मैंने दीवार को छुआ—वह दीवार ही रही। मौक़ा
देखकर हिफ़ाज़त करती या रुकावट बनती।
मैंने पेड़ को छुआ—वह पेड़ ही रहा। एक दिन
ठूँठ बन जाने की प्रक्रिया में हरा-भरा लहलहाता।
मैंने आकाश को देखा—वह आकाश ही रहा। एक
समझ में न आने वाला पहेली विस्तार।
मैंने समंदर को देखा—वह समंदर ही रहा। पहली ही
नज़र में आने और डूब जाने का निमंत्रण देता।
मैंने तुम्हें देखा और छुआ—और तुमने मुझे
और सृष्टि का पहला क्षण
दुबारा आकार लेने लगा
हमें कुछ और ही ज़्यादा
‘मैं’ और ‘तुम’ बनाता हुआ।
वेणु गोपाल की कविता 'प्यार का वक़्त'