‘Woh’, a poem by Shahbaz Rizvi

वो समुन्दर की शोख़ मौजे हैं
जो गुज़र जाये गर कभी छू कर
दिल के सब दाग़ धुल से जाते हैं

बा’ज़ औकात इतनी चंचल है
जैसे बच्ची कोई भरे घर में
दौड़ती फिरती हो नदी की तरह

उसके आरिज़ पे गहरे गड्ढे हैं
जैसे दरिया में हो भँवर कोई
उसमें उतरे तो डूबने वाला
ज़िन्दगी को भी छू के लौट आये

दोस्ती उसकी ठीक ऐसी है
जैसे मजनूँ को दश्त-ओ-सहरा में
और दीवाना कोई मिल जाये

मेरा होना कहाँ ज़रूरी है
उसकी मौजूदगी बताती है!

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