‘अपार ख़ुशी का घराना’ से | Book Excerpt from ‘The Ministry of Utmost Happiness’ in Hindi

क़ब्रिस्तान में वह एक पेड़ की तरह रहती थी। भोर होने पर कौवों को विदा करती और चमगादड़ों का स्वागत करती। शाम को ठीक इसके उलट करती। दो पालियों के बीच उसकी गपशप गिद्धों के प्रेतों से होती जो उसकी ऊँची शाखों पर सायों की तरह पसरे थे। उनके पंजों की नरम पकड़ से उसे ऐसा दर्द महसूस होता जैसे शरीर के किसी अंग को काट देने पर होता है।

उसका ख़याल था कि उन्हें इसका ख़ास मलाल नहीं है कि वे क़िस्से से पूरी तरह बाहर हो गए हैं और उनकी कोई भूमिका नहीं रह गई है।

जब वह पहले-पहल यहाँ आयी थी तो कुछ महीनों तक थोड़ी-बहुत बेरहमी झेलती रही, ठीक जैसे एक पेड़ झेलता है—अपनी जगह से हिले बग़ैर। उसने कभी गर्दन मोड़कर नहीं देखा कि किस बच्चे ने उस पर पत्थर फेंका है या किसने उसकी छाल पर क्या-क्या गालियाँ गोदी हैं। जब लोगों ने उस पर फ़िकरे कसे—बिना सर्कस की जोकर, बिना महल की शहज़ादी—तो उसने इन तमाम चोटों को हवा की तरह अपनी शाखों के बीच से गुज़र जाने दिया और दर्द कम करने के लिए अपने सरसराते पत्तों के संगीत को मरहम की तरह माना।

जब अंधे इमाम ज़ियाउद्दीन—जिन्होंने कभी फ़तहपुरी मस्जिद में नमाज़ की इमामत की थी—उसके दोस्त बने और उससे मिलने आने लगे तो पास-पड़ोस के लोगों ने तय किया कि अब उसे अपने हाल पर छोड़ देना बेहतर है।

बहुत पहले एक आदमी ने, जो अंग्रेज़ी जानता था, उससे कहा था कि अगर उसके नाम को उल्टी तरफ़ से लिखा जाए तो उसका उच्चारण मजनू होगा। उसने कहा था कि अगर अंग्रेज़ी में लैला और मजनू की दास्तान का तर्जुमा किया जाए तो मजनू रोमियो होगा और लैला जूलियट। यह उसे बड़ी मज़ाहिया बात लगी थी। उसने पूछा था, “मतलब कि मैंने उस कहानी की खिचड़ी बना डाली है? और तब क्या होगा जब लोगों को पता चलेगा कि लैला मजनू हो सकती है और रोमी जूली?”

अगली बार जब वह अंग्रेज़ी जानने वाला उससे मिला तो उसने कहा कि उससे ग़लती हो गई थी। अगर उसके नाम को उल्टी तरफ़ से लिखें तो ‘मुजना’ होगा, जो कोई नाम नहीं है और जिसका कोई मतलब नहीं निकलता। इस पर उसने कहा, “क्या फ़र्क़ पड़ता है? मैं सभी कुछ हूँ। मैं रोमी और जूली हूँ, लैला और मजनू हूँ और मुजना भी, क्यों नहीं? किसने कहा कि मेरा नाम अंजुम है? मैं अंजुम नहीं, अंजुमन हूँ। महफ़िल। हरेक की और किसी की नहीं, हर चीज़ की और किसी चीज़ की नहीं। क्या और भी कोई है जिसे आप शामिल करना चाहते हैं? सबको दावत है।”

अंग्रेज़ी जानने वाले ने कहा कि तुमने बहुत होशियारी की बात कही है, मुझे तो ऐसा ख़याल भी न आता। उसने जवाब दिया, “आपकी उर्दू का जो हाल है, उसमें आपको आ भी कैसे सकता है? क्या आप समझते हैं कि अंग्रेज़ी जानने से आदमी ख़ुद-ब-ख़ुद होशियार हो जाता है?”

वह हँस पड़ा। वह उसके हँसने पर हँसी। उन्होंने एक फ़िल्टर सिगरेट जलाकर बारी-बारी से पी। उसने कहा कि विल्स नेवी कट सिगरेट छोटी और पिद्दी होती हैं और जितना उनका दाम है, उतनी अच्छी वे हैं नहीं। जवाब में वह बोली कि वे फ़ोर स्कॉयर या मर्दाना क़िस्म की रेड एंड ह्वाइट सिगरेट से तो बेहतर हैं।

अब उसे उसका नाम याद नहीं था। शायद वह कभी जानती नहीं थी। अंग्रेज़ी जानने वाला बहुत पहले चला गया था, जहाँ भी उसे जाना रहा हो। और वह सरकारी अस्पताल के पिछवाड़े क़ब्रिस्तान में रह रही थी। लोहे की एक गोदरेज अलमारी उसकी साथी थी जिसमें वह अपना संगीत—खरोंच-लगे रिकॉर्ड और टेप, एक पुराना हारमोनियम, कपड़े, ज़ेवर, अपने वालिद की शायरी की किताबें, तस्वीरों के एल्बम और अख़बारी कतरनें रखती थी, जो ख़्वाबगाह की आग में बची रह गई थीं। उसकी चाबी एक काले धागे में मुड़ी हुई चाँदी की खुरचनी के साथ उसके गले में लटकी हुई थी। सोने के लिए उसके पास तार-तार हो चुका एक ईरानी क़ालीन था जिसे वह दिन में अलमारी में बंद कर देती और रात को दो क़ब्रों के बीच फैला देती। (एक निजी मज़ाक़ के तौर पर कहा जाए तो उसने कभी लगातार दो रातें किन्हीं दो क़ब्रों के बीच नहीं काटीं)। वह अब भी सिगरेट पीती थी। अब भी नेवी कट।

एक सुबह जब वह अख़बार पढ़कर सुना रही थी, बूढ़े इमाम ने, जो बिल्कुल भी कान नहीं दे रहे थे, इत्तेफ़ाकन पूछने का दिखावा किया, “क्या यह सच है कि तुम लोगों में हिंदुओं को भी दफ़नाया जाता है? जलाया नहीं जाता?”

उसने आती हुई बला को टालने की कोशिश की, “सच? क्या है सच? आख़िर सच्चाई है क्या?”

अपनी पूछताछ पर डटे इमाम ने मशीनी ढंग से जवाब दिया, “सच ख़ुदा है। ख़ुदा ही सच है।”

ऐसी सूक्तियाँ उन रँगे-पुते ट्रकों के पीछे लिखी रहती थीं जो राजमार्गों पर दहाड़ते हुए गुज़रते थे। उन्होंने अपनी सब्ज़-अंधी आँखों को सिकोड़कर एक सब्ज़-सयानी फुसफुसाहट के साथ कहा, “यह तो बताओ, तुम लोगों के यहाँ जब कोई मरता है तो उसे कहाँ दफ़नाते हैं? मुर्दे को कौन नहलाता है? नमाज़े-जनाज़ा कौन पढ़ाता है?”

अंजुम देर तक कुछ नहीं बोली। फिर वह उनकी तरफ़ झुकी और एक ग़ैर-पेड़नुमा अंदाज़ में फुसफुसायी, “इमाम साहब, जब लोग किसी रंग की बात करते हैं—लाल, नीला, नांरगी—जब वे डूबते सूरज के वक़्त आसमान की रंगत का ज़िक्र करते हैं या रमज़ान के दिनों में चाँद दिखने का—तब आपके ज़हन में क्या आता है?”

इस तरह दोनों एक-दूसरे को गहरे और लगभग क़ातिलाना नश्तर लगाते हुए किसी की धूप-भरी क़ब्र के क़रीब ख़ामोशी और रिसते हुए ज़ख़्मों के साथ अगल-बग़ल बैठे रहे। आख़िर अंजुम ने ख़ामोशी तोड़ी।

“आप मुझे बताओ”, उसने कहा, “इमाम साहब आप हैं, मैं नहीं। बताओ, बूढ़े परिंदे मरने के लिए कहाँ जाते हैं? क्या वे आसमान से पत्थरों की तरह नीचे गिर पड़ते हैं? क्या हम गलियों में उनकी लाशों पर ठोकरें खाते हैं? क्या आपको नहीं लगता कि वह जो परवरदिगार है, जिसने हमें इस धरती पर रख छोड़ा है, उसने हमें ले जाने के लिए भी क़ायदे के इंतज़ाम कर रखे हैं?”

उस रोज़ इमाम की मुलाक़ात आम दिनों से पहले ही ख़त्म हो गई। अंजुम ने उन्हें जाते हुए देखा—ठक-ठक करते, क़ब्रों के बीच से रास्ता बनाते हुए, अपनी नज़र-नुमा छड़ी से इधर-उधर बिखरी शराब की ख़ाली बोतलों और इस्तेमाल की हुई सीरिंजों का संगीत पैदा करते हुए। उसने उन्हें रोका नहीं। वह जानती थी कि वे फिर आएँगे। अकेलेपन का बाहरी तामझाम कितना भी लम्बा-चौड़ा क्यों न हो, वह तुरंत उसे पहचान जाती थी, और उसने भाँप लिया था कि एक अजब तरीक़े से, किसी सतह पर इमाम को उसकी छाँह की उतनी ही ज़रूरत है जितनी उसे इमाम की है। और वह अपने अनुभव से जानती थी कि ज़रूरत एक बड़ा-सा गोदाम है जहाँ ढेर सारी बेरहमी की गुंजाइश रहती है।

ख़्वाबगाह से अंजुम की विदाई ख़ुशगवार नहीं थी, लेकिन वह जानती थी कि वह उसके ख़्वाबों और रहस्यों की अकेली और ऐसी हक़दार नहीं है कि उनके साथ दग़ा की जाए।

अरुंधति रॉय की किताब 'मामूली चीज़ों का देवता' से उद्धरण

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अरुंधति रॉय
जन्म: 24 नवम्बर 1961 बुकर प्राइज़ से सम्मानित प्रसिद्ध भारतीय लेखिका।