बादल होता नाव
उसमें बैठकर मैं घूमता आकाश सागर में
जब मन करता उतरता बूँदों के पैराशूट से
गिरता समाता मुँह खोले बैठी धरा पर
उगता फिर फ़सल बन
दमकता फिर गेंहू की बालियों में सोने-सा
पूरा करता किसी की ज़रूरत
उड़ता फिर किसी दाने में
बुव जाता किसी निर्जन में
बसाता नयी सभ्यता
बहने लगती कोई नदी वहाँ
प्रेम बारिश के धागे का स्वाद पहने
दिखता प्रतिबिम्ब जिसमें आकाश सागर का
और बादल नाव में बैठे मेरे जैसे किसी और का
जिसने बस खोल ही लिया है
कुछ नयी बूँदों का पैराशूट
और निकल पड़ा है नीचे बहती नदी का
गंगजलीय आचमन करने।