अनुवाद: शिवदत्ता वावळकर
वह सम्पत को बैठक से बाहर लाया। बैठक में थोड़ी-सी हलचल मची। साँस छोड़कर वह सम्पत के कान में बोला, “तुम्हें क्या लगता है?”
“जो तुझे लगता है वही।”
“तो फिर तुम कुछ बोलते क्यूँ नहीं?”
“अब क्या बोलूँ, तुझे इतना मानते हैं, फिर भी तेरी एक नहीं सुनते। तो मेरी क्या सुनेंगे?”
“बोलकर तो देख।”
“बोल दूँ? तू कहता है तो… लेकिन कुछ ही दिनों में तू यहाँ से चला जाएगा तो मुझे ही भोगना पड़ेगा सब।”
“कुछ नहीं होगा, तू एक बार बोल दे उनसे।”
“ठीक है।”
दोनों फिर बैठक में वापस आए। मण्डली अब तक अपनी ही बात पे अड़ी थी। सम्पत ने बोलने की शुरुआत की।
“अशोकराव का यह प्रस्ताव ग़लत नहीं है। मातंगों को हम सब अछूत मानते हैं, यह ग़लत है। वे तो सब अपने ही भाई हैं। पुराण में भी हमारे भाईचारे की कहानी है, इसलिए इस प्रस्ताव पर हम सबको फिर से सोचना चाहिए।”
“ये पुराण-कथाएँ हमें मत सिखाओ। पहले उन मातंगों को बौद्ध धर्म का अनुपालन करने को कहो।”
बढ़ते हुए शोर के साथ उपस्थित मण्डली का जोश भी बढ़ रहा था। अशोक से रहा नहीं गया और वह बोलने लगा, “मातंगों को बौद्ध धर्म का अनुपालन करना चाहिए, यह बात मुझे भी मंजूर है। परन्तु इसमें वक़्त भी तो लगेगा। वैसे भी यह प्रक्रिया अपने आप ही शुरू है। हाल ही में आप सभी ने समाचार-पत्र में पढ़ा होगा कि पूना के मातंगों ने बौद्ध धर्म को सामुदायिक रूप में स्वीकार किया है। धीरे-धीरे यह सब जगह होगा, लेकिन यह बात ग़लत है कि जब तक वे बौद्ध धर्म को नहीं अपनाते, तब तक उनसे बराबरी का बर्ताव न करें। यह भूमिका बाबासाहेब के दर्शन के ख़िलाफ़ है। वे सिर्फ़ महारों के ही नेता नहीं थे। सब दलितों के थे।”
“तो फिर इन मातंगों ने हमारे आन्दोलन में हिस्सा क्यों नहीं लिया?”
“अब तक वे चुनाव में वोट किसे देते रहे?”
“उन्होंने आज भी मुर्दा माँस खाना क्यों नहीं छोड़ा है?”
सवाल बढ़ रहे थे। हर एक सवाल के साथ अशोक चिंतित हो रहा था। समाजशास्त्रीय विश्लेषण, पैदावार साधनों का अधिकार, बाबासाहेब की वैश्विक भूमिका… उनके सामने यह सब बेकार-सा था। इन बातों के बावजूद भी अशोक असहाय था। फिर भी वह अपनी बातों से हाथ-पाँव हिलाकर समझाने की कोशिश कर रहा था। अशोक ने फिर से कहा, “मुझे तुम्हारी दलीलें मंज़ूर हैं। फिर भी कितने दिन यह सब चलेगा? हम सब इस आन्दोलन के नायक हैं। हमें ही उन सबको साथ लेकर चलना चाहिए।”
“हम कब तैयार नहीं है! वे सब बौद्ध धर्म का अनुपालन करते ही अपने आप बराबरी पर जाएँगे।”
अशोक को बहस में नाममात्र भी दिलचस्पी नहीं रही। वह उठकर अपने घर की ओर चले पड़ा।
माँ चूल्हे के पास बैठकर रोटियाँ बना रही थी। बाप गुदड़ी पर लेटा था। अशोक के ठीक पीछे से उसके चाचा भी वहाँ आए।
“और कितने दिन ठहरोगे?” चाचा ने पूछा।
“क्यों?”
“अरे, आया है तो शान्ति से बैठा कर, उनके विरोध में क्यों जाता है।”
“मैंने कुछ उल्टा-सीधा बोला क्या?”
“नहीं, तू भी सही है। लेकिन…”
“तो फिर हाथ में कंगन बाँधे चुप बैठा रहूँ?”
“यह बात नहीं।”
चाचा-भतीजे की बातें अशोक के बाप ने सुनीं। वे बोल पड़े, “अरे, ओ अशोक, तूने कहीं कुछ झमेला किया क्या?”
“कुछ नहीं, आप गोलियाँ और दवा ले लो।”
“अरे, मेरा क्या है? आज हूँ तो कल नहीं। लेकिन तू कौम के ख़िलाफ़ मत जा।”
“तुम सो जाओ तो अच्छा है।” चाचा अशोक के स्वभाव से वाक़िफ थे। बात बदलने के लिए उन्होंने अशोक से पूछा, “अच्छा बाबा, मेरी ज़मीन का आवेदन-पत्र लिखकर कब दे रहा है तू?”
“सुबह देखेंगे।”
“अच्छा, तू ध्यान में रख।”
चाचा अपने घर गए। अशोक और पिताजी खाने पर बैठे। माँ अशोक की तरफ़ भरी हुई आँखों से देख रही थी। अशोक भी अपने कमज़ोर बाप की तरफ़ हैरानी से देख रहा था। उससे रहा न गया, “दवा ले ली?”
पिताजी चुप ही बैठे रहे।
अशोक ने फिर से कहा, “ऐसा करो, आप मेरे साथ अब मुम्बई चलो।”
“मुम्बई जाकर दोनों कहाँ रहेंगे?”
“मुझे पन्द्रह दिनों में सोसायटी से मकान मिल रहा है।”
“उस वक़्त देखेंगे फिर।”
“माँ, अण्णा, आप बोलते क्यों नहीं?”
“अशोक, अरे, क्या बोलूँ? मेरी छोड़ अब। मकान मिल रहा है तो अब अपनी शादी के बारे में सोच ले।”
“सोच लूँगा।”
खाना खाने के बाद अशोक आँगन में आकर गुदड़ी पर लेटा रहा। उसे नींद नहीं आ रही थी। आज की बैठक में जो हुआ, वह अपने आप में ही पराजय थी। फिर उसे एक बात का सन्तोष भी था कि सिर्फ़ वह था, इसलिए मण्डली ने उसका अपमान नहीं किया, दूसरा कोई होता तो वे उसे कच्चा चबा जाते। पैन्थर का आन्दोलन जब गति में था, तब वह अपने गाँव नहीं आया। उपज़िला के ठिकाने पर एक सभा थी तो यही मण्डली उसे मिलने वहाँ तक गई थी। वह अब आन्दोलन के बारे में सोचने लगा। वैसे वह अन्दर से टूटता गया। विशाल आसमान के समक्ष वह खुद को ओछा देखने लगा।
गाँव आने से पहले उसकी भेंट गाँव के विधायक से मुम्बई के विधायक निवास में हुई थी। उसकी याद ताज़ा हुई। चाय के बाद उसने उन्हें पूछा था, “क्यों पाटीलजी, आपकी पार्टी तो समाजवाद की गपड़चौंथ करती है। आप लोग तो हमें अपने कुएँ पर पानी तक भरने नहीं देते। क्या यही है आपका समाजवाद!”
पाटील ने ठण्डे दिमाग़ और बड़ी सरलता से उसे छेड़ा था, “हमारा रहने दो अशोकराव, आप सभी ने तो क्रान्ति का एलान किया है, लेकिन तुम्हारे बौद्ध लोग मातंगों को अपने कुएँ पर पानी भरने देते हैं? पहले अपने आपको देखो और फिर हमसे बात करो।”
यह घाव लेकर ही अशोक गाँव आया था। पहुँचने पर तुरन्त यह सब मैं ठीक करूँगा, ऐसा दृढ़ विश्वास उसके मन में था। लेकिन यहाँ आने पर वह घाव ज्यादा चुक-चुकाया था। कल श्याम को बौद्ध मन्दिर मीटिंग में यह मुद्दा ज़ोर से उठाने के बारे में सोचते-सोचते उसकी पलकें लग गईं।
“क्यों अशोक, तैयार हुए कि नहीं?”
“हाँ, सब आए क्या?”
“हाँ!”
“कौन-कौन हैं?”
“खूब सारे हैं, उपज़िला बौद्ध सभा के राव साहब भी आए हैं।”
“वह… वही ना, जो इलेक्शन में हारे थे?”
“हाँ वही। तुझे एक बात बताता हूँ। मातंगों को अपने कुएँ पर पानी भरने देने में किसी का भी विरोध नहीं हैं, लेकिन जो भी मुखिया लोग हैं, वे सब राव साहब की पूँछ पकड़े रहते हैं।”
“लेकिन मातंगों से विरोध क्यों?”
“अरे, समझ गया कि नहीं, मातंगों ने वोट नहीं दिए, ऐसा राव साहब का कहना है और ये भी सब उसकी हाँ-में-हाँ मिलाकर मातंगों के ख़िलाफ़…।”
“अरे लेकिन सामाजिक क्षेत्र में ये बातें क्यूँ?”
“वो सब तू ही देख अब।”
“अब किसके गुट में हैं वे?”
“उनका ऐसा नहीं रहता है। गवई, खोब्रागडे, बीसी, कुणबी… सब चलते हैं उसे।”
“अच्छा, चल निकलते हैं।”
वे दोनों जब बैठक के ठिकाने पर पहुँचे, तब कोई स्थानीय आदमी भाषण दे रहा था। अशोक के दिखते ही राव साहब ज़ोर से चिल्लाकर ही बोले, “आओ, आओ अशोक राव” और उन्होंने उसे अपने पास जगह दी। फिर तुरन्त ही राव साहब का भाषण शुरू हुआ-
“बन्धुओं, बाबासाहेब ने ऐलान किया था कि, वे भारत को बुद्धमय करेंगे। लेकिन उनका यह सपना अधूरा रह गया। हम सब बाबासाहेब के सच्चे अनुयायी हैं। हम सभी को उनके सपने को पूर्णता देनी है। उसे साकार करना है। इसकी शुरुआत हम गाँव में बड़ा बौद्ध मन्दिर बनाकर करेंगे। तुम्हारा गाँव भी बड़ा है। हर साल बुद्ध पूनम के दिन बड़ा जुलूस निकालेंगे। बाबासाहेब का दिया हुआ बौद्ध धर्म ऐसे ही हम पूरे जगत में फैलाएँगे…”
राव साहब बोल रहे थे। अशोक का दम घुट रहा था। उसकी आँखों के सामने बौद्ध मन्दिर आया। मन्दिर के आस-पास गाँव-गाँव से आई लोगों की भीड़ दिखने लगी। मन्दिर में ठीक बौद्ध मूरत के सामने ब्राह्मण के अवतार में राव साहब भी दिखने लगे।
…और तालियों की आवाज़ से अशोक ने होश सँभाला। राव साहब का भाषण समाप्त हुआ था।
अब तानाजी राव खड़े हुए और उन्होंने शुरुआत की, “मण्डली, राव साहब का बीज भाषण हो गया है। अब मैं आप सबसे विनती करता हूँ कि जिसने भी अपने-अपने गाँव से मन्दिर के लिए चन्दा जमा किया है, वे सब अपनी रसीद पुस्तिका और चन्दे की रकम जमा करें।”
“अजी, अशोक राव को भी बोलने दो।” …एक आवाज़ उठ गई।
“हाँ… हाँ…” – कई स्वर एक साथ मिल गए।
“अरे हाँ, ठीक है, लेकिन अशोक राव की इच्छा क्या? अशोक राव…?” तानाजी राव ने इशारा किया।
अशोक ने गर्दन हिलाकर हाँ भरी। बैठक में थोड़ी-सी चहल-पहल हुई। एकाएक फिर सन्नाटा छा गया। अशोक बोलने लगा। दूसरे गाँव के लोगों को उसने कल की बहस बता दी। बौद्ध सत्यज्ञान और बाबासाहेब के आन्दोलन का उचित विवरण भी सुनाया। अन्त में वह दृढ़तापूर्वक बोला, “हम सब जब दूसरों से सामाजिक न्याय की अपेक्षा करते हैं, तब हमें भी दूसरों के प्रति ऐसा ही व्यवहार करना चाहिए। हाँ, तो बन्धुओं, किए हुए वादे के मुताबिक़ मुम्बई से अपने ही लोगों से मैं साढ़े तीन हज़ार रुपए लाया हूँ, लेकिन जब तक हम अपने मातंगों को हमारे कुएँ पर पानी भरने की सम्मति नहीं देते, तब तक मैं यह चन्दा आपको नहीं दूँगा। क्योंकि यह बुद्ध और बाबासाहेब के दर्शन के ख़िलाफ़ है। जिस बुद्ध ने समानता के लिए…”
“लेकिन यहाँ, मातंगों का सम्बन्ध कहाँ आता हैं?” रावसाहब बोले।
“आता है। आख़िर वे भी इंसान हैं।”, अशोक ने कहा।
“हम कहाँ नहीं मानते? मुझे एक बात बताओ, तुम बौद्ध धर्म फैलाने जा रहे हो या बिगाड़ने?”
“मतलब?”
“अरे, तुम बौद्ध दर्शन की बात करते हो, तो फिर बताओ की मातंगों ने बौद्ध धर्म का अनुसरण किया है?”
“देखो, आप अगर इसी बात पे अड़े रहे, तो मैं जमा किए चन्दे का एक भी पैसा नहीं दूँगा।”
“मत दो! हम तुम्हारे भरोसे या सहारे नहीं बैठे!” तानाजीराव ने अशोक को चेतावनी दी।
“अशोक राव, ज़रा शान्ति से काम लो। नाराज़ मत हो।” राव साहब बोले।
“मैं शान्ति से ही बोल रहा हूँ। मैं नहीं कहता हूँ कि अभी और इसी वक़्त निर्णय ले लो। दो चार दिन सोचने के लिए समय ले लो।”
“ठीक है मण्डली, अशोकराव के प्रस्ताव पर हम बाद में बहस करेंगे। लेकिन पहले बाक़ी बचे हुए लोग अपनी-अपनी रसीद-बुक और रक़म जमा करें।”
अशोक ने और दो-तीन दिन इन्तज़ार किया। कोई भी हलचल उसे दिखाई न दी। गाँव के बाक़ी लोगों को भी टटोलकर देखा, लेकिन कोई आगे नहीं आ रहा था।
मातंग बस्ती से कुछ नौजवान मात्र अशोक के यहाँ आने-जाने लगे। इस मसले का हल बिना झगड़े और मानसिक बदलाव की प्रक्रिया से ही निकलने में अशोक को सन्तोष था। लेकिन ऐसा हल निकलने के कोई भी चिह्न दिखाई नहीं पड़ रहे थे।
अशोक पेड़ के साये में गड़ता जा रहा था। और तो और एक ज़माने के ‘पैन्थर’ के सबसे महत्वपूर्ण इस नायक को यह साया बहुत भीषण लग रहा था। आन्दोलन में हुई टूट-फूट और सामान्य लोगों पर पड़ता असरहीन प्रभाव… इसके कारण वह अस्वस्थ होने लगा।
स्कूल के दफ़्तर में उपस्थित होना अत्यन्त आवश्यक था, इसलिए साढ़े तीन हज़ार रूपये के साथ उसने गाँव छोड़ दिया।
इस साल हर प्रयास से एल.एल.बी. पास होने के निश्चय से वह पढ़ाई में लगा। आने के बाद दो-तीन दिन तक गाँव की बातों ने उसे बहुत सताया। सम्पत का ख़त पाकर तो उसका माथा ही भड़का था। छुट्टियों में गाँव जाना फिर ज़रूरी हो गया था।
सोसायटी का मकान मिलने पर माँ-बाप को यहाँ लाने का विचार पक्का था। मातंगों के लिए एक बार फिर ज़ोर लगाया जायेगा और भी इसका हल न निकला तो मन्दिर के रुपये राव साहव को सौंपकर वापिस आने का फैसला भी वह मन-ही-मन कर चुका था।
क़रीबन एक माह हो गया, गाँव से आने के बाद लायब्रेरी में जाना, दोस्तों से मिलना या भटकना सब कुछ बन्द कर दिया था। रात के नौ बज गए थे। वह पढ़ने बैठा था… रूम नं. सेवेण्टी फ़ाइव… बीच में गुरखे की आवाज़ सुनाई पड़ी। उसने किताब पटक दी। फ़ौरन शर्ट चढ़ाया और नीचे उतरा। हॉस्टल के दरवाज़े में गुरखे के पास साइकिल पर डाकवाला था। वह टेलीग्राम लाया था। टेलीग्राम फाड़कर देखा। सम्पत ने ही भेजा था।
सुबह ठीक दस बजे वह एस.टी से गाँव पहुँचा। स्टैण्ड पर सम्पत और दो मातंग नौजवान खड़े थे। उतरते ही उसने सम्पत से पूछा, “कैसी है तबीयत?”
सम्पत चुपचाप ही रहा और फिर बोला, “दम तोड़ने से पहले तेरे अण्णा बार-बार तेरे ही नाम का जप कर रहे थे।”
“बाप्पा!” अशोक एकाएक ज़ोर से दहाड़ उठा और सम्पत के कन्धे पर अपना सिर रखकर रोता रहा।
“चलो।” सम्पत ने समझाया।
“कब गुज़रे?”
“भोर के समय।”
अशोक घर पहुँचा, तब मुरदा बाप के पास उसे सिर्फ़ उसकी माँ और सम्पत की माँ यानी उसकी चाची दिखाई दी। अशोक को देखते ही वे दोनों फिर दहाड़कर रोने लगीं। माँ से चिपककर अशोक भी रोने लगा। थोड़ी देर बाद सम्पत ने ही उसे हटाया।
अशोक ने सामने देखा चबूतरे पर पूरा बौद्ध वाड़ा बैठा था। अशोक के चाचा गिड़गिड़ाकर उन सबसे विनती कर रहे थे।
अशोक ने सम्पत से पूछा, “क्या झमेला है?”
“अरे, झमेला किस बात का? वे अण्णा को हाथ तक लगाने को तैयार नहीं हैं?”
“क्यों?”
“क्यों माने? उनका कहना है कि तू गाँव के ख़िलाफ़ गया है। मन्दिर का पैसा भी नहीं दिया तूने।”
“अरे, पैसा कहाँ जाता है? ज़रा आप्पा को बुलाओ।”
सम्पत ने अपने पिता को बुलाया। अशोक उनसे बोला, “अप्पा, क्या कहते हैं लोग?”
“अरे, वे हाथ तक लगाने को तैयार नहीं हैं। मन्दिर का पैसा फेंको, ऐसा बोलते हैं।”
“अप्पा, पैसा न देने की किसको पड़ी है। मैं जल्दी में आया और पैसा बैंक में ही है।”
“अच्छा बाबा, बोले, देता हूँ।”
अशोक दीवार से पीठ टेककर खड़ा रहा। माँ और चाची रो-रोकर बेजान बन गयी थीं। माँ असहायता से मुरदे की तरफ़ देख रही थी। अशोक भी उसकी तरफ़ एकाग्रचित देखने लगा। अप्पा फिर अशोक के पास आए।
“लोग कहते हैं, अब पैसा नहीं दिया तो चलेगा, लेकिन तुझे उनसे क्षमा माँगनी होगी।”
“क्षमा? कैसी क्षमा? मैंने क्या गुनाह किया है?”
“अरे बाबा माँग न क्षमा! कितनी देर तक रखेंगे अण्णा को? कल रात से किसी ने न कुछ खाया, न पिया।”
“अप्पा, एक बात पूछूँ? उन्होंने हाथ नहीं लगाया और मातंगों ने बाप को दफ़नाया, तो क्या अण्णा पिशाच बनकर रहेंगे हमारे लिए?”
“वैसी बात नहीं है, यह प्रथा है और फिर क़ौम का सवाल है। तू उल्टा सोचता है। लावारिस की तरह पड़े तेरे मुरदे बाप को देखकर तेरी माँ क्या सोच रही होगी, मालूम है।”
अशोक की माँ सब सुन रही थी। एकाएक उसने अशोक के पैर पकड़े ओर दहाड़कर रो-रोकर कहने लगी, “अशोका, मेरे बेटे, माँग ले क्षमा! तेरा बाप जिस अधिकार और सम्मान से जिया है, ठीक वैसे ही उसे विदाई दे।”
अशोक ने अपने पैर छुड़वाए। माँ की गोद में सिर रखकर वह रोने लगा। चाचा ने उसे ज़बरदस्ती हटाया।
“अरे, अब रो-रोकर कितना वक़्त गुज़ारेंगे? तू समझदार है। जा, और क्षमा माँग उनसे।”
अशोक ने ज़ोर से साँस छोड़ी और गर्दन झुकाकर चाचा की सम्भनी दी। चाचा अशोक की सम्भनी लेकर लोगों के पास गए।
अशोक का माथा सनसना रहा था। अपने ही रक्त और माँस के लोगों से प्राप्त यह अमानवी चोट अशोक को उखाड़ फेंक रही थी। उसकी साँसे बढ़ने लगीं। उसने सामने देखा। सामने सब क़ौमें थी। फिर उसने नीचे देखा। बाप मुरदा होकर पड़ा था। उसने फिर नज़र हटाई और ऊपर देखा। उसने देखा कि बाप की तरह सचमुच बुद्ध ही मरा पड़ा है।
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