ख़्वाजा अहमद अब्बास से कृश्न चन्दर की बातचीत
‘मुझे कुछ कहना है’ से साभार
कृश्न—अपनी जन्म-तिथि याद है? मेरा मतलब साहित्यिक जन्म-तिथि से है।
अब्बास—यों तो मैं अपने जन्म से बहुत पहले पैदा हो गया था, लेकिन…
कृश्न—जन्म से पहले… कैसे?
अब्बास—मेरा अभिप्राय साहित्य, शिक्षा और संस्कृति के उत्तराधिकार से है, जो मेरे पैदा होने से पहले मेरे यहाँ वर्तमान था। हाली की शायरी में मेरा जन्म हुआ, किताबों और पत्रिकाओं में पला और बढ़ा। तुम मुझे सही मायनों में किताबों का कीड़ा कह सकते हो। ननिहाल हाली का ख़ानदान था। चचा ख़्वाजा ग़ुलाम-उस-सक़लैन वकील राजनीति और साहित्य के रसिया थे। हाली के बेटे ख़्वाजा सज्जाद हुसैन, अलीगढ़ यूनिवर्सिटी के पहले मुस्लिम ग्रेजुएट, मेरे नाना थे। घर की औरतें तहज़ीबे निसवाँ में बाक़ायदा लिखती थीं। इस साहित्यिक उत्तराधिकार को लेकर…
कृश्न—(बात काटकर) लेकिन सब कुछ उत्तराधिकार ही तो नहीं है। आदमी सब कुछ उत्तराधिकार ही से तो नहीं बनता। उसके विकास में बहुत से तत्त्व काम करते हैं। मुझ ही को देख लो, बाप डॉक्टर, किन्तु आर्यसमाजी। लेक्चर झाड़ने के बड़े शौक़ीन। माँ कुँआरपने में कविता किया करती थीं। लोकगीत क़िस्म की चीज़ें हुआ करती थीं वे। मैं जब स्कूल में पढ़ा करता था, उन्होंने मुझे अपने गीतों की एक पाण्डुलिपि दिखायी थी, हो सकता है, उसे उन्होंने अब तक सम्भालकर रखा हो। लेकिन इसके बावजूद हमारे घर का वातावरण बिलकुल साहित्यिक नहीं था। जाने विवाह के बाद मेरी माँ जी को ऐसी किताबों से चिढ़ क्यों हो गई थी, जिन्हें लोग साहित्यिक कहते हैं। मुझे मालूम है, पहली साहित्यिक किताब जो मैंने पढ़ी, वह ‘अलिफ लैला’ थी। माँ जी ने उसे फाड़कर बाहर फेंक दिया। दूसरी किताब प्रेमचन्द की प्रेम पच्चीसी थी। माँ जी ने उससे भी यही सलूक किया। मेरे दोस्तों में भी किसी को पढ़ने-लिखने का शौक़ नहीं था। मुझे स्वयं छुटपन में पहलवानी का बहुत शौक़ था।
अब्बास—पहलवानी का तो नहीं लेकिन दूसरे खेलों का मुझे भी बहुत शौक़ था। फ़ुटबॉल, हॉकी, क्रिकेट, टेनिस—सब खेल मैंने खेले, लेकिन किसी में सफलता न मिली। इस चीज़ का मुझे बहुत मलाल रहा। अर्से तक यह बात दिल में खटकती रही कि मैं एक बड़ा स्पोट्रसमैन बनना चाहता था, लेकिन न बन सका। दरअसल मेरा छोटा क़द और मेरा सन्दिग्ध क़िस्म का स्वास्थ्य (मुझे हमेशा नज़ले की शिकायत रही) मेरे मन में एक तरह का हीन भाव पैदा करने का कारण बने और मैंने सोचा कि अगर मैं खेलों के मैदान में सफल नहीं हो सका, तो मुझे जीवन के किसी दूसरे क्षेत्र में सफलता प्राप्त करनी चाहिए। फिर मैंने देखा कि जो लोग अच्छा बोल लेते हैं, अच्छी बहस कर लेते हैं, उनकी बड़ी आवभगत होती है। स्कूल के वाद-विवादों में, कॉलेज और यूनिवर्सिटी के मुक़ाबलों में मैंने भाषण-कला में बड़ी सफलता पायी। और तुम जानते हो, अच्छा बोलने का अच्छे लिखने से कितना गहरा सम्बन्ध है। यही विचार मुझे साहित्य के मैदान में खींच लाया। कई बार सोचता हूँ, यदि मैं खेलों के मैदान में सफल हो जाता, तो मर्चेंट या मुश्ताक़ की तरह एक सफल खिलाड़ी होता।
कृश्न—और मैं एक मशहूर पहलवान होता… लेकिन मैं इस बात को तुम्हारे या अपने हीन भाव से सम्बद्ध नहीं करूँगा। क़द तो मेरा भी छोटा है और नज़ले की शिकायत मुझे भी सदा रहती है, पर मेरे साहित्य-क्षेत्र में आने का यही एक कारण नहीं हो सकता। मैं इसे यों समझता हूँ कि जब मनुष्य की शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक उन्नति किसी एक दिशा में रुक जाती है और भरसक कोशिश करने पर भी उस दिशा में आगे बढ़ने का उसे कोई रास्ता नहीं मिलता, तो मनुष्य पराजय स्वीकार नहीं करता। वह अपनी उन्नति के दूसरे मार्ग खोज लेता है, क्योंकि विकास मनुष्य की चेतन-प्रकृति का सहज स्वभाव है।
अब्बास—हाँ, इसकी दार्शनिक व्याख्या यों भी हो सकती है।
कृश्न—लेकिन मेरा वह पहला सवाल तो बीच ही में रह गया। तुम साहित्य-क्षेत्र में कब आए?
अब्बास—उन्नीस सौ पैंतीस में। बम्बई में एक कहानी लिखी थी— ‘अबाबील’ और वह जिसे कहते हैं—एक रात में मशहूर हो जाना—बस, यों समझो कि मैं एक कहानी लिखकर मशहूर हो गया। उसका अनुवाद संसार की लगभग सभी सभ्य भाषाओं में हो चुका है। अंग्रेज़ी, रूसी, जर्मन, स्वीडिश, अरबी, चीनी इत्यादि-इत्यादि। जर्मन भाषा में संसार की सर्वश्रेष्ठ कहानियों का एक संकलन छपा है। उसमें वह कहानी शामिल की गई। इसी तरह डॉक्टर मुल्कराज आनन्द और इक़बाल सिंह ने जो संकलन किया है, उसमें भी वह कहानी शामिल है।
कृश्न—उस कहानी का विषय क्या है? माफ़ करना, मैंने उसे नहीं पढ़ा।
अब्बास—वह एक ज़ालिम किसान के जीवन से सम्बन्ध रखती है।
कृश्न—तुम्हें किसानों के जीवन के बारे में क्या मालूम है?
अब्बास—अजीब बात है कि वह कहानी लिखते समय किसानों के बारे में मेरा ज्ञान नहीं के बराबर था। कारण, उनके जीवन-सम्बन्धी मेरा व्यक्तिगत अनुभव बहुत कम था। शून्य ही समझो, इसलिए कि मैं आज तक गाँव में नहीं रहा। किसानों के जीवन से बिलकुल अनभिज्ञ हूँ, परन्तु वह कहानी न केवल राष्ट्रीय दृष्टि से, बल्कि अन्तर्राष्ट्रीय साहित्य की दृष्टि से भी बहुत उच्च कोटि की समझी जाती है।
कृश्न—यह कैसे हो सकता है कि तुम्हें किसानों के जीवन के बारे में कुछ ज्ञान न हो और तुम उनके सम्बन्ध में इतनी अच्छी कहानी लिख सको?
अब्बास—यह तो मैं नहीं कह सकता कि मुझे किसानों के बारे में कुछ भी मालूम न था। व्यक्तिगत रूप से मैंने उन्हें देखा और जाना न था, लेकिन घर के राजनीतिक वाद-विवाद में और बाहर की दुनिया में किसानों की चर्चा अक्सर होती रहती थी। राजनीति और अर्थशास्त्र की पुस्तकें पढ़कर भी उनकी दरिद्रता से परिचित हो चुका था। अलीगढ़ में हर इतवार हम एक ही विचार के कुछ विद्यार्थी सोशल सर्विस के बहाने देहात में पहुँच जाया करते थे और वहाँ किसानों के जीवन का अध्ययन करने का प्रयास करते थे।
कृश्न—तुमने अपने ननिहाल के बारे में तो सुनाया, लेकिन ददिहाल के बारे में कुछ नहीं बताया।
अब्बास—मेरे दादा किसान थे।
कृश्न—देखो, अब ‘अबाबील’ पकड़ी गई! कहाँ जाकर इसने घोंसला बनाया!
अब्बास—अजीब बात है… अब मुझे याद आ रहा है कि मेरे दादा किसान थे। पर वे अपने वंश को आगे बढ़ते, तरक़्क़ी करते हुए देखना चाहते थे। लेकिन खेती में नहीं, व्यापार में। उन दिनों, तुम जानते हो, ख़ासतौर पर मुसलमान व्यापार में बहुत पीछे थे। मेरे दादा ने कपड़े की दुकान खोली, पर उन्हें व्यापार नहीं फला। कुछ ही दिनों में दादा के दोस्त और रिश्तेदार दुकान का सारा कपड़ा उधार ले गए और उन्हें दुकान बन्द कर देनी पड़ी। फिर उन्होंने अपने लड़कों की शिक्षा पर ध्यान दिया। ज़मीन की पैदावार से तो वे अपने बच्चों को पढ़ा नहीं सकते थे, इसलिए उन्होंने ज़मीन का एक-तिहाई टुकड़ा बेचा और अपने एक लड़के को पढ़ाया। फिर दुकान बेची और दूसरे लड़के को पढ़ाया। बेटे पढ़ गए और ज़मीन ख़त्म हो गई। इसलिए जब मेरे दादा मरे, तो मेरे पिता को उत्तराधिकार में एक टुकड़ा भी न मिला।
कृश्न—तो तुम एक बे-ज़मीन किसान के बेटे हो?
अब्बास—हाँ।
कृश्न—इससे यह बात भी प्रकट होती है कि एक अच्छी रचना के लिए यह आवश्यक नहीं कि लेखक का अनुभव प्रत्यक्ष हो। वह प्रत्यक्ष भी हो सकता है और परोक्ष भी।
अब्बास—हाँ। मिसाल के तौर पर एक हत्यारे के चरित्र की रचना के लिए यह आवश्यक नहीं कि लेखक ने स्वयं भी हत्या की हो या एक वेश्या के जीवन का वर्णन करने के लिए यह ज़रूरी नहीं है कि लेखक स्वयं भी किसी वेश्या के साथ सो चुका हो।
कृश्न—तुम कभी सोए हो?
अब्बास—नहीं।… और तुम?
कृश्न—इंटरव्यू मैं कर रहा हूँ कि तुम? मेरे सवाल का जवाब दो, क्यों नहीं सोए?
अब्बास—नहीं सो सका। एक बार कुछ दोस्त घसीटकर मुझे उस महफ़िल में ले भी गए, पर मैं जल्द ही वहाँ से भाग आया। दरअसल कृश्न, बात यह है कि मनुष्य ने अपने सांस्कृतिक प्रयास से यौन-क्रिया को प्रेम के उस ऊँचे स्तर पर पहुँचा दिया है, जहाँ से नीचे गिरना पशु बनने के बराबर है।
कृश्न—तुमने कभी प्रेम किया है?
अब्बास—हाँ।
कृश्न—शादी से पहले या शादी के बाद? डरो नहीं… तुम्हारी बीवी यहाँ मौजूद नहीं, इसलिए साफ़-साफ़ बता सकते हो।
अब्बास—बीवी से मैं डरता नहीं, न मेरी बीवी मुझसे डरती है। हम दोनों एक-दूसरे के बहुत गहरे दोस्त और साथी हैं। वह मेरे सारे भेद जानती है। उसे मेरे उस प्रेम का भी पता है, जो शादी से बहुत पहले की बात है। असल में उस प्रेम की असफलता ने ही मुझसे ‘अबाबील’ के बाद दो और कहानियाँ लिखवायीं— ‘फ़ैसला’ और ‘एक लड़की’। और ये दोनों कहानियाँ रामे-जानाँ के दो विभिन्न पहलुओं का ख़ाका खींचती हैं। ‘फ़ैसला’ में मैं बहुत भावुक हो गया हूँ, लेकिन ‘एक लड़की’ में उस प्रेम को हास्य द्वारा जीतने और उस पर क़ाबू पाने की कोशिश करता हूँ।
कृश्न—यानी ज़िन्दगी प्रेम पर भी हावी है?
अब्बास—कुछ समझ लो। परन्तु मेरा यह प्रेम बड़ा अजीब-सा प्रेम था। वह बेहद हसीन थी। साहित्यिक अभिरुचि रखती थी। हम लोग घण्टों पास बैठे बातें करते रहते। पर तुम विश्वास न करोगे, मैंने उसे कभी हाथ से भी नहीं छुआ। कभी प्रेम का एक शब्द भी मुँह पर नहीं लाया।
कृश्न—यही तुम्हारी सबसे बड़ी भूल थी, प्यारे!
अब्बास—साले… पर उसे मेरे प्रेम का पता था।
कृश्न—फिर शादी क्यों न हो सकी?
अब्बास—शायद उसके ख़ानदानवाले न चाहते थे। और मेरे ख़ानदानवाले तो बहुत ही ख़िलाफ़ थे। लेकिन इस विरोध से भी ज़्यादा दिलचस्प पहलू यह है कि अपने प्रेम की असफलता का बोझ सीने पर लिए हुए जब मैं आख़िरी बार उससे मिलकर घर लौट रहा था, तो रास्ते में मौत के एक अजीब से एहसास ने मुझे घेर लिया। मेरा दम घुटने लगा और मुझे महसूस हुआ कि मैं अभी-अभी रास्ते ही में मर जाऊँगा। लेकिन जब मैं रेलवे स्टेशन पर पहुँचा और लोगों की भीड़-भाड़ देखी, तो स्टेशन की उस चहल-पहल में मेरा वह मूड ख़त्म हो गया। वह भी अपनी उसी प्रेमिका को देखकर। उसकी शादी के आठ-दस वर्ष बाद फिर उससे अचानक मेरी भेंट हो गई तो उससे बिछुड़ते समय फिर बड़ी तीव्रता से मुझे ऐसा लगा मानो मेरा दम घुटा जा रहा है, साँस रुकी जा रही है! या तो मेरा सीना फट जाएगा या हृदय की गति रुक जाएगी। यह अजीब तरह की शारीरिक अनुभूति थी, जो फिर उसके घर से बाज़ार तक आते-आते रास्ते की चहल-पहल में आप-से-आप खो गई। इसी अनुभूति को मैंने एक अप्रकाशित उपन्यास में यों बयान किया है—
“…आख़िरकार वह रो पड़ा और उसके सीने में दुख की सारी घुटन आँसुओं के प्रबल वेग में बदल गई। मस्जिद के विशाल, खुले दालान में खड़े होकर, ऊँचे मीनारों के साए में उसने अपने आपको नितान्त बेबस, अकेला, असहाय और अनदेखे ज़ुल्म देनेवाली उस नियति से भयभीत पाया, जिसे वह अभी-अभी अच्छी तरह कोस चुका था। उसने अपने आँसू पोंछ लिए और थकान से लड़खड़ाता-सा बाहर चला आया और सोचने लगा—क्या प्रेम के बिना जीवित रहा जा सकता है?
पूर्वी द्वार से बाहर निकलते हुए वह कुछ क्षण के लिए ऊँची-ऊँची सीढ़ियों पर खड़ा हो गया। सामने प्राची के क्षितिज पर गुलाब में सोना घुल रहा था। नीचे लोग-बाग काम-काज के लिए बाहर निकल रहे थे। सफ़ेद साड़ियाँ पहने स्त्रियाँ नदी की ओर जा रही थीं। एक ट्राम शोर मचाती हुई आयी और गुज़र गई एक धचके के साथ—जो तुरन्त एक गहरे सन्नाटे में समा गया। उसे लगा कि उसके प्रेम की असफलता के बाद भी दुनिया ख़त्म नहीं हुई है। जीवन उसी तरह चल रहा है। सुबह होती है, लोग काम करते हैं और खेलते हैं। ज़िन्दगी में मौत और मौत में ज़िन्दगी आती है।
और तब उसे याद आया कि ग़ालिब ने जो कुछ कहा था, वह ठीक था। एक गूँज के साथ उसके विचार उसके पास लौट आए। एक ओर सृजन थी और दूसरी ओर मृत्यु। और दोनों के बीच दुख और पीड़ा का एक लम्बा सिलसिला था। लेकिन उस सिलसिले में ज़िन्दगी भी थी। वह ज़िन्दगी, जो उसके सामने एक फूल की तरह स्वच्छ थी। पुरुष और स्त्रियाँ चलती हुईं, बच्चे स्कूल जाते हुए, ट्राम पैसेंजरों से भरी हुई, अख़बार बेचनेवाले लड़के—सुर्ख़ियों पर शोर मचाते हुए… उस क्षण उसके अन्तर में अनजाने से एक नया विश्वास उत्पन्न हो गया… उस क्षण अनजाने वह अपनी उम्र से बड़ा हो गया!…”
कृश्न—यानी ग़मे-जानाँ ग़मे-दौराँ में बदलता ही नहीं है, ग़मे-दौराँ से ग़मे-जानाँ का इलाज भी किया जा सकता है!
अब्बास—हाँ, आन्तरिक सत्य बाह्य सत्य के अधीन है। और इंसान के अन्दर जब प्रेम की असफलता के कारण मर जाने का ख़याल पैदा होता है, उस समय यही बाह्य सत्य उसे जीवित रहने की प्रेरणा देता है।
कृश्न—लेकिन प्रेम-कहानियों के विषय में तुम्हारा क्या ख़याल है? क्या प्रेम-कहानियों का, जिन्हें कुछ लोग भूल से रूमानी कहानियाँ कहकर पुकारते हैं, प्रगतिशील साहित्य में कोई स्थान है?
अब्बास—प्रेम जीवन और सामाजिक यथार्थ का एक आवश्यक अंग है। प्रायः प्रेम की कटुता सारे जीवन को कटु बना देती है। यदि उस कटुता को उचित ढंग से दूर न किया जाए तो कभी-कभी बड़े बुरे परिणाम निकलते हैं। इसलिए उपादेय साहित्य में हमेशा प्रेम-कहानियों की जगह रहेगी। लेकिन मैं ऐसी रूमानी कहानियों को पसन्द नहीं करता, जिनमें रूमान के परदे में पलायन छिपा हुआ हो।
कृश्न—कभी-कभी प्रेम की कटुता जीवन-भर मज़ा देती है।
अब्बास—हाँ, अगर यह तीर तीरे-नीम-कश हो।
कृश्न—और जिगर के पार न हो। इस कटुता की तीव्र भावना की धारा यदि दूसरी ओर मोड़ दी जाए और जीवन पर आक्रमण करने के बदले यह मृत्यु पर बाज़ बनकर झपटे…
अब्बास—तो ठीक है। नहीं तो यह रोग आदमी को ‘फ़ानी’ (उर्दू का एक प्रसिद्ध निराशावादी कवि) बना देता है। मुझे इस पर हंगरी की एक कहानी याद आती है। एक आदमी को बड़ी प्यास लगी थी और यह प्यास किसी तरह न बुझती थी। किसी ने कहा, पानी पी लो। परन्तु प्यासे की प्यास किसी तरह न बुझी। फिर किसी ने एक शर्बत बताया, किन्तु प्यास फिर भी न बुझी। फिर किसी ने कहा, शराब पियो, लेकिन प्यासे की प्यास शराब पीकर भी न बुझी। फिर किसी ने कहा, ख़ून पियो। प्यासे ने एक आदमी को क़त्ल किया और उसका ख़ून पिया। उसकी प्यास अब भी न बुझी। आख़िर जब उसे फाँसी पर चढ़ाया जा रहा था, उस समय फाँसी के तख़्ते पर एकाएक उसे याद आया कि एक बार जब वह बहुत छोटा-सा था और माँ की छाती से लगा दूध पी रहा था, किसी ने उसे ज़ोर से झटककर माँ की छाती से अलग कर लिया था और तब से वह प्यासा था। मानो उसकी जो ख़ूनी प्यास थी, वह अपने प्रथम रूप में माँ के दूध की प्यास थी…
कृश्न—इसी तरह मैं सोचता हूँ कि प्रेम की प्यास भी बड़ी ख़तरनाक हो सकती है।
अब्बास—यदि मैं इन सारे तत्त्वों को इकट्ठा करूँ जिन्होंने मेरी साहित्यिक रुचि को एक रूप दिया, तो मैं उन्हें क्रमानुसार यों रखूगा— 1. घर का साहित्यिक और सांस्कृतिक वातावरण, 2. राष्ट्रप्रेम की भावना, जो सारे देश में राष्ट्रीय आन्दोलन के रूप में उभरी, 3. अस्वास्थ्य और 4. प्रेम में असफलता।
कृश्न—बहुत से साहित्यिकार कम या ज़्यादा इन्हीं रास्तों से साहित्य-क्षेत्र में आए हैं। अच्छा, अब यह बताओ, तुमने प्रेमचन्द को कब पढ़ा था? मैं तो तुम्हें बता चुका हूँ कि मैंने प्रेमचन्द को बचपन में पढ़ा था जब मैं तीसरी क्लास में पढ़ता था…
अब्बास—(बात काटकर) मैंने प्रेमचन्द को बाद में पढ़ा। वास्तव में मैंने प्रेमचन्द को कॉलेज में पढ़ा। लेकिन शुरू-शुरू में प्रेमचन्द की कहानियों का कोई विशेष प्रभाव मुझ पर नहीं पड़ा। हाँ, उनकी कहानियों की अपेक्षा उनके उपन्यासों को मैंने अधिक पसन्द किया था। वह भी बहुत बाद में।
कृश्न—बाद में प्रेमचन्द से तुमने क्या पाया?
अब्बास—बाद में प्रेमचन्द को पढ़कर मुझे ऐसा लगा कि जैसे मैं ज़िन्दगी में पहली बार अपने देहात की जनता से मिल रहा हूँ, इसके साथ ही प्रेमचन्द के उपन्यासों में मुझे अपने देश के राष्ट्रीय आन्दोलन का प्रतिबिम्ब और उसकी सफलता का उज्ज्वल भविष्य दिखायी दिया।
कृश्न—टैगोर से प्रभावित हुए?
अब्बास—नहीं। मैं वास्तव में कवियों की अपेक्षा गद्य-लेखकों से अधिक प्रभावित होता हूँ। मुझे कुछ ऐसा लगता है कि कवियों में आन्तरिकता ज़रूरत से अधिक पायी जाती है, इसलिए मैं टैगोर से अधिक प्रभावित नहीं हो सका।
कृश्न—पश्चिमी लेखकों में किस-किसको चाव से पढ़ा?
अब्बास—हार्डी को, शॉ को, फिर मोपासाँ को—कथाकारों में, ओ. हेनरी और समरसेट मॉम को, जो वास्तव में मोपासाँ ही की छाया हैं।
कृश्न—अमेरिकी लेखकों में?
अब्बास—अमेरिकी लेखकों में ‘डॉस पास्को’ की कला से मैंने सीखा है। स्टाइनबैक और हैमिंग्वे को भी बड़े ध्यान से पढ़ा है, लेकिन विषयवस्तु के विचार से थ्योडार ड्रेगर बहुत अच्छे लगे।
कृश्न—और इटन सिंक्लेयर? मुझे मालूम है। शुरू-शुरू में मुझे इटन सिंक्लेयर बहुत अच्छा लगा था। उसके उपन्यास ‘तेल’ और ‘जंगल’ मुझे विशेष पसन्द आए थे। लेकिन मुझे उसकी नयी पुस्तकें पसन्द नहीं आयीं।
अब्बास—हाँ, अब उसका दृष्टिकोण बहुत बदल गया है और उसका प्रभाव उसकी कला पर, उसके पात्रों पर और उसकी अभिव्यक्ति पर तो पड़ेगा ही। यही बात तुम हैमिंग्वे के बारे में भी कह सकते हो।
कृश्न—रूसी साहित्यिकों में से तुम्हें कौन सबसे अधिक पसन्द है?
अब्बास—चेखव और गोर्की!
कृश्न—और आधुनिक सोवियत लेखकों में?
अब्बास—आधुनिक सोवियत लेखकों में… वास्तव में मैंने नये सोवियत लेखकों को बहुत कम पढ़ा है। और जो पढ़ा है, वह भी मुज्जी (मिसेज़ अब्बास) के उकसाने से, लेकिन मैं नहीं समझता कि नये सोवियत साहित्य में अब कोई भी गोर्की के समान महान है।
कृश्न—शोलोख़ोव के बारे में क्या कहोगे?
अब्बास—शोलोख़ोव कहीं-कहीं बहुत ऊँचा है, लेकिन कहीं-कहीं बेतरह बोर करने लगता है। उसके उपन्यास पढ़ते हुए, कम से कम मुझे ऐसा ही लगा।
कृश्न—गोर्की को हम लोग जो बहुत पसन्द करते हैं, उसका एक कारण यह भी हो सकता है कि गोर्की जिस जीवन का वर्णन करता है, वह क्रान्ति से पहले का जीवन है और वह ज़िन्दगी हमारी अपनी ज़िन्दगी से भी मिलती-जुलती है। लेकिन आज के सोवियत लेखक जिस जीवन के बारे में लिखते हैं, उसकी सतह हमारे जीवन से बहुत ऊँची है। वहाँ ऐसे नये पात्र उत्पन्न हो चुके हैं, जिनके सोचने-समझने, काम करने का ढंग, हमसे बिलकुल अलग है, और जब हम उन इंसानों को सोवियत साहित्य में देखते हैं तो वे हमें एक तरह से अपरिचित मालूम होते हैं।
अब्बास—मैं समझता हूँ कि साहित्य सामाजिक संघर्ष और पीड़ा से उत्पन्न होता है। आज के सोवियत समाज में ये दोनों चीज़ें बहुत कम हो गई हैं। एक सकारात्मक समाज में जहाँ ख़ुशहाली और सम्पन्नता ही सम्पन्नता हो, वहाँ साहित्य में सामाजिक संघर्ष और पीड़ा की ऊँचाई कहाँ से आएगी?
कृश्न—सोवियत समाज के सकारात्मक समाज होने में कोई सन्देह नहीं, लेकिन यह नहीं हो सकता कि वहाँ आज किसी क़िस्म का संघर्ष और दुख शेष न रहे। सकारात्मक समाज होते हुए भी वहाँ नकारात्मक पात्र अवश्य होंगे। स्वयं सोवियत लेखकों में आजकल साहित्य में नेगेटिव पात्रों की ज़रूरत पर बहस छिड़ी हुई है, क्योंकि सोवियत समाज कोई एक अपरिवर्तनशील समाज तो है नहीं। और जब परिवर्तनशील समाज है तो स्पष्ट ही कोई चीज़ पुरानी हो जाएगी और कोई नयी पैदा होगी। और यह संघर्ष अपने आप पॉज़िटिव और नेगेटिव पात्रों को पैदा करेगी। इसलिए तुम्हें अपनी राय के लिए दूसरी दलील ढूँढनी पड़ेगी।
अब्बास—उसकी ज़रूरत नहीं। मैं दरअसल नये सोवियत साहित्य के बारे में कोई पक्की राय नहीं रखता, क्योंकि मैंने उसे बहुत कम पढ़ा है।
कृश्न—तुम्हारे विचार में क्या साहित्य में राजनीति का दख़ल होना चाहिए?
अब्बास—इसके बिना साहित्य का निर्माण असम्भव है। हर चीज़ कहानी का विषय हो सकती है—चाहे वह आर्थिक हो या राजनीतिक, भौगोलिक हो या यौनिक। कहानी का विषय कुछ भी हो सकता है, लेकिन शर्त यह है कि पढ़ने में रोचक हो और इंसानियत से ख़ाली न हो।
कृश्न—और कथानक के बारे में तुम्हारा क्या विचार है?
अब्बास—मैं तकनीक और कथानक के बिना किसी कहानी की कल्पना ही नहीं कर सकता। वास्तव में तकनीक और प्लॉट हर कहानी में होते हैं, लेकिन किसी में गठकर आते हैं और किसी में बड़े भद्दे, ढीले-ढाले और बेडौल मालूम होते हैं। यों समझो कि सामग्री कहानी का शरीर है और तकनीक उसका लिबास : कभी यह लिबास चुस्त और फ़िट मालूम होता है, कभी अनफ़िट और ढीला-ढाला।
कृश्न—तुमने तो कहानीकारों को दर्ज़ी बना दिया। ख़ैर, इसे छोड़ो, क्या कहानी की तकनीक बदल सकती है या यह कि पुराने दर्ज़ियों के सिले हुए कपड़ों की नक़ल करना ही हमारे लिए काफ़ी है? जैसे मोपासाँ, ओ. हेनरी, समरसेट मॉम और दूसरे ऐसे बड़े-बड़े उस्ताद दर्ज़ी, जिनके यहाँ बड़े ढले-ढलाए, लोहा किए हुए, बंधे-बंधाए पात्र मिलते हैं, तकनीक में हमारा आदर्श बने रहें?
अब्बास—तकनीक को बदलना ही चाहिए, क्योंकि तकनीक विषयवस्तु के साथ बदलती है और हमारी आज की कहानियों का विषय ओ. हेनरी और मोपासाँ के विषयों से अलग है। आज की ज़िन्दगी बहुत आगे जा चुकी है।
कृश्न—सामग्री को छोड़ मुझे तो ओ. हेनरी और मोपासाँ की बहुत-सी कहानियाँ बड़ी ज्योमेट्रिक नज़र आती हैं। त्रिकोण का प्रत्येक कोण ठीक है। और दो और दो हमेशा चार होते हैं। मैं समझता हूँ, साहित्य गणित से कहीं भिन्न है। यहाँ कभी दो और दो तीन होते हैं और कभी दो और दो पाँच भी होते हैं। क्योंकि यहाँ हम इकाइयों से बहस नहीं करते, मनुष्यों से सम्बन्ध रखते हैं।
अब्बास—यहाँ मैं तुमसे सहमत हूँ। मुझे स्वयं ओ. हेनरी की अक्सर कहानियों में रेखागणित का आभास अधिक और मानवीय भावनाओं तथा आवश्यकताओं का अनुभव कम होता है। उन लोगों की कहानी की तकनीक हमारी आज की दुनिया में अधिक लाभदायक न होगी। मैंने स्वयं पहले डॉस पास्को और बाद में तुम्हारी कुछ कहानियों के प्रयोगों से साहस पाकर अपनी कहानियों में अनेक तकनीकी प्रयोग किए हैं।
कृश्न—क्या लेखक का अपना चरित्र और उसका मैं तथा उसकी अनुभूतियाँ और विचार साहित्य में स्थान पाने के अधिकारी हैं?
अब्बास—साहित्य साहित्यकार से अलग होकर कैसे पैदा हो सकता है? साहित्य एक साहित्यकार के व्यक्तित्व, उसके विचारों, भावों और अनुभूतियों की सृष्टि होता है और उससे बाहर नहीं जा सकता।
कृश्न—इसलिए स्पष्ट ही उस साहित्य की ज़ोरदार अभिव्यक्ति में, उसके शब्दों के सुन्दर चुनाव में, उसकी कल्पनामयता और प्रवहमानता में उस साहित्यिक का निजत्व झलकेगा। उसके पात्रों के निर्माण और उनके काल्पनिक व्यक्तित्व में उसके अपने व्यक्तित्व, दृष्टिकोण और अनुभूतियों का प्रतिबिम्ब दिखायी देगा।
अब्बास—हाँ, यह अनिवार्य है। पर यह भी ज़रूरी है—ख़ासकर कहानियों और उपन्यासों में कि यह जीवनी की क़िस्म का प्रभाव इतना न बढ़ जाए कि हर साहित्यिक कृति लेखक का जीवनचरित्र मालूम हो। जीवनी को भी साहित्य का दर्जा प्राप्त होता है, किन्तु प्रत्येक साहित्यिक रचना जीवनी नहीं बन सकती। ‘आप बीती’ यदि ‘जग बीती’ भी मालूम हो तो मज़ा बढ़ जाता है।
कृश्न—दूसरे शब्दों में, आप अपनी व्यक्तिगत अनुभूतियों को उस हद तक उपन्यास और कहानियों का विषय बना सकते हैं, जहाँ तक वे सामाजिक यथार्थ के अनुकूल हों।
अब्बास—हाँ! और दूसरी बात यह है कि एक लेखक को अपने पात्रों में अपने आपको व्यक्त करते हुए भी उनसे अलग-थलग रहना चाहिए, जैसे एक डॉक्टर अपने रोगियों से सहानुभूति रखता हुआ भी उनसे अलग रहता है। उसे डॉक्टर रहना चाहिए, स्वयं रोगी न बनना चाहिए, जैसे बहुत से कथाकार अपने साहित्य में व्यक्त यौन-सम्बन्धों में अपनी वासना की भूख मिटाने लगते हैं।
कृश्न—योनि से रचना और रचना से रचयिता याद आया। ख़ुदा के बारे में तुम्हारा क्या विचार है?
अब्बास—ख़ुदा और शैतान के बारे में मेरी कल्पना उस तरह की नहीं है जिस तरह बहुत से लोग सोचते हैं। हाँ, मैं ख़ुदाई और शैतनत, नेकी और बदी, उन्नति और अवनति के सिलसिले में विश्वास रखता हूँ। मेरा मन एक ऐसी नैतिक व्यवस्था को पसन्द करता है जिसमें इंसान, इंसान के लिए सच्ची ख़ुशी लाए।
कृश्न—मगर मैं इंसान की उस कल्पना के बारे में पूछ रहा हूँ, जो ख़ुदा को अकेला (एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति) मानती है यानी एक ऐसी अकेली, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक हस्ती जो इस संस्कृति की व्यवस्था और उसके कार्य-कारण के सिलसिले की उत्तरदायी हो सकती है।
अब्बास—असल में वैज्ञानिक दृष्टिकोण से हमारा ज्ञान इस सारे ब्रह्माण्ड और उसके प्राकृतिक परिवर्तनों के बारे में इतना सीमित है कि अभी ऐसी हस्ती का अन्दाज़ा नहीं किया जा सकता। तुम यों कह सकते हो कि मैं ख़ुदा की हस्ती से इंकार नहीं करता, उसमें सन्देह ज़रूर करता हूँ। बुद्धिवादी हूँ और इंसान ने साइंस के क्षेत्र में खोज करके जो पाया है, उसमें विश्वास रखता हूँ।
कृश्न—और जब तक बुद्धि और विज्ञान और मानव-श्रम ब्रह्माण्ड और प्रकृति के गहरे अध्ययन के बाद किसी नतीजे पर न पहुँचे, हम कोई फ़ैसला नहीं कर सकते।
अब्बास—हाँ, यह सही है।
कृश्न—ख़ुदा से मार्क्सवाद की ओर आना बड़ा अजीब लगता है, लेकिन इसके सिवा कोई चारा ही नहीं है। इसलिए आख़िरी सवाल पूछता हूँ, मार्क्सवाद के बारे में तुम्हारा क्या ख़याल है?
अब्बास—मैं मार्क्सवाद को मूल रूप में ठीक मानता हूँ, लेकिन मैं यह सही नहीं समझता कि मार्क्सवाद में कभी कोई परिवर्तन नहीं आ सकता। आज की परिस्थितियों में, अतीत के प्रकाश में, बुद्धि और मेधा तथा साइंस के प्रयोगों के आधार पर मार्क्सवाद जीवन का उचित दर्शन मालूम होता है। लेकिन यह अन्तिम सच्चाई नहीं है।
कृश्न—अन्तिम सच्चाई का रूप किसी ने नहीं देखा, क्योंकि सच्चाई भी एक सीढ़ी है जो मानव विकास के साथ स्तर-स्तर ऊँची होती जाती है। हाँ, हम यह कह सकते हैं कि आज ज्ञान और विज्ञान के प्रकाश में मार्क्सवाद का दर्शन इंसान को बहुत आगे ले जा सकता है, उसके लिए एक उज्ज्वल भविष्य का निर्माण कर सकता है।
अब्बास—कर सकता है। परन्तु यह भी न भूलना चाहिए कि उस उज्ज्वल भविष्य की ओट में कितने ही उससे बेहतर भविष्य छिपे हुए हैं। मैं मार्क्सवाद पर विश्वास रखता हूँ। लेकिन मैं यह भी समझता हूँ कि यह मानव-इतिहास का अगला क़दम है, आख़िरी क़दम नहीं है।
—कृश्न चन्दर