‘Aasan Nahi Hota Prem’, a poem by Vandana Kapil

कब तक तुम जिस्मों से खेलने को
प्रेम समझोगे
कब तक वासना में डूबी
सिसकारियों से स्वयं को
आनन्दित करोगे
किसी के हलक़ से निकलती
अस्फुट चीख़ें तुम्हें कब तक
तुम्हारे पुरुष होने का भ्रम कराएँगी
सुनो
प्रेम करना इतना आसान कहाँ
स्त्री के साथ सोने की ख़्वाहिश नहीं
जागने का हौसला रखना
अपने कानों को कहना
चीख़ों से कहीं ज़्यादा
मौन का आर्तनाद सुनें
और अगर अपनी छाप छोड़नी ही हो तो
स्त्री की देह पर नहीं
उसकी आत्मा पर छोड़ना
आत्मा पर पड़ी छाप अमिट होती है।

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