अपनी छोटी-सी थैली में
बहुत सारी चीज़ों को जबरन घुसाती माँ ने
रोते-रोते मुझे गले लगाकर कह ही दिया –
“बेटा! अब कुछ नहीं बचा इस घर में
इस घर को निगल गयी
तुम्हारे बाप की वो दूसरी औरत…”
और
अपने पल्लू से आँसू पोंछती बिलग गयी मुझसे।
पिछले माह, माँ की ग़ैरहाज़िरी में
मैंने देखा था उस दूसरी औरत को
बापू के कमरे से निकलते
माँ से बिल्कुल अलग
चमचमाता लिबास
काजल भरे नयन
पैरों से आवाज़ करती पायल
संगीत संग रखती कदम
अपने बालों में फूलों से सजा महकता गजरा
माँग में बहुत सारा कुमकुम
बड़ी सुन्दर-सी हँसी चेहरे पर रख
बाहर खड़े रिक्शा में निकल पड़ी थी।
न जाने माँ का प्रेम था
या बेटे का दायित्व
मुझे ले गया उसके पीछे
गाँव से थोड़ी दूर
छोटी गली में,
एक पुराने मकान के सामने जाते ही
दो नंगे बच्चों को जकड़कर
अपने संग लायी मिठाई का डिब्बा खोल
उनकी बहती नाक को पोंछकर
खिलाती रही सड़क पर,
उसके अंदर जाते ही मैं
दरवाज़े से देखता रहा उसे
एक बेबस बुढ़िया को
अपने साथ लायी कुछ दवाइयाँ देते हुए,
अपने पहलू में दबे नोट को
दिखाते हुए कह रही थी
अब बच्चों की फीस भी भर देगी वो
बहुत देर तक खूब रोई
अपने बच्चों से लगकर
और बुदबुदाती रही बहुत से दु:ख।
माँ के पहलू में होकर भी
मेरी नज़रों से नहीं हटी
वो दूसरी औरत!