवा दिया था। वे सम्भवतः समझते थे पहाड़ किसी समय मरेगा नहीं, हटेगा नहीं; अनंत काल के पथ के किनारे खड़े रहकर नव नव युग के पथिकों को उनकी बातें चिरकाल तक दुहराता हुआ सुनाता रहेगा। उन्होंने पहाड़ को अपने हृदय की बातें कहने का भार सौंप दिया था।
पहाड़ समय-असमय का कुछ भी विचार न करके उनकी भाषा को सुनाता आ रहा है। कहाँ अशोक और कहाँ धर्मजाग्रत भारतवर्ष का वह अतीत गौरव का दिन। किंतु पहाड़ उस अतीत की कितनी ही बातें विस्मृत अक्षरों में, अप्रचलित भाषा में आज भी बोल रहा है। वह कितने ही दिनों तक तो अरण्य-रोदन ही करता रहा है। अशोक की वह महावाणी कितनी ही शताब्दियों तक मानव-हृदयों को गूँगे के समान इशारों से बुलाती रही है। रास्ते से राजपूत गए, पठान गए, मुग़ल गए, बर्गियों की तलवारें बिजली की तरह प्रबल वेग से दिग्दिगंत में प्रलय का कशाघात करके चली गईं। किसी ने उसके इशारों का प्रत्युत्तर नहीं दिया। समुद्र पार एक द्वीप है। सम्भवतः अशोक ने उस द्वीप का नाम तक भी सुना नहीं था। जब अशोक के कारीगर पाषाण-फलों में उसकी आज्ञाओं को उत्कीर्ण कर रहे थे, उस द्वीप के निवासी अरण्यचारी ड्रु इड लोग अपनी पूजा के आवेग को भाषाहीन प्रस्तर के स्तूपों में स्तम्भित किया करते थे। हज़ारों सालों के बाद इसी द्वीप के एक विदेशी ने आकर कालांतर के उस मूक इंगितपाश में से उसकी भाषा का उद्धार किया। इस प्रकार सम्राट अशोक की इच्छा इतनी शताब्दियों के बाद एक विदेशी की सहायता से सार्थकता को प्राप्त हुई। यह इच्छा और कुछ नहीं है। अशोक चाहे कितने ही बड़े सम्राट क्यों न हों, वे क्या चाहते हैं क्या नहीं, उन्हें कौन-सी वस्तु प्रिय है, कौन-सी अप्रिय—वे उसे रास्ते के प्रत्येक पथिक को बतलाना चाहते हैं। उनके मन का भाव इतने युगों से समस्त मनुष्यों के मन का आसरा देखता हुआ रास्ते के एक ओर खड़ा है। सम्राट की उस एकाग्र आकाँक्षा की ओर कुछ पथिक देखते हैं और कुछ बिना देखे ही चले जाते हैं।
इसका यह अर्थ न समझना चाहिए कि मैं अशोक के आदेशों को साहित्य मानता हूँ। इससे एकमात्र यही ज्ञात होता है कि मनुष्य की प्रबल आकाँक्षा क्या है। हम जो मूर्ति गढ़ रहे हैं, चित्र बना रहे हैं, कविता लिख रहे हैं, पत्थर के मंदिर का निर्माण कर रहे हैं, और इस प्रकार देश-विदेश में चिरकाल से यह अविराम चेष्टा चल रही है—वह और कुछ नहीं है, मनुष्य का हृदय मनुष्य से अमरता की प्रार्थना कर रहा है।
जो वस्तु चिरकालीन होती है और मनुष्य के हृदयों में अमरत्व लाभ करना चाहती है, वह क्षणकालीन वस्तुओं और हमारी तत्कालीन आवश्यकताओं से सर्वथा भिन्न होती है। हमें अपनी साल-भर की आवश्यकताओं के लिए चावल, जौ, गेहूँ आदि बोना पड़ता है, परंतु यदि हम जंगल उगाना चाहें तो हमें बहुत-सी वनस्पतियों के बीजों का संग्रह करना पड़ता है।
मनुष्य साहित्य के माध्यम से अमर होना चाहता है। बहुत से देशहितैषी समालोचक कहते हैं कि लेखक एकमात्र नाटकों, उपन्यासों, आख्यायिकाओं और काव्यों से ही साहित्य को भरते चले जा रहे हैं। देश को जिस समयोपयोगी साहित्य की आवश्यकता है, वह तो कोई लिखता ही नहीं। इस पर भी लेखक टस-से-मस नहीं होते। समयोपयोगी साहित्य से सामयिक आवश्यकता ही पूर्ण होती है, परंतु जो साहित्य सर्वकालीन है, वह अपने अस्तित्व को सदा अक्षुण्ण बनाए रखता है। ‘ज्ञान’ की वस्तु का प्रचार करना पड़ता है। इसी प्रकार उसका उद्देश्य पूर्ण होता है। ज्ञान में प्रतिदिन परिवर्तन होता रहता है। नए आविष्कार पुराने आविष्कारों को भ्रमपूर्ण और ग़लत सिद्ध कर देते हैं। जो वस्तुएँ कल बड़े-बड़े पंडितों के लिए असाधारण और अगम्य थीं, वे आज छोटे-से बच्चे को भी अत्यंत साधारण और सरल प्रतीत होती हैं। जो आविष्कार, खोज और सत्य नया होने पर क्रांति कर देता है, पुराना हो जाने के बाद विस्मय तक जागृत नहीं करता। यह जानकर हमें आश्चर्य होता है कि इस मोटी-सी बात को एक दिन बड़े-बड़े वैज्ञानिक और पंडित मानने से इंकार करते थे।
परंतु भावों के विषय में यह नहीं कहा जा सकता। उसका चाहे कितना ही प्रचार क्यों न हो जाए, वह कभी पुराना नहीं होता। ज्ञान की वस्तु को हम दुबारा जानना हो नहीं चाहते। ‘अग्नि गरम है’, ‘सूर्य गोल है’ ‘जल द्रव है’—ये सब बातें एक बार जान लेने के बाद फिर जानने योग्य नहीं होती। यदि कोई दूसरी बार इन्हें नई बात की तरह बताए तो हम चिढ़ जाते हैं। भावों की वस्तु को जितनी बार बताया जाए, हमें उतनी ही अधिक प्रसन्नता होती है। ‘सूर्य पूर्व दिशा से निकलता है’—यह बात हमें विशेष आकर्षक नहीं प्रतीत होती, परंतु सूर्य के उदय होने में जो सौंदर्य और आनंद है, वह आज भी मनुष्य के लिए वैसा ही आह्लादकारी और आकर्षक है। अनुभव जितने प्राचीन काल से जितनी लोक परम्पराओं द्वारा प्रवाहित होकर आता है, उतना ही वह हमारे हृदयों को आसानी से आविष्ट कर लेता है।
इसलिए यदि मनुष्य अपनी किसी वस्तु को चिरकालपर्यंत उज्ज्वल और नवीन रूप में अमर करना चाहता है, तो उसे भावों की वस्तु का सहारा लेना पड़ता है। साहित्य का मुख्य आलम्बन भावों का विषय है, ज्ञान का नहीं। और भी एक बात है। ज्ञान की वस्तु को एक भाषा से दूसरी भाषा में रूपांतरित किया जा सकता है। यह सम्भव है कि दूसरी भाषा में किया हुआ रूपांतर मूल रूप से अधिक अच्छा हो। ज्ञान की वस्तु का मानवसमाज की भिन्न-भिन्न भाषाओं में सुगमता से प्रचार किया जा सकता है। इसी प्रकार उसका उद्देश्य यथार्थ रूप में पूर्ण होता है।
परंतु भावों के विषय में यह बात असम्भव है। वे जिस मूर्ति का आश्रय लेते हैं, उससे फिर अलग नहीं हो सकते।
ज्ञान की वस्तु को प्रमाणित करना पड़ता है और भावों की वस्तु में जीवन का संचार करना पड़ता है। इसके लिए आभास-इंगितों की और कला-कौशल की आवश्यकता होती है। इसको केवल समझाकर कह देने मात्र से कार्य सम्पन्न नहीं हो सकता : इसकी सृष्टि करनी पड़ती है।
यह कला-कौशलपूर्ण सृष्टि भावों की देह के समान होती है। इस देह में लेखक जिस प्रकार भावों की प्रतिष्ठा करता है, वैसा ही उसके व्यक्तित्व का परिचय प्राप्त होता है। इसी शरीर की गठन और प्रकृति के अनुसार उसका आश्रित भाव मनुष्यों से आदर पाता है। इसकी शक्ति के अनुसार ही वह हृदयों और समयों में व्याप्त होता है।
प्राण एकमात्र शरीर पर ही निर्भर करते हैं। जल के समान उन्हें एक पात्र से दूसरे पात्र में डाला नहीं जा सकता। देह और प्राण आपस में एक-दूसरे को गौरवान्वित करते हुए एकात्म होकर रहते हैं।
भाव, विषय और तत्व साधारण मनुष्यों के होते हैं। वे जैसे एक मनुष्य के हृदय में होते हैं, वैसे ही दूसरे मनुष्यों के हृदयों में भी होते हैं। उन्हें यदि एक मनुष्य व्यक्त न कर सका तो काल-क्रम से कोई दूसरा व्यक्त कर देता है। परंतु रचना लेखक की सम्पूर्ण रूप से अपनी होती है, वह एक मनुष्य की जैसी होती है दूसरे की वैसी नहीं होती। इसलिए रचना के अंदर ही लेखक यथार्थ रूप से जीवित रहता है, भावों और विषय के अंदर नहीं।
रचना कहने से भाव और उसको प्रकट करने की शैली—इन दोनों बातों का सम्मिलित रूप से ज्ञान होता है। इन दोनों में से लेखक की शैली ही लेखक की एकमात्र अपनी होती है।
जब हम तालाब कहते हैं तो जल और खुदा हुआ आधार, इन दोनों का एक साथ ज्ञान होता है। परंतु इन दोनों में मनुष्य की अपनी कृति क्या होती है? जल मनुष्य की सृष्टि नहीं है, वह तो प्राकृतिक और चिरंतन है। उसी जल की विशेष रूप से सर्व-साधारण के उपयोग के लिए सुदीर्घकालपर्यंत रक्षा करने का जो तरीक़ा है, वही प्रख्यात कीर्तिमान मनुष्य का अपना है। उसी प्रकार भाव भी मनुष्य-मात्र का है। उसको विशेष मूर्ति में सब मनुष्यों के लिए विशेष आनंद की सामग्री बनाने की शैली ही अपनी होती है। उसी के साथ उसका व्यक्तित्व या अपनापन सम्बद्ध रहता है।
भाव को अपना बनाकर सर्वसाधारण बना देना ही साहित्य है, ललित कला है। अग्नि जल, स्थल, वायु और दूसरी बहुत-सी वस्तुओं में साधारणतया विद्यमान है। लता और वृक्ष आदि उसे अपनी निगूढ़ शक्ति के बल से प्रथमतः विशेष आकार में अपना बना लेते हैं और फिर उसी तरीक़े से वह सुदीर्घकाल के लिए सर्वसाधारण के उपयोग की वस्तु बन जाती है। उसका उपयोग एकमात्र भोजन और गरमी आदि के लिए ही नहीं होता, परंतु उसके द्वारा सौंदर्य, प्रकाश, छाया और स्वास्थ्य आदि भी प्राप्त होते हैं।
इसीलिए सर्वसाधारण की वस्तु को विशेष रूप से अपनी बनाकर फिर उसी प्रकार उसको सर्वसाधारण की बना देना साहित्य का कार्य है। ऐसा हो जाने पर ज्ञान की वस्तु साहित्य में से स्वयं निकल जाती है, जिसे हम अंग्रेज़ी में ‘ट्रुथ’ कहते हैं, उसी को हम हिन्दी में ‘सत्य’ कहते हैं। बुद्धिगम्य वस्तु का किसी के व्यक्तित्व से कुछ भी सम्बन्ध नहीं होता। सत्य सर्वांश में व्यक्तिनिरपेक्ष और शुभ्र-निरंजन होता है। माध्याकर्षण तत्व का हमारे लिए जो रूप है, दूसरों के लिए भी वही रूप है। उसमें व्यक्तिविशेष के सम्बन्ध से कोई विशेषता उत्पन्न नहीं होती।
जो वस्तुएँ दूसरों के हृदयों में अनुभूत होने के लिए प्रतिभाशाली हृदयों से स्वरों, रंगों और इंगितों में अभिव्यक्त होने का प्रयत्न करती हैं, वे जब तक सृष्ट नहीं होती तब तक हृदयों में प्रतिष्ठालाभ नहीं कर सकतीं—वे ही साहित्य की सामग्री हैं। वे आकार में, प्रकार में, भाव में, भाषा में, स्वरों में, छंदों में प्रकाशित होकर जीवित रहती हैं। वे मनुप्य की एकमात्र अपनी हैं। वे आविष्कार नहीं है, अनुकरण नहीं हैं, सृष्टि हैं। इसलिए उनके एक बार प्रकाशित हो उठने पर, उनको दूसरे रूप या दूसरी अवस्था में परिवर्तित नहीं किया जा सकता। उनके प्रत्येक अंश पर उनकी समग्रता पूर्णरूप से निर्भर करती है। जो वस्तु ऐसी नहीं है उसे हम साहित्य नहीं कह सकते।
'कविता एक नया प्रयास माँगती है' - लीलाधर जगूड़ी