मेरे पुरखे किसान थे
मैं किसान नहीं हूँ
मेरी देह से
खेत की मिट्टी
की कोई आदिम गन्ध नहीं आती
पर मेरे मन के किसी पवित्र
स्थान पर
सभी पुरखे जड़ जमाए बैठे हैं
उनकी आँख का पानी मेरी आँखों
में बहता है
पूस की शीत में
कुछ पुरखे आसमान से
चल पड़े हैं धरती पर
सूरज की रोशनी चीरते हुए
बढ़ रहे हैं
ईश्वर उनके पीछे चल पड़ा है चुपचाप
हाथों में हल और कुदाल है
चेहरा चमक रहा है
आत्मा की उज्ज्वलता से
सौंप दिए हैं
अपने पवित्र औज़ार उन्हें
जो खड़े हैं सर्द रातों में
हवा के विरुद्ध
नई सुबह के इंतज़ार में
और जो सोए हैं गहरी नींदों में
उनके द्वार पर
रख दिया है दिया
किसानों के रक्त से जलता हुआ
कि जिनकी आत्मा की नदी में मनुष्यता का पानी सूख चुका है
न जिनकी आँख डबडबाती है
न ईमान का कलेजा दरकता है!
शालिनी सिंह की कविता 'स्त्रियों के हिस्से का सुख'