शरणकुमार लिम्बाले की आत्मकथा ‘अक्करमाशी’ से
‘दलित-आत्मकथा’ एक बहुचर्चित साहित्य-विधा है। दलित-कविता तथा समीक्षा के कारण दलित-साहित्य का विकास हुआ, तो दलित-आत्मकथा के कारण यह साहित्य समृद्ध हुआ। पिछले कुछ दशकों से दलित-आत्मकथा ने कुछ साहित्यिक और कुछ असाहित्यिक प्रश्न उपस्थित किए हैं। दलित-आत्मकथा के कारण साहित्यिक अभिरुचि की सम्पूर्ण परम्परा अंतर्मुख हो गई है, इसे कोई भी नकार नहीं सकता।
‘बलुतं’, ‘उपरा’, ‘आठवणीचे पक्षी’, ‘उचल्या’, ‘तराल-अन्तराल’, ‘अक्करमाशी’, ‘मुक्काम पोस्ट देवाचे गोठणे’, ‘मला उध्वस्त व्हायचचं आहे’, ‘माझ्या जन्माची चित्तरकथा’—ये प्रमुख चर्चित आत्मकथाएँ मराठी आत्मकथा के इतिहास में मील का पत्थर साबित हुई हैं। इस नयी विधा ने जो प्रश्न उपस्थित किए हैं, वे भी महत्वपूर्ण हैं।
दलित-आत्मकथा ने पाठकों के मन में भी अनेक प्रश्न उठाए हैं। सभाओं, सम्मेलनों, गोष्ठियों, परिसम्वादों में इन प्रश्नों के उत्तर दिए जाते हैं। इन अवसरों पर उठाए गए प्रश्न तथा दिए गए उत्तर कभी इस विधा का समर्थन करने वाले, कभी सत्य के निकट जाने वाले तो कभी मूल प्रश्न को हाशिए में छोड़ने वाले, तो कभी बड़ी चालाकी से मूल प्रश्नों से बचने की दृष्टि से दिए जाते हैं।
दलित-आत्मकथा पर सबसे बड़ा आरोप यह लगाया जाता है कि इसके लेखकों ने अपने भोगे हुए दुःखों का बाजार सजाया है। इस प्रकार के आरोप के मूल में दलित-आत्मकथाओं की लोकप्रियता और उनके पुरस्कृत हो जाने की घटनाएँ कारणभूत रही हैं। दलित-आत्मकथाएँ लोकप्रिय हुईं तो अपनी अनुभूति की विशिष्टता के कारण। इसी कारण उन्हें प्रकाशक मिले और इसी कारण उनकी बिक्री भी हुई। ‘चौखट के बाहर की ज़िन्दगी’ को ये लेखक मराठी साहित्य में ले आए। लक्ष्मण गायकवाड़ तथा लक्ष्मण माने—इन दो लेखकों की पहली ही पुस्तक को साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला। उन्हें लोकप्रियता मिलने लगी। दूसरी ओर, ज़िन्दगी-भर जो लिखते रहे, उन्हें न लोकप्रियता मिली और न पुरस्कार। इस कारण ऐसे लोग दलित-साहित्य के विरोध में मत-प्रदर्शन करते रहे।
‘मुझे भी दलित-आत्मकथा लिखनी चाहिए’ इस प्रकार सोचने वाला वास्तव में आरक्षण के फ़ायदे उठाने हेतु जाति बदलने वालों में से ही एक होता है। ‘दलित-आत्मकथाएँ विस्फोटक होती हैं,’ ऐसा भी एक आरोप लगाया जाता है। वास्तव में यह विस्फोटकता पाठकों की समझ तथा अनुभव के विश्व पर आधारित होती है। मराठी साहित्य मुझे विशुद्ध मनोरंजन प्रधान लगता है। ठीक इसी प्रकार औरों को दलित-साहित्य अश्लील, ग्राम्य और सनसनीखेज़ लग सकता है। हम दलित-लेखक जब कभी किसी सभा-सम्मेलन हेतु किसी मध्यवर्गीय सवर्ण संयोजक के घर जाते हैं तो वहाँ का वातावरण देख आश्चर्यचकित हो जाते हैं। ठीक उसी प्रकार मध्यवर्गीय चौखट के लोग जब झुग्गियों के जीवन को तथा उस जीवन के प्रतिबिम्ब को साहित्य में देखते हैं तो वे आश्चर्यचकित हो जाते हैं; उसे वे न समझ पाते हैं और न ग्रहण कर पाते हैं।
‘क्या भोगा है’—इस उद्गारवाचक प्रतिक्रिया के मूल में कहीं यह आत्मसंतोष की भावना भी होती है कि ‘हम इनसे कितने सुखी हैं’। यह वास्तविकता है कि अब पुस्तकालयों की अलमारियों में दलित-साहित्य की स्वतन्त्र व्यवस्था करनी पड़ रही है। ‘मैंने इसे पढ़ा है’ कहने के लिए अथवा ‘यह लीक से कुछ अलग है’, इसलिए दलित-साहित्य पढ़ा जा रहा है। कौन क्या पढ़े, कैसे पढ़े, क्यों पढ़े—इसके सम्बन्ध में मैं कुछ कहना नहीं चाहता। ‘ये आत्मकथाएँ मध्यवर्गीय पाठकों को सम्मुख रखकर लिखी गई हैं,’ ऐसा भी एक आरोप लगाया जाता है। वास्तव में लिखते समय आत्मकथा-लेखक के सम्मुख कुछ भी नहीं होता। होती हैं केवल स्मृतियाँ। इन स्मृतियों को शब्दबद्ध करने का कार्य वह करता रहता है।
‘दलित-आत्मकथा’ मध्यवर्गीय पाठक पढ़ते रहते हैं, यह सही है। जिनके लिए लिखा जाता है, वे पढ़ते नहीं, यह अर्धसत्य है। कारण, जिनके लिए लिखा जाता है वह समाज आज भी अशिक्षित है। उन्हें शिक्षा से वंचित रखा गया है। वे पढ़ कैसे सकेंगे?
मध्यवर्गीय पाठकों को ही इसे पढ़ना चाहिए। तभी उन्हें दलितों के प्रश्न समझ में आएँगे। हमारी यातना, वेदना और व्यथा से समाज जुड़ जाए, इसीलिए तो हम लिख रहे हैं। हम इस साहित्य की ओर नवजागरण के माध्यम के रूप में ही देखते हैं।
इसका एक दूसरा पहलू भी है। दलित-पाठकों को दलित-आत्मकथाएँ कभी आकर्षित नहीं कर सकतीं। ‘ये लेखक हमारे समाज को खुलेआम नंगा करते जा रहे हैं’—ऐसा दलित-समाज का आरोप है और मध्यवर्गीय पाठकों को ये आत्मकथाएँ विस्फोटक लगती हैं।
इन आत्मकथाओं के कारण हमारे समाज की बेइज़्ज़ती हो रही है, ऐसा दलित-पाठकों को क्यों लगता है? इस मानसिकता के कौन से कारण हो सकते हैं? किसी स्त्री पर अगर बलात्कार हो तो उसे वह कहना नहीं चाहिए, क्योंकि इससे उसकी इज़्ज़त जाती है; उस बलात्कार को, अन्याय और अत्याचार को उसे चुपचाप सह लेना चाहिए—ऐसी ही यह मानसिकता है। आरक्षण के कारण जिन्हें नौकरी प्राप्त हुई है, वे दलित अपना भूतकाल निर्भयता से कहना नहीं चाहते। यह ग़लत है। अपने भूतकाल को निर्भयता से कहने की ज़रूरत है। गुलाम-परम्परा की चर्चा होनी ही चाहिए।
‘बलुतं’ (अछूत), ‘उपरा’ (उपरा) और ‘उचल्या’ (उठाईगीर)—इन पुस्तकों को लोकप्रियता मिली और पैसा भी मिला है। अन्य चार-पाँच कृतियाँ चर्चित रही हैं। इसके अलावा और भी कई आत्मकथाएँ हैं; उनके नाम तक पाठकों को मालूम नहीं हैं। ‘बलुतं’ और ‘उपरा’ को फ़ोर्ड फ़ाउंडेशन के पुरस्कार मिले तो ‘उपरा’ और ‘उचल्या’ को साहित्य अकादमी ने पुरस्कृत किया। इसी कारण अनेक पाठक विचलित हो गए। किसी अच्छी कलाकृति का सम्मान होना क्या ग़लत है? आर्थिक फ़ायदों से परे जाकर हम पुरस्कारों की ओर क्यों नहीं देखते? ऐसा ही सम्मान सवर्ण-मराठी लेखकों को मिल जाए तो कोई चर्चा नहीं होती। दलित-लेखक पुरस्कृत हुआ नहीं अथवा उसे काफ़ी पैसा मिला कि टीका-टिप्पणी शुरू हो जाती है।
‘फ़ोर्ड फ़ाउंडेशन की शिष्यवृत्ति अमेरिका से दी जाती है, मतलब दलित-लेखक अमेरिका के हाथों बिक गया।’ ‘पुरस्कार देकर दलित-लेखक को ख़त्म करने की मुहिम शुरू हो गई है।’ ‘ब्राह्मणी सौंदर्यशास्त्र के निकर्ष पर दिया गया पुरस्कार क्यों स्वीकार किया जाए?’ ‘पढ़ने वालों की अपेक्षा लिखने वालों को अधिक सजग होना चाहिए। जिन्होंने आन्दोलन चलाए, आन्दोलनों के लिए लिखा, आम्बेडकर तथा फुले जिनके आदर्श रहे हैं, ऐसे प्रतिबद्ध व्यक्ति भी बिक जाते हैं।’—मध्यवर्गीय पाठक की ये शंकाएँ हैं। पुरस्कार की राशि सरकार की अर्थात् जनता की होती है। पुरस्कार देकर कोई किसी पर उपकार नहीं करता। दलित-लेखक कभी पुरस्कार माँगने नहीं जाता। उसे वह मिल जाता है। साहित्य अकादमी के पुरस्कार की सूचना ‘उठाईगीर’ के लेखक लक्ष्मण गायकवाड़ को दूसरे दिन मिली। साहित्य अकादमी आख़िर है क्या, यह तक उन्हें मालूम नहीं था।
दलित-साहित्य को कभी ‘गटर-साहित्य’ कहा जाता था। अलबत्ता आज इसका सम्मान हो रहा है। पाठकों की रुचि बदलती जा रही है।
‘दलित-साहित्य पर ब्राह्मणी साहित्य का प्रभाव है,’—ऐसी टिप्पणी होती है। कुछ आत्मकथाओं में मध्यवर्गीय भाषा, बिम्ब, प्रतीक आए हैं। ‘आठवणीचे पक्षी’ (यादों के पंछी) की सहजता ‘बलुतं’ (अछूत) में नहीं है। ‘उचल्या’ (उठाईगीर) की उज्जड़ भाषा ‘उपरा’ (उपरा) में नहीं है। ‘अक्करमाशी’ में ठोस यथार्थ की अपेक्षा काव्यात्मकता अधिक है। समकालीन साहित्य का प्रभाव प्रत्येक कलाकृति पर कम-अधिक मात्रा में होगा ही। उसके परिणाम पर विचार होना चाहिए, प्रभाव पर नहीं। दलित-साहित्य समकालीन मराठी साहित्य का अगर अनुकरण होता, तो इसकी इतनी चर्चा सम्भव ही नहीं थी। भाषा विधाधर्मिता अथवा बिम्ब और प्रतीक समकालीन या पारम्परिक मराठी साहित्य से लिए गए हैं, इसलिए दलित-साहित्य पर मध्यवर्गीय सम्वेदनाओं का प्रभाव है—ऐसा कहना अनुचित होगा।
यह भी अपने आप में एक सच है कि दलित-लेखक केवल अपनी बोली में ही लिखता है। उसकी यह बोली पाठक समझ नहीं पाता। पाठकों की समझ को लेकर लेखक को सोचना तो पड़ता ही है। इस कारण मानक भाषा स्वीकारनी पड़ती है। कुछ आत्मकथाकारों ने कुछ प्रसंगों में अधिक रंग भरा है। तड़क-भड़क भरी है। उनकी आत्मकथा अधिक चर्चित हो, इस हेतु उत्तेजित करने वाले कुछ प्रसंगों की योजना उन्होंने जान-बूझकर की है। कुछ वर्णनों का अनावश्यक विस्तार भी किया है। इस कारण दलित-आत्मकथाओं की विशेष ‘मुद्रा’ का एहसास भी होता है।
कुछ आत्मकथाओं के कुछ अतिरंजित प्रसंगों के कारण सभी आत्मकथाएँ झूठी हैं—ऐसा निष्कर्ष निकालना ग़लत ही नहीं, असंगत भी है। आत्मकथा में सत्य का ही उद्घाटन होता है; परन्तु इस सत्य की अभिव्यक्ति के लिए असत्य का आधार ग्रहण करना पड़ता है। आत्मकथाओं में आए विविध व्यक्तियों, स्थानों, गाँवों के नाम काल्पनिक ही होते हैं। होने भी चाहिए। मराठी की अन्य आत्मकथाओं की तुलना में दलित-आत्मकथाओं में अभिव्यक्त यथार्थ जीवन अधिक भयावह और अमानवीय रहा है। अच्छे प्रसंगों से सम्बन्धित व्यक्तियों के सही नाम दिए जा सकते हैं परन्तु अमानवीयता और यातना देने वालों के नाम दिए नहीं जा सकते। ‘बलुतं’ (अछूत) की सलमा तथा ‘अक्करमाशी’ की शेवंता—दोनों यथार्थ होते हुए भी इनके नाम काल्पनिक हैं।
आत्मकथा का अर्थ जो जीवन जीया है, भोगा है और देखा है, इतने तक ही सीमित नहीं है; अपितु जो जीवन यादों में समाया हुआ है, वही आत्मकथा है। ये यादें सच्ची घटनाओं से जुड़ी रहती हैं। काग़ज़ पर शब्दों का रूप लेकर ये यादें प्रतिभा के पैरों से चली आती हैं।
इसी कारण ‘बलुतं’ प्रकाशित होने के बाद दया पवार को, ‘उपरा’ के कारण लक्ष्मण माने को तथा ‘उचल्या’ के कारण लक्ष्मण गायकवाड़ को कई प्रकार की परेशानियाँ उठानी पड़ीं। लक्ष्मण गायकवाड़ एक दिन मुझसे कह रहे थे, ‘शरण, एक लाख रुपए बहुत महँगे पड़े। एक-एक रुपये में एक-एक गाली पड़ी।’
‘लाख रुपये मिले, इसलिए समाज चिल्ला रहा है; परन्तु इस एक लाख में हमारी भी साझेदारी है।’ ऐसा कहकर लक्ष्मण गायकवाड़ के भाई ने न्यायालय में अर्जी दी थी। ‘इस आत्मकथा में हमारा उल्लेख है, इसलिए हमें भी पैसे मिलने चाहिए।’ दया पवार को भी ऐसी ही तकलीफ़ हुई है। ‘दलित-लेखक बंगले में रहता है, उसकी प्रतिबद्धता समाप्त हो गई है,’—ऐसी चिल्लाहट भी होती है। सभी दलित-लेखक बंगले में नहीं रहते। मेरे सन्दर्भ में बात हो तो मैं आज भी किराये के मकान में रहता हूँ। मेरा अपना ख़ुद का मकान नहीं है। जिन लेखकों को बढ़िया मकान मिले हैं, उन मकानों में वे रहेंगे, बढ़िया कपड़े पहनेंगे; परन्तु इसकी भी चर्चा हो, यह आश्चर्य है। दलित-लेखक ज़िन्दगी-भर झोंपड़ी में ही रहें, यह कैसा दुराग्रह?
‘आत्मकथा-लेखन के बाद दलित-लेखक रुक जाता है’—यह बिलकुल ग़लत आरोप है। एक-दो अपवाद छोड़ दें तो प्रत्येक दलित-लेखक के नाम पर कम-से-कम तीन पुस्तकें मिलती हैं। कुछ की पुस्तकों की संख्या पंद्रह के ऊपर गई है। असलियत यह है कि उसकी आत्मकथा ही अधिक चर्चित हो जाती है, इस कारण पाठक केवल उसी कृति से परिचित होता है। उस लेखक की अन्य पुस्तकें पढ़ने के चक्कर में वह पड़ता नहीं। सभी लेखकों की सभी पुस्तकें उत्कृष्ट नहीं होतीं, एक-दो पुस्तकें ही उत्कृष्ट होती हैं।
‘दलित-लेखक सतत लिखते रहें’ का आग्रह वास्तव में दलित-लेखक को रोबोट (यंत्र-मानव) समझने का हास्यास्पद प्रकार है। प्रत्येक लेखक को अपनी दो अभिव्यक्तियों के बीच अंतराल रखना ही पड़ता है।
‘दलित-लेखक आन्दोलन से हट गया है,’—ऐसा भी एक आरोप लगाया जाता है। दलित-साहित्य वास्तव में सामाजिक आन्दोलन का एक हिस्सा है। दलित-लेखक एक कार्यकर्ता भी है। वह साहित्य के माध्यम से समस्याओं को प्रस्तुत करते जाता है। अलावा इसके वह कहीं-न-कहीं सरकारी सेवा में भी होता है। इस कारण भी उसकी अपनी मर्यादाएँ होती हैं। सभी स्तरों पर एक ही व्यक्ति को लड़ना चाहिए—ऐसा आग्रह क्यों?
पुरस्कार के कारण लेखक को कुछ रुपये मिल जाते हैं, सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त हो जाती है। इसके अलावा समाचार-पत्रों तथा पत्रिकाओं में उसके उठाए गए प्रश्नों की जो चर्चा होती है, वह बहुत महत्त्व की होती है। ‘उचल्या’ को अगर अकादमी पुरस्कार नहीं मिलता तो उसमें उठाए गए उचक्कों के जीवन से सम्बन्धित प्रश्नों की चर्चा कदापि न हुई होती।