राजस्थान के धोरों से उठकर
सुदूर दक्षिण गया एक युवा कवि

गर्मी से पकी हुई
उसकी पुश्तों का जेनेटिक्स स्ट्रक्चर साँवला है
साँवली है उसकी मनचली प्रेमिका
रेगिस्तान में मरीचिका-सी, एक साँवली लड़की
जिसके चेहरे के आगे एक लाल चूनर हमेशा उड़ती चलती है
लाल परदे से झाँकता है साँवलापन
रेगिस्तान में दो सूरज उगते हैं

रोज़गार की तलाश में निकला था
अब वह नहीं रह गया बेरोज़गार
उसका कवि त्याग रहा है बेरोज़गारी के बिम्ब
बीड़ी के धुएँ के साथ
कविता यूँ ही करवट लेती है

राजस्थान से लाए हुए बीड़ी के बंडल अब ख़त्म हो गए
चाय के बाद
उसने एक मज़दूर से माँगकर पी केरल की बीड़ी
और दक्षिणी नशे में डूबकर
विचार किया कि तेंदू पत्ते और तम्बाकू
राजस्थान और यहाँ एक जैसे ही आते होंगे क्या
एक जैसा ही होता होगा क्या बीड़ी को बांधने वाला धागा
इसी सोच में जारी रहते हैं कश

कच्ची-पक्की रोटियाँ बनाना सीखते हुए
एक बिहारी बुढ़िया की कुटिया से माँगकर खाया भात
और उसके अकेलेपन पर जी भर रोया
सुदूर दक्षिण में अकेला पड़ गया कवि

वह ख़ुद भी नहीं जानता
बीड़ी और भात के बहाने
वह माँगता है संग-साथ

बहुत गहरे धँसी है, रची-बसी है साँवली लड़की
इसलिए वह दक्षिण की लड़कियों की अपेक्षा
केरल की नदियों, झीलों को चुनता है प्रेमिका
अपने घर-गाँव में उसने कम देखा है पानी

थार की लड़की को
उसके सुतवाँ तन से नहीं जान पाओगे
जो होता है झील के पानी-सा तना हुआ
कवि के मन में साँवली लड़की की स्मृति है
और आँखों के सामने झील
झील और लड़की
दोनों की परतों का विश्लेषण करता
दोनों के अंतस में हलचल की तरंगें भेजता
कान में बाली पहने
धोरों से उठ आया वह साँवला लड़का।

देवेश पथ सारिया
हिन्दी कवि-लेखक एवं अनुवादक। पुरस्कार : भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार (2023) प्रकाशित पुस्तकें— कविता संग्रह : नूह की नाव । कथेतर गद्य : छोटी आँखों की पुतलियों में (ताइवान डायरी)। अनुवाद : हक़ीक़त के बीच दरार; यातना शिविर में साथिनें।