‘कविता एक निर्णय है’

किताब समीक्षा: पूनम सिन्हा
किताब: ‘प्रत्यंचा’ (कविता संग्रह)
कवयित्री: पंखुरी सिन्हा
प्रकाशन: बोधि प्रकाशन

“कविता न होगी साहस न होगा
एक और ही युग होगा जिसमें ताक़त ही ताक़त होगी
और चीख़ न होगी।”

— रघुवीर सहाय

पंखुरी सिन्हा की कविताओं में आभ्यन्तरिक रूप में यह चीख़ सुनायी देती है। इन कविताओं की प्रश्नवाचक भंगिमाएँ भी उल्लेखनीय हैं। किसी भी काल में प्रश्न पूछना ख़तरे से ख़ाली नहीं रहा है। मनुष्य विरोधी ताक़त के ख़िलाफ़ प्रश्नवाची मुद्राएँ साहस का प्रतीक हैं। पंखुरी सिन्हा के ‘प्रत्यंचा’ शीर्षक काव्य संकलन में यह साहस आद्यन्त दिखता है। यह कवयित्री का तीसरा काव्य संकलन है। पंखुरी सिन्हा कहानीकार के रूप में भी चर्चित हैं। उनका दूसरा कहानी-संग्रह ‘किस्सा-ए-कोहिनूर’ ने पाठकों का ध्यान विशेष रूप से आकर्षित किया है। पंखुरी सिन्हा इतिहास की छात्रा रही हैं, साथ ही पत्रकारिता की पढ़ाई भी इन्होंने की है। ज़ाहिर सी बात है कि इनकी रचनाओं में इनकी इतिहास-दृष्टि भी परिलक्षित है। पंखुरी देश-दुनिया की घटनाओं के प्रति एक सजग विश्लेषणात्मक दृष्टि भी रखती हैं। पाश्चात्य देशों के प्रवास ने इन्हें साहित्य-चिन्तन की वैश्विक दृष्टि प्रदान की है, साथ ही स्थितियों को तुलनात्मक रूप में देखने की समझ भी।

फ़िलहाल, इनके अद्यतन काव्य-संग्रह ‘प्रत्यंचा’ पर विमर्श अभिप्रेत है। महत्त्वपूर्ण कवयित्री सविता सिंह द्वारा लिखित ‘प्रत्यंचा’ की भूमिका भी पैने विमर्श के कारण पठनीय है। तिरहुत अंचल के ही एक बड़े कवि रामइक़बाल सिंह राकेश का महत्त्वपूर्ण काव्य संग्रह ‘गांडीव’ है। इसी अंचल की पंखुरी सिन्हा के काव्य संग्रह ‘प्रत्यंचा’ पर विमर्श करते हुए ‘गांडीव’ का स्मरण होना स्वाभाविक है। कवि-व्यक्तित्व के निर्माण में कई कालखण्डों, व्यक्तित्वों का योगदान होता है। पंखुरी सिन्हा ने यह पुस्तक अपने नानाजी कवि रामजीवन शर्मा जीवन को समर्पित की है। कवि रूप में रामजीवन शर्मा जीवन की जितनी चर्चा होनी चाहिए थी, नहीं हुई। पंखुरी की प्राध्यापिका माँ भी हिन्दी कविता की गम्भीर अध्येता रही हैं। पंखुरी के कवि-व्यक्तित्व की निर्मिति में इन पूर्वजों की आभा ने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अपना प्रभाव निश्चित रूप से डाला है। न्यूयार्क एवं कनाडा के प्रवास ने इनके अनुभव के दायरे को विस्तार दिया है।

“दायरे के विस्तार के साथ कवि-कर्म की जटिलता भी बढ़ती जाती है। इस आत्म-संघर्ष में नये-नये अनुभव होते हैं; नयी स्थितियों से साक्षात्कार होता है। अनुभूतियों के दायरे बदलते हैं, दायरे बनते हैं, टूटते हैं और फिर तोड़े जाते हैं। ये सब नवीन भाव-बोध के ही विविध पहलू हैं।”

(नामवर सिंह, विवेक के रंग, पृ०-139)

‘प्रत्यंचा’ में प्रकृति, प्रेम, पर्यावरण, प्रवासी, प्रतिवेश, पूर्वज, ग्रह-नक्षत्र, समस्त चराचर एवं मुख्य रूप से स्त्री पर केन्द्रित कविताएँ हैं। एक कविता में कई-कई चित्र एवं बिम्ब! कई कविताओं में एक भावधारा के साथ अचानक विपरीत भावधाराओं का प्रवाह! लगता है कवयित्री के अवचेतन में कई सारे अनुभव, स्मृतियाँ, आख्यान अकुलाते रहते हैं। सब कुछ व्यक्त कर देने की आतुरता इन कविताओं में परिलक्षित है। कवयित्री के लिए कविता-कर्म मात्र साहित्यिक संरचना नहीं है। कविता लिखना यानी स्वयं को, अपने आस-पास को उसमें घटित करना है। आस-पास ज़्यादातर अननुकूल है। अतः कविताओं में प्रश्नवाचकता मुख्य रूप से है। जवाब मिले न मिले, प्रश्न करना तो अनिवार्य है। यह प्रश्नवाचकता प्रतिकूलता के ख़िलाफ़ प्रतिरोध का सूचक है। प्रतिरोध वही कर सकता है जिसके पास साहस है। रचना-कर्म में यह साहस हमेशा से अपरिहार्य रहा है। कविता में जहाँ प्रश्न हैं, वहाँ संशय, दुविधा, अनिश्चय, आक्रोश एवं अस्पष्टता का कोलाज भी है। वैसे नामवर जी की मानें तो “जिस प्रकार ‘वेस्टलैंड’ के बाद अपनी कविता एक दूसरे स्तर पर बचाने के लिए इलियट ने ईसाइयत की आस्था को अपना लिया और अपने ही द्वारा उठाए हुए तमाम सवालों को जहाँ का तहाँ छोड़ दिया, सम्भवतः वैसा ही कार्य ‘तारसप्तक’ के अधिकांश कवियों ने किया।” (कविता की ज़मीन और ज़मीन की कविता, पृ०-150-51)

युवा कवयित्री पंखुरी सिन्हा की काव्य-यात्रा जारी है। अतः उनके संदर्भ में ऐसी कोई भविष्यवाणी अभी नहीं की जा सकती।

पंखुरी की कविताएँ पढ़ते हुए रूस की कवयित्री मरीना स्वेताएवा की कविता-पंक्ति बरबस याद आती है— ‘क्या करूँ अपने असीम का सीमाओं के इस संसार में।’

अभी भी अधिकांश स्त्रियों को अपने निजी संसार की चौहद्दी के बाहरी विस्तार का पता नहीं। ‘ज़िन्दगी की माप तौल और आधुनिक औरत’ में सीमा का यह संसार परिलक्षित होता है। स्त्रियों का साबका ज़्यादातर इन्हीं प्रश्नों से क्यों पड़ता है कि

“कितना काम किया आज आपने घर का
अमूमन कितना करती हैं
कितना घरेलू काम आपके ज़िम्में
कितना घर ख़र्च चलाती हैं आप
कितने का इरादा
कितने की कोशिश?”

(प्रत्यंचा, पृ०-28)

चौखटों और सिन्दूर की डिब्बियों में गुम इन स्त्रियों को झेलते हुए कवयित्री का कहना है—

“अचानक नहीं
कुछ समय से
लग रहा था
इन सबके पास दरअसल
अपनी ज़िन्दगी थी
मेरे पास सिर्फ़ कविता।”

(पृ०-61)

घर के आँगन में ही नहीं मन के आँगन में भी स्त्री की यह घरेलू छवि सदियों से इतनी पुख़्ता हो गयी है कि प्यार को दरकिनार कर कहा जाता है कि

“झूठा है
मेरा आलिंगन
मुझे दरअसल प्यार नहीं उससे
वह आश्वासन है
सारी आरामदेह बातों का
और प्रबंधकर्ता भी…।

(पृ०-31)

प्यार का भ्रम किसी स्त्री के पैरों के नीचे की ज़मीन ही खिसका देता है।

“समुद्र मेरी बाँह पकड़कर
खींच लिए जा रहा था
मेरे पैरों के नीचे की मिट्टी
परे धकेलता।”

(पृ०-33)

समुद्र का ज़िक्र होता है तो मछुआरे भी याद आते हैं। उनका जीवन संघर्ष याद आता है। दो रोटी के जुगाड़ में लगे मछुआरों को मछली मारते हुए समुद्र पर खिंची दो मुल्कों की सरहदी रेखा का ध्यान भी कहाँ रहता है! परिणामतः वे क़ैदी बनते हैं। कभी-कभी जान भी गँवानी पड़ती है—

“जहाँ कहीं समुद्र के सीने पर थी
सरहद
नहाया भी समुद्र
ख़ून में उनके
तब भी जब कोई
तूफ़ान नहीं लेकर आयी थी हवा।”

(पृ०-30)

शांत समुद्र भी मछुआरों के लिए अचानक कब उग्र हो उठता है यह मौसम की चेतावनी के बाद भी कहाँ जान पाता है मछुआरा! और, ले लेता है समुद्र—

“उनकी पूरी बस्ती
उनका पूरा शहर
अपने एक चुम्बन से
अपने आग़ोश में…।”

(पृ०-34)

समुद्र और मछुआरों के बिम्बों से लैस ये कविताएँ पठनीय हैं। कवयित्री की दृष्टि की ज़द में छोटी-छोटी चीज़ों का भी महत्त्वपूर्ण अक्स उभरता है। मसलन—

“आठों टाँगें चलायमान होती हैं। केकड़े की
जाल में, बाल्टी में
फिर टोकड़ी में
वो कहीं नहीं जाते
एक दूसरे पर चलते हैं।”

(पृ०-37)

‘प्रत्यंचा’ की कविताओं में सिर्फ़ विसंगतियों के प्रति आक्रोश के स्वर ही नहीं है, उनमें भुट्टे के पके दानों की ख़ुशबू है, बसंत का स्वागत है, मिट्टी की सुराही, ताम्बे के लोटे हैं, कुएँ का प्रेम और मुल्तानी मिट्टी का लेप है। इन कविताओं को पढ़ते हुए हम अपनी स्मृतियों के उस लोक में पहुँच जाते हैं, जहाँ हम जाना तो चाहते हैं पर जा नहीं पाते। उस भूले-बिसरे लोक की यात्रा कराने का महत्त्वपूर्ण श्रेय कवयित्री को मिलता है।
प्रेम कवियों के लिए पुरातन विषय है। वैसे कविता भी सबसे आदिम साहित्यिक विधा है। कवयित्री प्रेम और प्रेम के भ्रम का अन्तर बख़ूबी समझती हैं—

“किताबें तालों में बंद हैं
चाबी तुम्हारे पास
बंद है शब्दों से
सारी बातचीत
ख़ामोशी का ताला है
चाबी तुम्हारे पास
क्या यह प्रेम है?”

(पृ०-59)

इन पंक्तियों में भाषा की बानगी ध्यातव्य है, विद्रूपताओं की अभिव्यक्ति व्यंग्य के सहारे ही सम्भव है। वह जीवन कैसा होगा जिसमें स्मृतियाँ न हों, प्रेम न हों। जहाँ—

“एक समूची सभ्यता
पगलायी हुई हो
स्मृतियों से निजात पाने में
प्रेम से भी निजात पाने में।”

(पृ०-62)

कवयित्री की चिन्ता है स्मृतियों को बचाने की। प्रेम को बचाने की। प्रकृति और पर्यावरण को बचाने की। वह जीना चाहती है एक पूरा दिन घास के मैदान में हवा को उसकी अकृत्रिम प्रकृति में महसूस करते हुए—

“तय कर लिया है
जिऊँगी एक दिन
हवा को
घास के मैदान में…।”

(पृ०-132)

यह भी कि—

“साँसों से लिपटी सिमटी रातों की लय
अचानक टूट जाए तब भी
खुली हवा में होती हैं तितलियाँ
वो होती रहें
इसलिए, मैं और लगाती हूँ फूल।”

(पृ०-151)

यहाँ याद आती है पंखुरी की ‘बहस पार की लम्बी धूप’ की कविता ‘हज़ार सूर्योवाद वाली आवाज़’। इस कविता में प्रेम को स्मृतियों एवं प्राकृतिक उपादानों के माध्यम से व्यक्त किया गया है। प्यार का समुद्र जब जलकुम्भी से भरा तालाब बन जाए तो उस प्यार को स्मृतियों में ही जिया जा सकता है यथार्थ में नहीं।

“ये जलकुम्भी से भरे तालाब कैसे बन गए
उसके मेरे समुद्र
कहाँ गयीं वो नदियाँ
जो ताज़ा कर जाती थीं हमें
लिए जीवन का सहज प्रवाह
सतत प्रवाह? कहाँ गयीं नदियों सी हमारी बातें? जबकि उसकी बातों में थे हज़ार सूर्योदय…।”

(पृ०-93)

मर्म से निकली यह टीस पाठकों के मर्म को छूती हैं।

पंखुरी भावों के आवेग से भरी कवयित्री हैं। कभी-कभी उनकी एक कविता में कई भाव, कई विचार एक साथ घटित दिखते हैं। ये भाव और विचार कभी-कभी एक-दूसरे के बिलकुल विलोम होते हैं। ‘फेसबुक के पन्ने की समसामयिकता में’ कविता में ये बातें लक्षित की जा सकती हैं। एलियट मानते हैं कि “कवि का मस्तिष्क अलग-अलग अनुभवों को निरंतर एक में मिलाता रहता है। इस तरह की समग्रता कवि के प्रेम करने, स्पाइनोजा का अध्ययन करने, टाइपराइटर की आवाज़ सुनने और रसोईघर से आती गंध को सूँघने आदि अनेक चीज़ों से बनती है।”

आलोचक जार्ज विलियम का मानना है कि “यदि सम्मिश्रण सच्चा हो तो कविता का मूल्य उसी अनुपात में बढ़ जाएगा। जिस अनुपात में इसकी सामग्री में वैविध्य पाया जाएगा।”

‘प्रत्यंचा’ संग्रह की ‘बारिश’ के दिन की गोधूली और ‘ड्रैगन नृत्य’ में भी कई भावों का संगुम्फन है। एक जोड़ा कुरूप, भयानक, जंगली गिरगिट के प्रणय-नृत्य का अवलोकन है तो दूसरी तरफ़ अत्यंत प्यारी हमिंगबर्ड-सी नन्हीं चिड़िया का वर्णन है। इस कण्ट्रास्ट के साथ यह एक विलक्षण कविता है। कवयित्री की पर्यवेक्षक दृष्टि की दाद देनी होगी। इस कविता में भाव-भाषा की जुगलबंदी अद्भुत है।

“देखा है मैंने
एक जोड़ा जंगली गिरगिट
के प्रणय नृत्य को
प्रणय युद्ध में बदलकर
वापस उसी नृत्य में बदलते
…आप उसे उतरते-चढ़ते देख सकते थे
सीढ़ियाँ चढ़ने की कुशल चाल सा
था उसका झुरमुट से निकलकर
लचीली मालती पर डोलना
ज़रा-सी दूरी के चुम्बकीय आकर्षण में
बँधा चार पंजों वाला
वह प्रेमी युगल
मदमत्त था बारिश की हवा में
उसके विषैले नाख़ून
जो इंसानी खाल को
खरोंचकर जान ले सकते थे
थाम रहे थे कसकर पत्तों की किनारी
वह बल खा रहा था पलट रहा था
नाच रहा था
उसके भीतर का
ज़हर भी
और और पैदा करने को जहरीले गिरगिट।”

(पृ०-211-212,214)

इस उत्तेजक और भयानक प्रणय-बिम्ब के बाद इस कविता का अंतिमांश प्रकृति के कोमल दृश्य का वितान रचता है—

“भीगे हुए फूल से
शाम का आख़िरी मधुपान कर गयी है
सबसे छोटी हमिंगबर्ड-सी चिड़िया।”

(पृ०-212)

कविता के पूर्वाद्ध में जहाँ विषय के अनुकूल ‘प्रणय युद्ध’, ‘विषैले नाख़ून’, ‘इंसानी खाल’ आदि पदबंध प्रयुक्त है वहीं अंतिमांश में ‘भींगे हुए फूल’, ‘मधुपान’ आदि कोमल पदबंध। साहित्य में वर्णित प्राकृतिक उपादन भी मानवीय सम्वेदनाओं का ही प्रक्षेपण होते हैं। अज्ञेय की मानें तो “इसलिए वस्तु की परीक्षा करते समय कृतिकार के मानस की परीक्षा भी आवश्यक होती है। तो काव्य-विवेचन में विषय का बहुत कम महत्त्व है, वस्तु का ही है, और वस्तु का महत्त्व भी इसलिए है कि वह वस्तु मानवीय है और उसके सहारे हम कृतिकार के मन में पहुँचते हैं और उसकी परख करते हैं कि कैसे वह वस्तु तक पहुँचा, कैसे उसे उसकी सम्वेदना ने ग्रहण किया और कैसे बहुजन-संवेद्य या प्रेषणीय बनाया।”

यहाँ ‘प्रत्यंचा’ संकलन की कविता ‘उनकी क़लम का विषयवस्तु’ उल्लेखनीय है—

“बन जाना कुछ इस तरह
उनकी क़लम का विषयवस्तु
जैसे बिखरी हुई एक अकेली ज़िन्दगी हो आसपास
कि वो बिठा ही देंगे मुझे एक दिन
उन भग्नावशेषों में
जिनका बोलना दरअसल बोलना नहीं होता।”

(पृ०-209)

यहाँ विषयवस्तु के प्रति अमानवीय दृष्टि के प्रतिरोध में एक गहरी मानवीय दृष्टि है। इस कविता का स्वर स्त्री-विमर्श तक सीमित नहीं। इसका सरोकार हाशिये के तमाम लोगों से है। वैसे पंखुरी की कविताओं में स्त्री-विमर्श भी चलताऊ ढंग से सिर्फ़ सैद्धांतिक विमर्श के रूप में नहीं आया है। कहीं कुछ छूता है उसके मर्म को और कविता बन जाती है। और, वह अपनी कविता की ताक़त को पहचानती है। उसके लिए मेंहदी के लगने से भी ज़्यादा रूमानी है हथेली का स्याही से रंग जाना। इस कविता की बदौलत ही तो एक स्त्री अपना प्रतिसंसार रचती है…

“…सबके पास दरअसल
अपनी ज़िन्दगी थी
मेरे पास
सिर्फ़ कविता…।”

(पृ०-61)

इस कविता के कारण उसकी स्वतंत्र इयत्ता है वरना सभी तो

“बहुवचन में ही विलय करेंगे मेरे मैं का…।”

(पृ०-93)

अपनी कविता की दुनिया में वह स्वतंत्र है वरना—

“तुम देखते कहाँ हों
औरत बाँधने से आगे।”

(पृ०-139)

क्या देश क्या विदेश! समूची धरती पर स्त्री पुरुषवादी अहं की शिकार है।

“पति के छोड़ने के निर्णय पर
यूनिवर्सिटी का जवाब आया
आओ ही मत, न शहर तुम्हारा
न देश
जो पति नहीं तो कुछ नहीं
ये कैसा पश्चिम है?”

(पृ०-190)

जीवन की तमाम विसंगतियों एवं विद्रूपताओं के बरक्स कवयित्री आत्मविश्वास से लबरेज़ अपनी इयत्ता का उद्घोष करती है—

“मैं पंखुरी हूँ
मुझमें सृष्टि के
अष्टयाम बजते हैं
मैं अधूरी नहीं, फूल मुझसे बनते हैं।”

(पृ०-218)

यह अकारण तो नहीं कि इस संकलन की अधिकांश कविताओं की अंतिम पंक्ति के आगे डॉट-डॉट या प्रश्नवाचक चिह्न हैं? भावों एवं अनुभूतियों की तुलना में शब्द आज भी अत्यल्प हैं। दूसरी बात कि जहाँ भी अराजकता होगी, विरोध की आवाज़ प्रश्नों के माध्यम से ही फूटेगी।

“विरोध की भाषा सबसे अहम है
निर्धारित करने में
कि कितना सफल होगा विरोध
विजय बाद की बात है…”

(पृ०-54)

पंखुड़ी समझती हैं इसे शिद्दत से। अतः कहती हैं—

“मेरी भाषा की जो खुरदुरी-सी फ़ितरत है। वो रिझाती नहीं तुम्हें।”

(पृ०-72)

हर विरूपता के ख़िलाफ़ कवयित्री की ‘प्रत्यंचा’ तनी हुई है। इस संग्रह में देशज शब्दों की चाशनी में रची-बसी देशज स्मृतियों की कविताओं में मिठास है।

“बड़े चाव और ग़ुरूर के साथ
बिहार के गाँव, शहरों में, सुनाये जाते हैं
दही को गमछे में बाँधकर
लाने ले जाने के क़िस्से
लड़कियों की शादियों पर
भेजने, भिजवाने के क़िस्से।”

(पृ०-15)

कवयित्री ग्रामीण, नागर एवं पाश्चात्य देशों के अनुभवों से लैस है। इन अनुभवों ने पंखुरी की कविताओं को समृद्ध किया है— वस्तु और रूप, दोनों ही स्तरों पर।

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पोषम पा
सहज हिन्दी, नहीं महज़ हिन्दी...