केदारनाथ अग्रवाल के कविता संग्रह ‘अपूर्वा’ में उनकी 1968 से 1982 तक की कविताओं का संकलन है। इस कविता संग्रह को इसके प्रकाशित वर्ष में ही साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया था। बकौल केदारनाथ अग्रवाल-
“इन कविताओं का स्वर और स्वभाव ऐसा है कि प्रचलित मान्यता के बल पर इन्हें प्रगतिशील रचना होने का सौभाग्य न प्राप्त हो। लोग तो प्रगतिशील कविता में केवल राजनीति की चर्चा मात्र ही चाहते हैं। वे कविताएँ, जो प्रेम से, प्रकृति से, आस-पास के आदमियों से, लोक-जीवन से, सुन्दर दृश्यों से, भू-चित्रों से, यथावत् चल रहे व्यवहारों से और इसी तरह की अनेकरूपताओं से विचरित होती हैं, प्रगतिशील नहीं मानी जातीं। मेरी प्रगतिशीलता में इन तथाकथित वर्जित विषयों का बहिष्कार नहीं है। वह इन विषयों के सन्दर्भ में उपजी हुई प्रगतिशीलता है।”
पढ़िए आम विषयों में बात करतीं वही प्रगतिशील कविताएँ!
गाँव में थाने
गाँव में थाने
और थानों में सिपाही हैं
थानों के जियाये
राज-तंत्र से सिपाही हैं
जनता को मिटाये
मार-तंत्र से सिपाही हैं।
खड़ा पहाड़ चढ़ा मैं
खड़ा पहाड़ चढ़ा मैं
अपने बल पर।
ऊपर पहुँचा
मैं नीचे से चलकर।
पकड़ी ऊँचाई तो आँख उठाई,
कठिनाई अब
नहीं रही कठिनाई।
देखा:
छल-छल पानी
नीचे जाता,
ऊँचाई पर टिका नहीं रह पाता।
जड़ता
झरती है
ऐसे ही नीचे,
चेतन का पौरुष
जब उठता ऊँचे।
वरुण के बदमाश बेटे
गये,
लौटे चार दिन के बाद;
घिरे,
घुमड़े,
भीड़ का मंडल बनाये
कर रहे उत्पात,
दीप्त मंदिर
मारतंडी को छिपाये;
श्यामवर्णी
आसुरी आकाश में
सिक्का जमाये,
वरुण के
बदमाश बेटे
मेघ!
जीने का दुःख
जीने का दुःख
न जीने के सुख से बेहतर है,
इसलिए कि
दुःख में तपा आदमी
आदमी-आदमी के लिए तड़पता है;
सुख से सजा आदमी
आदमी-आदमी के लिए
आदमी नहीं रहता है।
मैंने आँख लड़ाई
मैंने आँख लड़ाई
गगन विराजे राजे रवि से, शौर्य में;
धरती की ममता के बल पर
मैंने ऐसी क्षमता पाई।
मैंने आँख लड़ाई
शेषनाग से, अन्धकार के द्रोह में;
जीवन की प्रभुता के बल पर
मैंने ऐसी दृढ़ता पाई।
मैंने आँख लड़ाई
महाकाल से, मृत्युंजय के मोद में;
अजर अमर कविता के बल पर
मैंने ऐसी विभुता पाई।