1

यहीं-कहीं वृन्दावन की गलियों में
भटकती यहाँ-वहाँ कपला गाय
जिसका दूध आज भी चौर्य होता

संध्याकाल, राधा टीला पर
मोर और तोते ही दिखायी देते थे
उन्हें पकड़ खाया
भूखे बन्दरों ने इन दिनों

रात चलता रहा मंच पर महारास
बदल गए नायक और नायिका
मंगलाचरण, विलाप में बदल गए

“राधे तू बड़भागिनी कौन तपस्या कीन।
तीन लोक तारन तरन सो तोरे आधीन।।”

क्या समझती इस दोहे का अर्थ मैं?

भोग में डूबे भक्तों को
चाट के पत्ते, कुल्हड़ की लस्सी
एवं ब्रजवासी की कचौड़ियाँ ही दिखतीं

राधे के नाम का
छाप, चन्दन, तिलक लगाता
गली-गली घूमता
अधनंगा बालक नहीं दिखा
जिसकी माँ ने उतारे
कल रात अपने देह वस्त्र
एक जनेऊधारी के लिए
भोर में भर लायी
अपने आँचल में
आठ मुठ्ठी तंडुल और दो मुष्टि दाल

यमुना में स्नान कर धोयी
कृष्ण मन्दिर की ड्योढ़ी
बूढ़ी माँ की जर्जर देह को
भिक्षा के लिए
बैठने को उचित स्थान।

2

श्वेत साया मन्द गति से रेंगता कुँज गलियों में
उसके वीरान चेहरे पर दिखायी देता है
अन्तहीन शोक

बिन पादुका के घायल पदतल
ऐड़ी की दरारों जैसी रेखाएँ
मुख पर इंगित हैं

तुम्हारे चरणो में योगी पंथ है
हाय! रे श्वेताम्बरा, तुम बुद्ध
क्यों ना कहलायीं?

कुटुम्ब की उपेक्षाओं ने तुम्हें
शून्य बना दिया
जीवित रहने को खाया एक बेला भात
और पिया यमुना का कालकूट जल

वृक्षों से लिपटकर लेती रही उर्जा
तुम्हें सुनायी देता हृदय तल से
उसका नाद

ख़ुशियों का त्याग तुम्हें योगी बना देता
अनाहत चक्र में तुम बैराग्य का नाद
सुनती हो

तुम्हें कोई मंत्र नहीं दिया गया, तुम्हारी
दीक्षा अधूरी थी अभी

तुम नहीं चाहतीं तुम्हारा हिय बचा रहे
कहाँ से चुना होगा मुक्ति मंत्र

करतल की ध्वनि से गूँजता हैं भजनाश्रम
कण्ठ से गाती हो महामंत्र किर्तन
तभी तो मिलेगी मुमुक्षा तुम्हें

तुम्हारा अतीत दुःखों से गढ़ा गया
उसकी स्मृतियों को
मिटाने के लिए
वृन्दावन के मन्दिरों की चौखट से
अपना कपाल मलती हो

हाथ में दण्ड, भाल पर गौरांग तिलक
गले में तुलसी की माला, भिक्षा का पात्र
तुम्हारी पहचान बना

टाट ओढ़कर बितायी होगी
न जाने कितनी रात्रियाँ
एक कोना आँसुओं से भीगा रहा

तुम्हारा हाथ चैतन्य महाप्रभु ने थामा
सन्यासिनो
तुमने ब्रज में व्यतीत किया जीवन,
फिर तुम कृष्ण सखी क्यूँ न बनीं

उस एक प्रथा के समाप्त होने के बाद
तुम्हारे लिए रचा गया ये नया जीवन

हे! कुलदेवियो, तुम किराए पर
भजन करने को क्यों हो गयीं मजबूर?

देखो ना! तुम्हारे विलाप से दीवारों में
गहरी दरारें पड़ गयी हैं, उन दरारों में उगा है
ब्रह्म-पीपल

देखा है मैंने जब छह बेटों की माँ ने
पसारा अपना आंँचल निधिवन की
गलियों में

‘तब फटा होगा तेरा कलेजा योनी की तरह
और उसमें जन्मा होगा तुझसे वैराग्य’

धरा पर विचरण करने वाली सन्यासिन
मर्कटों ने नहीं लूटे तुम्हारे वस्त्र, नहीं छीना
तेरा भिक्षा का पात्र।

ज्योति शर्मा की अन्य कविताएँ

Book by Jyoti Sharma:

ज्योति शर्मा
ज्योति शर्मा का जन्म वृन्दावन के एक रूढ़िवादी महंत परिवार में हुआ। भीमराव आम्बेडकर यूनिवर्सिटी आगरा से हिन्दी साहित्य में स्नातकोत्तर। ब्रजक्षेत्र के विषय पर उनके लगातार गम्भीर कार्यों के लिए ब्रज संस्कृति शोध संस्थान द्वारा उन्हें ब्रज संस्कृति सम्मान प्रदान किया गया। ज्योति आकाशवाणी से समय-समय पर काव्य पाठ और कथापाठ करती रही हैं। उनकी कविताओं की पहली पुस्तक 'नेपथ्य की नायिका' बोधि प्रकाशन से अतिशीघ्र प्रकाशित हो रही है। ये कविताएँ स्त्री जीवन और विशेष रूप से भारतीय सामान्य स्त्री के जीवन से उठायी गयी हैं। यह कविताएँ स्त्रियों के जीवन और मन पर ईमानदार टिप्पणी हैं। बचपन से वृन्दावन की विधवा स्त्रियों के आसपास रहने से उनके साथ एक गहरा जुड़ाव और अनुभव रहा है। उनसे सुनी हुई उन्हीं के जीवन की यर्थाथवादी कहानियों का संग्रह भी जल्दी ही प्रकाशित होगा।