हृदय में पीड़ा और पाँवों में छाले लिए
थका-हारा और निराशा में आकण्ठ डूबा व्यक्ति
बदहवास-सा चौराहे से कटने वाली चारों सड़कों पर झाँकता
वह कोई और नहीं, देश का किसान है।
बीच चौराहे पर प्रेत-सा डोलना नियति है उसकी
चारों सड़कों से उठी धूल के ग़ुबार में घिरा
और सिर से पाँव तक धूल-धूसरित वह
झाड़ता रहता है हर आने जाने वाली गाड़ी का टायर।
चारों तरफ़ के वार झेलता किसान
आँखों में सवालों की बाढ़ लिए पूछता है
किसे सुनाऊँ अपनी ये दारुण-गाथा?
पता पूछती हैं प्रश्नाकुल आँखें
कि कौन है कर्णधार?
किसके हाथों में है देश की ज़िम्मेदारी?
देश के सिस्टम के बीच चकरघिन्नी-सा नाचता वह
सरकारी ऑफ़िस से भेजा जाता है बड़े अफ़सर के पास
और अफ़सर दे देता है ‘जनता के सेवक’ का पता
जनता के सेवक का द्वार मुँह चिढ़ाता है जनता को
सड़क पर फेंक दिया गया किसान झाड़ता है शरीर की धूल
अंगौछे के नाम पर बचे चीथड़े से पोछता है आँखों की कीच
और चक्की के पाटों के बीच फँसे गेहूँ-सा
घूमने लगता है चक्की घूमने की दिशा में,
पिसकर चूर्ण-चूर्ण हो जाने तक के लिए।
और तब हैरान हो उठती है प्रकृति भी
कि रगों में लाल रंग का ख़ून लिए
चीख़ क्यों नहीं पड़ता उसका भोला-भाला पुत्र
क्यों नहीं आन्दोलित हो उठता उसका भी हृदय
आन्दोलनों के इस दौर में!