‘Beeti Umr Ki Ladki’, a poem by Adarsh Bhushan
खेत में चहकती हुई चिड़ियों को उड़ाते-उड़ाते,
और बाग़ीचों से आम तोड़कर भागते,
पता नहीं कब मेरा बचपन उन्ही पतली
पगडंडियों पे छूट गया;
पिताजी लड़का चाहते थे
जो उनका उत्तरदायित्व सम्भाल सके,
और बूढ़े कंधों का बोझ कम कर सके
उनकी ढलती आयु में,
लेकिन माँ की गोद में मेरी पहली किलकारी
से ही शायद निराशा हो चुकी थी उनको,
पाँच बरस की उम्र आते-आते
मुझे बोझ मान लिया गया,
और दस बरस के बाद एक बीमार गाय,
जिसको पालना शायद
सामाजिक बहिष्कार से
कम नहीं लगता था पिताजी को,
ककहरा सीखा था मैंने
गाँव के मास्टरजी को पढ़ाते देखकर,
पिताजी को मेरे विद्यालय जाने से बड़ी नाराज़गी थी;
मानों मेरे जन्म के साथ एक संदेश पत्र आया रहा हो,
देवताओं का कि,
पुत्री संतान के रूप में बोझ है,
ख़ैर ग्यारह बरस की उम्र में
इस अयोग्य गाय को एक
खूँटे से बाँध दिया गया,
एक बरस बाद ससुराल शब्द से परिचय
और बर्तनों, कचरों, गालियों और थप्पड़ों
का सौभाग्य प्राप्त हुआ,
मुझसे दोगुनी उम्र रही होगी उसकी,
लेकिन मानवता आधी से भी कम;
तीन बरस बाद बाँझ बुलायी जाने लगी,
और पाँचवें में सौत,
एक और ब्याही गयी,
बोझ मानकर,
लायी गयी दहलीज़ पे उसी घर के,
ईर्ष्या नहीं हुई
किंतु दया आयी,
अपने थप्पड़ों और दलीलों के निशान गिनते हुए
इंसान की औसत आयु के हिसाब से,
अपने पूरे जीवन की एक चौथाई
परिमिति तय करके,
अब ऊब सी होने लगी थी,
दिन पहाड़-सा लगता
और रात कोई बुरा स्वप्न,
दम तोड़ता साहस
और टूटी रीढ़ लेकर एक दिन
एक अनिर्णीत आशा लिए
भाग निकली उस घर से;
समाज से,
उस मनोस्थिति से,
जिसकी परछाईं में,
अपना मृत स्वाभिमान,
निरुत्तर आत्मसम्मान
और अपना सजीव ‘शव’ देखा था।
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