स्त्री
प्रेम नापने का अगर मापदंड
होता तो स्त्री उसकी इकाई होती
टूटी रातें और बिखरे हुए दिन
को समेटने का जिम्मा, स्त्री के
हिस्से आया
अगल-बग़ल बिखरी इच्छाओं को
अचक से चूल्हे की अग्नि में होम
करती रही स्त्री निरन्तर
वृक्षों से झड़ने के बाद पोखर में
तैरती हैं उसकी मृत कामनाएँ
और जलसमाधि लेते स्त्री के प्रति
जीवन मूल्यों के पिंड उसके अस्तित्व
पर प्रश्न चिह्न हैं!
मलिनशय्या
कुंज गली में एक अँधेरे मकान के
सीलन भरे कमरे में वमन और मूत्र
की तीखी दुर्गंध आ रही
मिट्टी के तेल से बने लुक्के की लौ
दीवार से उखड़े हुए चूने की अजीब
डरावनी आकृति ने अपनी जगह
बना ली
मलिनशय्या पर जर्जर स्त्री देह
उसने हाथ पर गुदवा रखा था
पति का नाम, अपनी अंतिम
यात्रा की प्रतिक्षा में
सिरहाने रखा एक फफूँदी
लगा कुंजा, उसके पीछे
झाँकती राधाकृष्ण की तस्वीर,
साथ रखा एक गोपीचंदन
मुड़ी की पोठली, चार बूँदी के लड्डू
तम्बाकू की डब्बी तकीये के नीचे ऐसे
छुपा ली जैसे साथ लेकर जाएगी
‘राससखी’!