1
हॉस्टल के अधिकांश कमरों के बाहर
लटके हुए हैं ताले
लटकते हुए इन तालों में
मैं आने वाला समय देख रहा हूँ
मैं देख रहा हूँ
कमरों के भीतर
अनियन्त्रित धूल की उपस्थिति
मेज़ पर खुली रखीं किताबों के पन्ने
हवा के झोंकों से कभी-कभी फड़फड़ा उठते हैं
उन्हें इंतज़ार है
उन उँगलियों का, जिनके स्पर्श के निशान
तालों पर अब तक जमे हुए हैं…
2
कुछेक लोग बच गए हैं
जो नहीं जा सके घर
लगातार दबाव बनाए रखने के बाद
विश्वविद्यालय प्रशासन ने
किसी तरह मेस चलाए रखा है
मैंने समझा है—
‘दबाव बनाना एक अद्भुत प्रक्रिया है
समस्त आवाम को इस प्रक्रिया का ज्ञान होना चाहिए!’
3
मेरे कमरे के ठीक ऊपर वाले कमरे में
एक युवा छात्र-नेता रहता है
जो आए दिन
मीडिया-डिबेट में शामिल है
इन दिनों प्रवासी मज़दूरों के हक़ में
लगातार बोल रहा है वह
उसकी आवाज़ कॉरिडोर में गूँजती रहती है
भूख और ग़रीबी पर बात करते हुए
उसने कई सवाल दाग़े
लाइव सेशन ख़त्म होने के ठीक बाद
उसने कूकर में
ज़ायकेदार चिकन को पकाना शुरू किया है
जिसकी सीटी ने मेरी उम्मीद पर गहरा आघात किया है।
4
मेरे सामने वाले कमरे में
घर जाने से रह गया लड़का
जिसे मैं पड़ोसी कहकर सम्बोधित करता हूँ
अपनी प्रेमिका से फ़ोन पर बात करते हुए
उसे लगातार समझाने की कोशिश में है कि
कुछ नहीं बदला है उनके दरम्याँ
बस वक़्त बदल गया है
हाँ!
वक़्त सचमुच बदल गया है
लेकिन मुझे उम्मीद है कि
यह वक़्त गले लगाने भर से ठीक हो जाएगा।
5
कभी-कभार
कुछ आवश्यक चीज़ें ख़रीदने
कमरे से बाहर निकलता हूँ
पहचान में न आने वाली
कई रंग-बिरंगी चिड़ियाँ
विश्वविद्यालय परिसर में फुदकती-चहकती हुईं भेंटती हैं
जिनकी भाषा मैं नहीं जानता
इन्हें देखकर
घर लौट रहे मज़दूरों का ख़याल आता है
मैं दुआ करता हूँ—
अपने देस लौट रहे मज़दूरों पर पहचान का संकट न आए।
माँ
मैंने नहीं देखा
माँ को चीख़ते हुए
जैसे मेरे पिता चीख़ते हैं
अलबत्ता मैं चाहता रहा कि कभी ऐसा हो
पिता के ग़ुस्से से वाक़िफ़ था मैं
माँ की नाराज़गी
बर्तनों पर नुमायाँ होती रही
जिसे मैंने बहुत बाद में समझा था…
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