‘Amar Naam Hai Uska’, a poem by Akshiptika Rattan

अमर नाम था उसका
उसके जिस्म का नाम
वही जिस्म
जो एक दिन सब का
ख़ाक में मिल जाना है
वो उस जिस्म को शृंगार
जिस्म से ठगता

अमर नाम था उसका
जिस में मैंने
ब्रह्माण्ड देखना चाहा
एक शख़्स में
ब्रह्माण्ड की अनुभूति
अमर हो जाने का बोध
वरना
जिस्म से कौन अमर हुआ है
जिस्म से कौन अमर हो सकता है

लेकिन
उस शख़्स को मंज़ूर ना हुआ
जिस्म से ऊपर उठना
वो अपने जिस्म के
अलग-अलग टुकड़े लिए
फिरता है सड़कों पर
अपना जिस्म लिए
जिस्मों का शिकार करने

अमर नाम था उसका
जिसने अपने ही नाम को
संकीर्ण कर दिया
निरर्थक कर दिया
वो अमर जो मरता नहीं
ख़ुद हत्यारा बन गया
सच का, मुहब्बत का
वफ़ा का, यक़ीन का
अमर को दफ़्न कर
वो प्रतीक बना
झूठ का, फ़रेब का
कपट का, बेईमानी का

अपने नाम से ख़ुद
बेवफ़ाई कर
आईने में
अपने जिस्म को निहार
अपनी चमड़ी को चमका
दम्भ से दमकता है

अपने नाम को तुच्छ कर
वो शख़्स
बस एक जिस्म भर रह गया
उसे फ़र्क़ नहीं पड़ा शायद
उसकी वृत्ति यही है शायद
नाम धराने से
अर्थ नहीं रचे जाते
जिस्मों के बस की
बात नहीं ये

लेकिन मुझ में
वो जो संकल्प बसता है
उसमें
भयानक उदासी उमड़ी
सच जब जिस्मों से
तोला जाने लगे
तो उसी ब्रह्माण्ड में
विलाप उठता है
जिस में इंसान ने
अमर होने के
ख़्वाब सृजे हों

वही ब्राह्मण्ड
प्रश्न करता है
अमर होना किसे कहते हैं
वो क्या है
जो अमर हो सकता है
ये वो कठिन क्षण है
जब इंसान ख़ुद से
रू-ब-रू होता है
जब अंतर्मुखी हो
ब्रह्माण्ड से जूझना पड़ता है
जब मुझ में
‘मैं’ नहीं ठहरती

इस क्षण में
जो नहीं मरता
भीतर प्रज्वलित हो उठता है
जिसका कुछ नाम नहीं
जिसका कोई जिस्म नहीं
जो हत्यारा नहीं
जो मिथ्या नहीं
जो निरंतर बहता है
जो हर मण्डल लाँघ
पुनः जीवित हो
प्रबुद्ध हो जाता है
अमर हो जाता है…

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