पटरियों पर रोटियाँ हैं
रोटियों पर ख़ून है,
तप रही हैं हड्डियाँ,
अगला महीना जून है।
सभ्यता के जिस शिखर से
चू रहा है रक्त,
आँखें आज हैं आरक्त,
अगणित,
स्वप्न के संघर्ष की गाथा
व्यथा में डूबती-उतरा रही है आज।
कुचलकर जो बढ़ गया है रथ
‘व्यवस्था’ नाम जिसका,
माँगता क्यों वह लहू की धार?
घर पहुँचने की लगी थी आस,
मन में,
उग गयीं सौ फाँस,
कि ‘पटरियाँ चलने की जगह नहीं होतीं’
भरे पेट की भाषा है यह,
भूख की लिपि वह नहीं पहचानती।
कि अब शहर में ठूँठ हैं सारे दरख़्त
जड़ों तक में घुस गयी है आग
जाओ, अपने गाँव को तुम लौट जाओ,
अब न आना भूल कर इस देश
उकचते हैं छद्म सारे भेष।
गिनतियों में अनगिनत तुम लोग
देखो, मौन कुचले जा रहे—
नापते इस देश का आकार
लेकर पाँव से बहती नदी की धार।
पैकेजों की छाँव से तुम दूर
खुरदुरे इन रास्तों पर चल रहे मजबूर,
सान्त्वना तक हाथ में आयी नहीं
किन्तु देखो उड़ रहे हैं आसमानों में विमान।
पूछते हो क्या किया अपराध तुमने
पूछते हो क्या तुम्हारे पाप,
आँख जिनकी मुकुट से ढक-सी गयी है
नहीं दिखते तुम उन्हें हे तात!
माँगते हो रोटियाँ एक-आध,
क्यों नहीं तुम मर गए उन रास्तों पर
क्यों नहीं तुम उड़ गए बन भाप!
बस यही अपराध है
और बस यही है पाप
बस यही है पाप!