‘Utaar Chadaav’, a poem by Pushplata Kashyap
मुझे दुःख है कि मुझे कोई दुःख नहीं है
दुःख का दुःख या भय का भय
मुझे अब आतंकित नहीं करता
लॉन पर कुलाँचे भरते हुए बिल्ली के बच्चों-से
मेरी स्मृतियों के दृश्य
मुझसे बातें करते हैं
कोई उखड़ी हुई चीज़ साबुत नहीं हो सकती
लुढ़कते हुए पत्थर की भाँति वह महज़ गिरना होता है
इस तरह सम्पूर्ण स्वप्न ही अक्षांश रेखाओं में बँट जाता है
हर जोड़ टूटन को व्यक्त करता है
और उतार-चढ़ाव के सिलसिले
क्षितिज तक फैलते चले जाते हैं
अक्सर वहाँ आसमान साफ़ नहीं होता
आत्म प्रदर्शन की धुन में
धुँध, धुएँ और धूल के आवरण को
फाड़कर वह मात्र टिमटिमाता है
मगर मेरे सामने आशाओं का ज़िन्दा प्रकाशपिण्ड
मुस्कराता है
खिसकते-खिसकते धूप
अहाते से मुझ तक आ जाती है
और मेरी परछाइयाँ मुझसे पीछे रह जाती हैं
बिजली से राख हुए वृक्ष की भाँति
पीड़ाएँ भाग खड़ी होती हैं
मैं एक लम्बे रास्ते के छोर पर
अपने आपको बढ़ती हुई आकृति में
दूरबीन से देखती हूँ
धारावाहिक उपन्यास की भाँति रुक-रुककर
श्वास लेते पड़ाव मुझसे मिलते हैं
मैं हर किश्त को एक मुकम्मल कहानी के
अन्दाज़ में पढ़ती हूँ
हाँ, वह मैं ही हूँ,
मैं अपने आपको पहचानती हूँ
मेरा अंग-अंग विस्तार को ललकारता है।
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