मुझे नवम्बर की धूप की तरह मत चाहो
कि इसमें डूबो तो तमाज़त में नहा जाओ
और इससे अलग हो तो
ठण्डक को पोर-पोर में उतरता देखो
मुझे सावन के बादल की तरह चाहो
कि उसका साया बहुत गहरा
नस-नस में प्यास बुझाने वाला
मगर उसका वजूद पल में हवा
पल में पानी का ढेर
मुझे शाम की शफ़क़ की तरह मत चाहो
कि आसमान के क़ुर्मुज़ी रंगों की तरह
मेरे गाल सुर्ख़
मगर लम्हा-भर बाद
हिज्र में नहाकर, रात-सी मैली-मैली
मुझे चलती हवा की तरह मत चाहो
कि जिसके क़याम से दम घुटता है
और जिसकी तेज़-रवी क़दम उखेड़ देती है
मुझे ठहरे पानी की तरह मत चाहो
कि मैं इसमें कँवल बनके नहीं रह सकती हूँ
मुझे बस इतना चाहो
कि मुझमें चाहे जाने की ख़्वाहिश जाग उठे!
किश्वर नाहीद की नज़्म 'हम गुनहगार औरतें'